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चिन्मय मिशन साहित्य >> मनःशोधनम्

मनःशोधनम्

स्वामी तेजोमयानन्द

प्रकाशक : सेन्ट्रल चिन्मय मिशन ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :84
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1779
आईएसबीएन :81-7597-214-9

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संस्कृत में मनः का अर्थ मन और शोधनम् का अर्थ शुद्ध करना होता है। मन का शुद्धिकरण अथवा मन की शुद्धता प्रस्तुत पुस्तक का शीर्षक है।

Manah Shodhanam -A Hindi Book by Swami Tejomyanand

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मनः शोधनम्

मनोनिग्रह की समस्या युग-युग से चली आ रही है। मन अपना इन्द्रजाल फैलाते हुए कभी नहीं थकता। किन्तु उसको अपने वश में लाए बिना आपको शांति मिल नहीं सकती। इसलिए तो जिन लोगों ने अपने मन के दुर्दम शक्तिशाली संघातों पर विजय प्राप्त कर शांति पा ली है हम उसका ही अनुसरण करना चाहते हैं। ठीक ही कहा गया है कि वह व्यक्ति शक्तिशाली और बहादुर है जो दूसरों पर विजय प्राप्त करता है किन्तु वह व्यक्ति तो ज़्यादा पराक्रमी और समर्थ है जिसमें स्वयं को जीत लिया है।

‘‘मनः शोधनम्’’ स्वामी तेजोमयानन्द की मौलिक रचना है। इसकी व्याख्या करते हुए स्वामी जी मन व उसकी प्रवृत्तीयों पर, मनः-शुद्धि के उपायों की प्रक्रिया पर और मन के शुद्ध हो जाने के फलस्वरूप प्राप्त लाभ पर सम्यक प्रकाश डालते हैं। वे बताते हैं कि कैसे यह मन हमारी दिनचर्या के बीच से ही विभिन्न परिस्थितियों में से हमको उठाकर –सैर कराने ले जाता है और फिर हमारे अनजाने ही हमको एक मनोवैज्ञानिक जाल में फँसा देता है और हमको परेशानी में डाल देता है। उक्त तथ्य को जिस स्पष्टता और गहराई से स्वामी जी प्रस्तुत करते हैं वह सचमुच विस्मयकारी है उनके दृष्टान्तों से एकदम स्पष्ट हो जाता है कि मन कितनी आसानी से हमको छलता है और उसके निषेधात्मक संघात से उभर पाना कितना कठिन है। फिर भी यदि हम मन की छलता को समझना सीख लें और कुछ नियमित अध्यास जैसे मनःप्रेक्षण इत्यादि करते रहें तो  निश्चित रूप से हमारे लिए मनः शुद्धि का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। और तब ही जीवन को सार्थकता मिलती है।


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