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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


सामनेवाली आम सड़क छोड़कर वह घोष घराने की तालाब की साथ वाली पगडण्डी पर से चलने लगे। इसलिए नहीं कि यह रास्ता कहीं छोटा था बल्कि सूना था। अपनी ही धुन में चले जा रहे थे वह। अचानक उनकी नजर सामने पड़ी और वह हैरान रह गये। तालाब के एकदम पास ही कौन घूम रहा है...इस समय? गोपला तो नहीं? ही...वही तो है। यह तो अजीब बात है? इन लोगों ने आखिर क्या समझ रखा है? और आज के दिन...अपने बेटे को छोड़कर किस इतमीनान के साथ बैठी है। 'इन लोगों' से उनका मतलब था केशव की घरवाली। गोपला या गोपाल केशव का छोटा लड़का था। वह घर से यहाँ तक चलकर आखिर आया कैसे?

केशव तेजी से आगे बढ़ आये बच्चे को पकड़ने के लिए। लेकिन उसके पास आते ही वह ठहर गये और एक अजीब तरह की विरक्ति और खीज भरी सिहरन से उनकी देह लरजने लगी।

उन्हें ऐसा लगा कि उन्होंने ढेर सारा केंचुआ देख लिया हो।

वह गोपाल नहीं था, मानिक था।

मानिक आँधी में पेड़ से गिरी कच्ची इमली बीन रहा था। आस-पास से गुजरने वालों से पूरी तरह बेखबर।

इस घृणाभरी सिहरन के साथ ही, केशव राय के तन-मन में आक्रोश की आग भी धधक उठी थी। यही... यही तो उनके मुकाबले खड़ा है। सारी जमीन-जायदाद का आधा दावेदार। उनके पिछले जनम का दुश्मन। उन्हें याद आया कि पिछले कई दिनों से उन्होंने उसे देखा नहीं है...। दूसरे शब्दों में, देखना नहीं चाहते। कदम अपने बेटे को अपने सबसे बड़े दुश्मन की बुरी निगाह से बचाकर रखना चाहती थी और सहमी रहती थी। उन्हें लगा कि उनके कलकत्ता जाने की खबर उस पक्ष को मिल गयी थी इसीलिए मानिक को घूमने की छूट मिली हुई थी। इसके अलावा एक दूसरा कारण भी था...मुकद्दमा जीतने की मनौती माँगने के लिए कदम माँ आनन्दमयी के आश्रम में फल-फूल चढ़ाने और होम चढ़ाने गयी हुई थी। अगर तीन दिन और तीन रात तक लगातार उस होम की आग को जलाया रखा जा सका तो इस बात में कोई सन्देह नहीं कि जीत उसकी ही होगी।

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