चिन्मय मिशन साहित्य >> तत्त्वबोध तत्त्वबोधस्वामी शंकरानंद
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इस बात में कोई सन्देह नहीं हो सकता कि संसार में सभी लोग सुखी जीवन जीना चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता।...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तावना
इस बात में कोई विवाद नहीं हो सकता कि संसार में सभी लोग सुखी जीवन जीना
चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता। इसी लक्ष्य को ध्यान में रख वे
विचार और समझ से नाना प्रकार के प्रयास करते हैं किन्तु उन्हें
इस
बात की पूरी जानकारी नहीं होती कि सुख प्राप्त करने के लिए किन-किन दशाओं,
परिस्थियों और वस्तुओं की आवश्यकता होती है। प्रायः देखा जाता है कि
मनुष्य अपनी इन्द्रियों को सुख देने वाली वस्तुओं को और उनको प्राप्त करने
के साधनभूत धन को ही अपने सुख के लिए सब कुछ समझते हैं। इनके
प्राप्त होने से यत्किंचित सुख मिलता है, इससे उनकी धारणा पुष्ट होती है।
किन्तु यह बात भी अस्वीकार नहीं की जा सकती कि मनुष्य को जीवन में दुःख भी
बहुत भोगना पड़ता है। इस दुःख से वह बचना चाहता है। फिर भी वह बच नहीं
पाता। उसके लिए यह परतंत्रता है।
दुःख भोगने की इस परतंत्रता में पड़ा मनुष्य यह मान कर धैर्य धारण कर लेता है कि कुछ न कुछ दुःख सबको सहन करना पड़ता है, इससे पूर्णतः बचा नहीं जा सकता। किन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है। मनुष्य की यह समस्या बहुत पुरानी है, शायद जब से सृष्टि बनी है तभी से उसके साथ यह समस्या है और इसे दूर करने के लिए हजारों लाखों पुरुषों ने प्रयोग किये हैं। इसके फलस्वरूप अध्यात्म-विद्या का विकास हुआ। इसके अन्तर्गत मनुष्य को अपने व्यक्तित्व का गंभीर अध्ययन कर उसके विभिन्न स्तरों के बीच तालमेल बैठाकर अपने मन-बुद्धि के उपकरण को इतना सशक्त बनाया जाता है कि वह बाह्य जगत की अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितयों में जल में कमलपत्र के समान उनसे अछूता रहते हुए अपने अन्तर्तम में विद्यमान आनन्द का अनन्त स्रोत खोज ले और उससे तृप्त रहते हुए संसार में निर्भय जीवन जिये।
यह विद्या उपनिषद, गीता आदि शास्त्रों में भली-भांति दी गयी है। उन्हें समझने के लिए कुछ सहायक ग्रन्थों की भी रचना की गयी है। इन्हें प्रकरण ग्रन्थ कहते हैं। भगवान् शंकराचार्य द्वारा लिखा गया तत्वबोध नामक छोटा सा ग्रन्थ है।
दुःख भोगने की इस परतंत्रता में पड़ा मनुष्य यह मान कर धैर्य धारण कर लेता है कि कुछ न कुछ दुःख सबको सहन करना पड़ता है, इससे पूर्णतः बचा नहीं जा सकता। किन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है। मनुष्य की यह समस्या बहुत पुरानी है, शायद जब से सृष्टि बनी है तभी से उसके साथ यह समस्या है और इसे दूर करने के लिए हजारों लाखों पुरुषों ने प्रयोग किये हैं। इसके फलस्वरूप अध्यात्म-विद्या का विकास हुआ। इसके अन्तर्गत मनुष्य को अपने व्यक्तित्व का गंभीर अध्ययन कर उसके विभिन्न स्तरों के बीच तालमेल बैठाकर अपने मन-बुद्धि के उपकरण को इतना सशक्त बनाया जाता है कि वह बाह्य जगत की अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितयों में जल में कमलपत्र के समान उनसे अछूता रहते हुए अपने अन्तर्तम में विद्यमान आनन्द का अनन्त स्रोत खोज ले और उससे तृप्त रहते हुए संसार में निर्भय जीवन जिये।
यह विद्या उपनिषद, गीता आदि शास्त्रों में भली-भांति दी गयी है। उन्हें समझने के लिए कुछ सहायक ग्रन्थों की भी रचना की गयी है। इन्हें प्रकरण ग्रन्थ कहते हैं। भगवान् शंकराचार्य द्वारा लिखा गया तत्वबोध नामक छोटा सा ग्रन्थ है।
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