कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
असीमा
की हँसी अचानक उसके कानों में पड़ी...यह कोई साधारण हँसी नहीं थी...ऐसी
हँसी शायद कभी इस घर में नहीं गूँजी थी-यह हँसी दीवार से टकराकर छत तक फैल
गयी थी...किसी झरने की कल-कल की तरह...किसी घण्टी की ध्वनि की तरह...
''भला
तुम्हारे जाने की क्या जरूरत है? मैं अकेली ही चली जाया करूँगी। दफ्तर ते
पास ही, धर्मतल्ला में ही है...वहाँ तक जाने में मैं कोई रास्ता नहीं भूल
जाऊँगी..।''
''अच्छा, तो यह नौकरी
तुम्हें मिली है...मुझे नहीं!'' रणवीर जैसा चीखना चाहता था पर थम गया।
''और
क्या? मुझे यह अच्छी तरह मालूम था कि तुम इसके लिए मरते दम तक राजी नहीं
होगे।... है न! और तभी मैंने तुम्हारा नाम लिये बगैर...अपने बोरे में ही
वातें की थी। मैंने कहा कि दूसरे के पैसे पर रोटियाँ तोड़ते-तोड़ते उकता-सी
गयी हूँ। छोटी-मोटी कोड नौकरी मिल जाए तो करना चाहूँगी। उसने कहा, क्यों
नहीं अभी ले लो... और मुझ पर कृपा करो।''
सुनने
वालों के मुँह पर और भी स्याही फिर गयी थी। जान पड़ा कि वह जलकर काली ही हो
गयी है। असीमा ने ऐसा करने में अपनी तरफ से कुछ उठा न रखा।
जो
स्त्री अपने छोटे-से एकान्त और शान्त घर-संसार मैं आग लगाने को मजबूर की
गयी थी, उसे अब एक पराये घर में आग लगाते हुए भला क्यों हिचक होती? ऐसी
भाबुकता से उसने अपने आपको मुक्त कर लिया था।
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