कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
हां...थोड़ी देर तो हुई थी
शक्तिपद को...घर के अन्दर पाँव रखते हुए उसे अपने अन्दर साहस बटोरने में
थोड़ी देर हो गयी।
शक्तिपद की समझ में यह
नहीं आया कि वह क्या जवाब दे। लेकिन इस बीच प्रतिमा ने एक दूसरा ही प्रसंग
छेड़ दिया।
वह
बोली, ''आज जो घर में तमाशा हुआ है...पता है? इधर तुम घर से दफ्तर को
निकले और मैं भी रसोईघर में घुसी। यह सोचकर कि बाहर का दरवाजा बन्द कर
दूँ...ठीक इसी समय मुन्ना जोर-जोर से चिल्ला उठा। मैं दौड़ी आयी...पता नहीं
क्या हुआ? ओ माँ...मेरी तो आँखें फटी-की-फटी रह गयीं। देखती हूँ कि एक
बड़ा-सा काला चींटा इसके पाँव की उँगली से चिपका हुआ है, उसे काटता चला जा
रहा है...छोड़ ही नहीं रहा है। थोड़ा-सा खून भी निकला। और तब से जो इसने
रोना-धोना शुरू किया है, दिन भर रोता ही रहा है, पल भर को थमने का नाम ही
नहीं ले रहा। में तो परेशान हो गयी। चारों तरफ देखो तो सही...घर-आँगन में
झाड़ू-पोंछा तक नहीं लगा। वालों में कंघी तक नहीं कर पायी...सारा कुछ
अस्त-व्यस्त है।...इतनी देर बाद अव यह हँस-खेल रहा है।
शक्तिपद
कहीं और खोया-खोया था, उस पर उसकी नजर नहीं थी। बरामदे की खिड़की के नीचे
फर्श से उसकी आँखें जैसे गोंद की तरह चिपक गयी थीं। फिर तो शक्तिपद का
सारा खेल ही बिगड़ गया?
क्या अब भी वह वहीं पड़ी
है? ठीक उसी हालत में?
लेकिन यहाँ तो पत्रिका ही
पड़ी है...चिट्ठी कहाँ है?
...चिट्ठी
कहां है? इस बात की छान-बीन अभी नहीं की जा सकती। अचानक देखकर कोई उसे उठा
ले, ऐसा कोई बच्चा भी घर में नहीं है। अभी तौ मुन्ने और काले चींटे की
काट-चाट का हंगामाखेज किस्सा बयान हो रहा है। और यही वजह थी कि उसे जल्दी
से हाथ-मुँह धोकर मुन्ने को गोद में उठाकर प्यार करना पड़ा।
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