कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
शक्तिपद
वहीं जमीन पर ढेर हो गया। उसने हाथों से माथा पकड़कर हाँफते-हाँफते कहा,
''जो कुछ लिखा है उसे पढ़कर विश्वास नहीं होता...सच...यह मुमकिन
है...नहीं।''
प्रतिमा
भी बुरी तरह सहम गयी और जमीन पर बैठ गयी फिर कातर भाव से चीख उठी,
''साफ-साफ कहो न। मैं तो कुछ भी समझ नहीं पा रही। मेरी माँ को कुछ हो-हवा
तो नहीं गया?''
''हां....प्रतिमा,''
शक्तिपद ने बड़े दुखी और रुँधे स्वर में कहा, ''माँ...हमारी माँ हमें अनाथ
कर चली गयीं।'' शक्तिपद सचमुच काँप रहा था और गहरी उसाँस भर रहा था।
इधर
कलेजा दहला देने वाली चीत्कार के साथ जैसे आसमान हिलाती हुई प्रतिमा
रोने-चीखने लगी, ''यह तुमने क्या सुनाया....मुझे। बिना बदली के यह कैसी
बिजली गिरी...हम
पर...हां...।''
इस
चीत्कार के साथ ही, प्रतिमा चक्कर खाकर गिर पड़ी। और गिरे भी क्यों नहीं।
पूरे दिन भर तो वह बेहोशी की ही हालत में पड़ी थी। शक्तिपद उसके मुँह पर
सुराही का ठण्डा पानी छिडकता रहा और बार-बार यही सोचता रहा कि चिट्ठी जिस
जगह पर रखी थी...वहाँ से दूसरी जगह कैसे चली गयी?
चिट्ठी के एक कोने में
हल्दी का दाग भी लगा था....अँगूठे का, एकदम साफ तौर पर...।
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