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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


प्रतिमा के जीवन का यह सबसे पहला और सबसे बड़ा शोक था और वह शान्तचित्त दीख रही थी।

अब थोड़ी देर में उसे रोज की तरह उठना होगा और अभी थोड़ी देर में ही महरी आएगी और जब बकरी का दूध लेकर दूधवाला आएगा, उन्हें इस बारे में बताना होगा। कम-से-कम महरी को तो बताना ही पड़ेगा कि उसकी जिन्दगी में कितनी वड़ी और तकलीफदेह घटना घट गयी है। अपनी ही जुबान से बताना होगा। न बताया जाए तो एक साधारण जन की तरह व्यवहार करते रहना पड़ेगा। और करते रहने पर बाद में मालूम हो जाने पर महरी भला क्या सोचेगी? और इस दुखदायी समाचार को सुनकर महरी अवश्य ही प्रतिमा के शोक में सहानुभूति जताने आएगी। इस मौके का सुयोग लेकर ही वह बड़ी अन्तरंगता के नाते पसीज जाएगी और तब उसकी पीठ...कन्धे और माथे को भी सहला देगी। सचमुच, बड़ा ही असह्य है यह दुख। और इतना सब कुछ हो जाने के बाद शक्तिपद देखेगा कि माँ के मरने की खबर पाने के बाद भी प्रतिमा चल-फिर रही है...घर के तमाम काम कर रही है...बच्चे को दूध पिला रही है।

काफी रोने-धोने के बाद बच्चा अपनी माँ की गोद में सो गया था। प्रतिमा अभी भी बैठी है गुमसुम.........सोये बच्चे को गोद में लिये।

समय बीतता चला गया.........तीन बज गये होंगे। बकरी का दूध लाने वाले ने घण्टी बजायी होगी......। प्रतिमा भी मन में कुछ ठानकर ही उठ खड़ी हुई।

पता नहीं...डाकिया कब आया और चिट्ठी डाल गया। प्रतिमा कुछ जान भी न पायी। वह तो बच्चे को सँभाल रही थी.........उसे काले चींटे ने काट खाया था। यही वजह है कि घर-द्वार, दरवाजे-खिड़कियाँ.........किसी भी तरफ देखने की उसे फुरसत तक नहीं मिली। इस बात की गवाह है यह पत्रिका 'छाया-छवि'......जिसका रैपर तक नहीं खोला गया। खिड़की के नीचे......ठीक जिस तरह डाकिया पत्र और पत्रिकाएँ फेंक जाया करता है, ठीक उसी तरह पत्रिका और चिट्ठी रखने के बाद प्रतिमा उठ खड़ी हो गयी। उसने एक छोटा-सा गिलास उठाया और दूधवाले से दूध लेने के लिए दरवाजा खोल दिया। दूध लेने के बाद उसने अभी-अभी रखी गयी दोनों चीजों की ओर ठहरकर देखा...चिट्ठी पत्रिका पास या ऊपर नहीं रखी है बल्कि पत्रिका इसके नीचे दबी रखी है.........ठीक है.........इसी तरह रहे। आने-जाने वालों की निगाह इन पर नहीं पड़े.........ऐसा कहीं सम्भव है? और चिट्ठी पर नजर पड़ते ही तो बेचैन या परेशान होना स्वाभाविक ही है.........और तभी तो वर्धमान से चिट्ठी न आने की वजह पिछले दिनों से प्रतिमा सोचती रही थी।

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