नाटक-एकाँकी >> राजनीतिक परिवेश के एकांकी राजनीतिक परिवेश के एकांकीगिरिराजशरण अग्रवाल
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प्रस्तुत है राजनीति परिवेश के एकांकी...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘तुम बहुत भोली हो बेगम ! बदले हुए हालात से परिचित
नहीं हो।
तुम नहीं जानतीं कि राजनीति की शतरंज कैसे खेली जाती है। दौलत, दारू और
दबदबा-इस त्रिकोण के ये तीन मुख्य बिन्दु है।’’
‘‘अच्छा, तो इस त्रिकोण का तीसरा मुख्य बिन्दु पन्नालाल इसीलिए आज आपके सहयोगियों में शामिल है। शराब का यह बदनाम ठेकेदार नकली शराब से कितने ही लोगों की जान ले चुका है अब तक।’’
‘‘तो इससे क्या हुआ ? उस दिन देखना, जब चुनाव से पहली रात गली-गली मोहल्ले-मोहल्ले दारू के प्याऊ खोल दिए जाएँगे। लोग पिएँगे, झूमेंगे, नाचेंगे, ‘शानदार अली खाँ जिन्दाबाद’ बोलेंगे और झोलियाँ भर-भरकर अपने वोट मत पेटियों में बन्द कर देंगे।’’
‘‘यह तुम्हारी भूल है, अली ! लोग इतने मूर्ख नहीं रहे हैं।’’
‘‘तो अक्लमन्दों को सबक सिखाने वाले भी मेरे पास हैं, बेगम ! जबरसिंह और मूसा पटेल-यानी नोट और खौफ।’’
‘‘अच्छा, तो इस त्रिकोण का तीसरा मुख्य बिन्दु पन्नालाल इसीलिए आज आपके सहयोगियों में शामिल है। शराब का यह बदनाम ठेकेदार नकली शराब से कितने ही लोगों की जान ले चुका है अब तक।’’
‘‘तो इससे क्या हुआ ? उस दिन देखना, जब चुनाव से पहली रात गली-गली मोहल्ले-मोहल्ले दारू के प्याऊ खोल दिए जाएँगे। लोग पिएँगे, झूमेंगे, नाचेंगे, ‘शानदार अली खाँ जिन्दाबाद’ बोलेंगे और झोलियाँ भर-भरकर अपने वोट मत पेटियों में बन्द कर देंगे।’’
‘‘यह तुम्हारी भूल है, अली ! लोग इतने मूर्ख नहीं रहे हैं।’’
‘‘तो अक्लमन्दों को सबक सिखाने वाले भी मेरे पास हैं, बेगम ! जबरसिंह और मूसा पटेल-यानी नोट और खौफ।’’
इसी संकलन से
जनता और उसके कल्याण के नाम पर जनतंत्र की नकली नौटंकी के वर्तमान
परिदृश्य तथा राजनीतिक आदर्शों, आस्थाओं, मूल्यों और मर्यादाओं की लगातार
दुर्दशा के जाने-पहचाने दृश्यबन्ध जो अपनी निर्मम निर्ललज्जता से दहलाते
हैं और मतलबी मक्कारियों से मायूसी की मनहूसियत फैलाते हैं, और पाठक के मन
में जगाते हैं कुछ अनबूझे सवाल-
राजनीतिक परिवेश के एकांकी
रिक्शा में एक शाम !
शनिवार से शनिवार तक आठ !
रविवार, सोमवार, आज दस दिन मुझे इस शहर में ठहरे हुए हो गए हैं। दो-तीन दिन बाद वापस चला जाऊँगा।
मैंने इस साल फैसला किया था कि इस बार ग्रीष्म ऋतु का अवकाश घर पर सोकर नहीं गुजारूँगा, बल्कि विभिन्न स्थानों पर जाऊँगा, गाँवों में, शहरों में, सभी उन छोटी बड़ी बस्तियों में जहाँ-जहाँ मेरे परिचित हैं, सम्बन्धी हैं। लोगों से मिलूँगा, हर वर्ग के हर श्रेणी के अपनों से परायों से; परिचितों से अपरिचितों से और जानने की कोशिश करूँगा कि आदमी ने अपने विकास की जो इतनी लम्बी यात्रा तय की है, उसमें बीसवीं सदी के अन्त तक आते-आते वह किस स्थान पर पहुँचा है ? और इक्कीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक उसकी सोच, उसकी प्रवृत्तियों का रूख क्या होगा ? पाषाण जो निर्जीव हैं और पर्वत की श्रृंखलाओं में कहीं चुपचाप पड़े हैं, परिवर्तन की प्रक्रिया से वे भी गुजर रहे हैं, बदल रहे हैं वे भी अपने आपको। आदमी तो फिर भी आदमी है, वह स्वयं तो अपने- आपको बदलता ही है, परिस्थियों के हाथ भी उसे इस प्रकार परिवर्तित कर रहे हैं, जिसका सहज अनुमान लगाना कठिन है।
अक्सर मुझे अपनी कल्पना में वह बहुत बड़ा चाक घूमता हुआ दिखाई दिया है, जिसे समय का कुम्भकार घुमा रहा है, सदियों और सदियों से और गीली मिट्टी के मानव आकर उस पर अपने जीवन, अपने स्वभाव और प्रवृत्तियों को बदलते देख रहे हैं।
चाक चल रहा है,
समय का कुम्भकार चुप है।
दोपहर का सूरज अपना नियमित मार्ग तय करते हुए आधे से कुछ अधिक की यात्रा पूरी कर चुका है। मैं इस छोटे से कमरे में इस वक्त अकेला हूँ। मेरा मित्र जिसके पास मै पिछले दस दिन से ठहरा हूँ, किसी कार्यवश बाहर चला गया है।
हवा मन्द है। खिडकियों पर झूलते हुए परदे हवा का स्पर्श न पाकर अपनी गुदगुदाहट खो चुके हैं, शान्त हो गए हैं। धूप की एक बारीक-सी लकीर ऊपर के रोशनदान से छनकर बाई ओर की दीवार पर स्थिर हो गई है। मुझे लगता है, जैसे आदमी रोशनी की इस लकीर को छोड़कर सदा-सदा के लिए अपने कक्षों से बाहर निकल गया है। क्या वह रोशनी की इस विरासत को लेने कभी वापस आएगा ? एक सवाल नाग की तरह फन उठाकर मेरे सामने खड़ा हो गया है।
वह भीड़ मेरी कल्पना में ऊभर आई है, जो शताब्दी की इस नवीं दहाई को फलाँगती हुई इक्कीसवीं सदी के अधखुले द्वार की तरफ बढ़ रही है।
मैं कल्पना ही कल्पना में इस भीड़ में सम्मिलित एक-एक व्यक्ति की झोली टटोलकर देखता हूँ। इनमें भीड़ का नेतृत्व करने वाले नेता भी हैं, धार्मिक उपदेश देने वाले धर्मगुरुओं के जत्थे भी, कुर्ते पहने और मोटे फ्रेम के चश्में लगाये राज नीतिज्ञों के गुट भी हैं, शिक्षक और अध्यापक भी हैं, लेकिन इन सबकी झोलियाँ खाली हैं, हाथ खाली हैं, मस्तिष्क और आत्मा भी खाली है।
धर्मगुरुओं के पास मोटे-मोटे ग्रन्थ हैं।
राजनेताओं के पास नीतियों पर लिखी गई भारी-भारी पुस्तकें हैं और अध्यापक उन शास्त्रों को अपनी बगलों में दबाये हैं, जिनसे वे और उनके पुरखे अपने बच्चों को शिक्षित करते आए थे..
मैं एक-एक पुस्तक एक-एक ग्रन्थ एक-एक शास्त्र खोलकर देखता हूँ और यह देखकर आश्चर्य में पड़ जाता हूँ कि इन पुस्तकों के पन्नों पर शब्द तो हैं लेकिन उनके अर्थ गायब हो चुके हैं। बिल्कुल इस तरह जैसे आदमी मरकर अपना शरीर छोड़ जाता है, और आत्मा लुप्त हो जाती है।
मुझे वह भविष्यवाणी याद आती है, जो संसार के अन्तिम चरणों का वर्णन करते हुए किसी देवदूत ने की थी-
‘‘प्रलय से पहले एक युग वह आएगा, जब पुस्तकों से अर्थ ही नहीं, शब्द भी गायब हो जाएँगे।’’
इस वाक्य को स्मरण करके मैं भय से काँफ जाता हूँ और वह दृश्य मेरी कल्पना में उभर आता है, जब मैं पुस्तक खोलूँगा, तो सादा पन्ना मेरे सम्मुख आएगा, क्योंकि उस समय तक मैं उसमें लिखे शब्दों को समझने और उनसे शिक्षा ग्रहण करने की योग्यता खो चुका हूँगा।
तो वह आदमी, जो इस लम्बी यात्रा पर निकला था, अन्त तक पहुँचते-पहुँचते अपनी वह पूँजी खो चुकेगा, जो वह कभी अपने साथ लेकर चला था-नैतिक और मानवीय मूल्यों की बहुमूल्य पूँजी।
सूर्य के प्रकाश की वह लकीर अब भी कमरे की इस दीवार से चिपकी हुई है, जिसे कुछ ही क्षण पहले मैंने देखा था। यह दीवार की सतह से अब कुछ और ऊपर सरक गई है। ज्यों-ज्यों सूरज पश्चिम की ओर ढल रहा है, रोशनी की यह लकीर दीवार के ऊपरी हिस्से की तरफ लपक रही है। और मुझे विश्वास है कि जब सूरज पश्चिम की अंधी कोख में डूब रहा होगा, रोशनी की यह लकीर भी रोशनदान के रास्ते निकलकर ऐसे गायब हो जाएगी जैसे शब्दों से उनके अर्थ गायब हो चुके हैं, या जैसे आने वाले समय में पुस्तकों के शब्द गायब हो जाएँगे, और पन्ने ऐसे सादा सपाट रह जाएँगे जैसे कुछ ही देर बाद कमरे की यह दीवार (जहाँ रोशनी की यह लकीर चिपकी है) खाली और सुनसान हो जाने वाली है।
एक ऊब, एक उदासी, सोच के लम्बे जीने से उतरती हुई अचानक मुझे घेर लेती है। इच्छा होती है, कमरे के बाहर निकलूँ, उन लोगों से मिलूँ, जो नमूना हैं, उस जीवन का, जीवन के उन विभिन्न क्षेत्रों का जिन्हें हम जी रहे हैं, सह रहे हैं।
विचारों के सागर में डूबकर बाहर निकला हूँ। ट्रांजिस्टर की वही आवाज फिर मेरे पास तक आई है, जो पिछले दस दिन से लगातार मेरे कानों पर दस्तक देती रही है।
सोचता हूँ, ऊपर की मंजिल पर यह कौन व्यक्ति है, जो हर वक्त ट्रांजिस्टर पर सभी उलटे-सीधे कार्यक्रम सुनता रहता है। सुबह छह बजे से रात के बारह बजे तक...
समाचार,
राजनीतिक समीक्षाएँ,
वार्ताएँ, परिचर्चाएँ,
गाने, नाटक, रूपक, भाषण,
सभी कुछ...
सोचता हूँ, कि क्या इस व्यक्ति को अब जीवन में करने के लिए कोई काम नहीं रह गया है ? शायद वह अकेला है और रिटायर...कल्पना में एक ऐसे आदमी की छवि उत्तर आई है, जो चाहे-अनचाहे अपने जीवन का सफर पूरा कर चुका है और निरन्तर अपने अतीत को, उन दिनों को भूलने का प्रयास कर रहा है, जिन्हें वह बहुत पीछे छोड़ आया है। मैं साहस जुटाता हूँ और सीढ़ी चढ़कर उसके कमरे में पहुँच जाता हूँ।
वह एक बूढ़ा, कमज़ोर और बीमार व्यक्ति है।
कमर झुककर कमान की तरह दोहरी हो गई है।
सफ़ेद बाल इस प्रकार माथे पर झुके हैं, जैसे पतझड़ की मारी शाखाएँ अपने पीले पत्ते उनसे अपना आखिरी सम्बन्ध तोड़ने के लिए नीचे झुका लेती है। बूढ़ा सामने बिछी मेज़ पर अपने पाँव फैलाये औंधा लेटा है और छाती पर रखा ट्रांजिस्टर कोई वार्ता प्रसारित कर रहा है। मुझे लगता है कि यह वार्ता मानव जीवन में नैतिक मूल्यों के महत्त्व से सम्बन्धित है। वार्ताकार कुछ महापुरुषों की जीवनी पर प्रकाश डालते हुए अपनी बात को सुन्दर एवं प्रभावपूर्ण शब्दों में व्यक्त करने का प्रयास कर रहा है। मैं कुछ देर चुपचाप सुनता रहता हूँ और फिर उसकी अनुमति लिये बगैर सामने बिछी कुर्सी पर बैठ जाता हूँ।
चौंककर उसने मेरी तरफ देखा है और ट्रांजिस्टर बन्द कर दिया है। हम दोनों अपनी सांस्कृतिक परम्परा के अनुसार कुछ औपचारिक वाक्य दोहराते हुए इधर-उधर की बातों में व्यक्त हो गए हैं। मैं उससे पूछता हूँ-‘‘तुम सारे दिन और आधी रात तक ट्रांजिस्टर सुनते रहते हो, आखिर क्यों ? किस चीज को भुलाने की कोशिश कर रहे हो तुम ?’’
वह कड़वी हँसी हँसकर कहता है, ‘‘समस्या किसी को भुलाने अथवा याद करने की नहीं है, दरअसल मुझे झूठ अच्छा लगता है। झूठ से अपना मन बहलाने के लिए ही मैं यह सब करता हूँ-’’
‘‘झूठ -!’’ मैं पूछता हूँ, ‘‘झूठ कैसा-?’’
बूढ़ा व्यक्ति ध्यान से एक क्षण मेरी तरफ़ देखता है और फिर कुछ टूटे-फूटे बोल उसके अधरों से निकल पड़ते हैं। लगता है जैसे उसके शब्दों को अधरंग मार गया हो।
जी हाँ। हर सचाई को अधरंग ही मार गया है न अब !
बूढ़ा मुझसे कहता है-
सुनने में अच्छा लगता है,
सुबह पहला कार्यक्रम आरम्भ होने के साथ ही मैं रेडियो ऑन कर देता हूँ-
‘वन्देमातरम्’
लगता है जैसे मीठा, आनन्द से भरा स्वर मेरे कानों में रस घोलता हुआ कहता है कि आदर्श अभी मरे नहीं हैं, जीवित हैं।
सुकरात ने कहा था,
भगवान बुद्ध ने कहा था,
महात्मा गांधी ने कहा था,
पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था..
रोज ही जब किसी महापुरुष के विचार मेरे कानों में पड़ते हैं, मुझे लगता है, जैसे यह दुनिया स्वर्ग है और इस दुनिया को स्वर्ग बनाने वाले हाथ अपना कर्त्तव्य निभाने में व्यक्त हैं, पाप के राक्षस हार गए हैं।
और फिर-
प्रेम के रस तथा मानव-भावनाओं को व्यक्त करने वाले गीतों, कविताओं, कहानियों से ज्ञात होता कि संसार अभी नरक नहीं बना है अथवा दुनिया अभी इतनी विकृत नहीं हुई है कि आदमी अभी जीवन से निराश हो जाए।
बूढ़ा अधरों पर शब्द रोककर माँ मरियम के उस चित्र को देखने लगता है, जो सामने की दीवार पर टँगा है और जिसके चेहरे से एक अद्भुत शान्ति, धैर्य, स्नेह और पवित्रता के भाव इस तरह टूट रहे हैं, जैसे सूर्य की छाती से किरणें फूट निकलती हैं-
मैं धीरे स्वर में उससे पूछता हूँ-
‘‘क्या आवाज़ों की दुनिया को छोड़कर कभी क्रिया-कलापों की दुनिया तक नही जाते ?’’
‘‘नहीं-’’ वह दृढ़ता से उत्तर देता है, ‘‘मुझे डर है, वह दुनिया मेरे उन सपनों को चकनाचूर कर देगी, जो मैं इस छोटे से कमरे में बैठकर बुनता हूँ। और रेडियो पर सुनाये जाने वाले समाचार जिस पर प्रायः आघात करते हैं-जब सुनता हूँ, आतंकवादियों ने पूरे एक परिवार का सफाया कर दिया, साम्प्रदायिक दंगों में दर्जन भर से अधिक लोग मार डाले गए, या किसी निरीह महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, तो मुझे लगता है कि जैसे बाहर की झूठी, पाखण्डी दुनिया मेरे सपनों की सच्ची दुनिया में प्रवेश कर गई है-मैं तुरन्त रेडियो बन्द कर देता हूँ।’’
मैं सपनों की इस दुनिया के आदमी की ओर आश्चर्य से देखता हूँ। धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरते हुए नीचे वापस आ जाता हूँ। रेडियो की आवाज़ हवा की लहरों पर यात्रा करती हुई फिर मेरे कानों में पहुँच रही है। बूढ़ा कोई प्रेम गीत सुनने में व्यस्त हो गया है।
रविवार, सोमवार, आज दस दिन मुझे इस शहर में ठहरे हुए हो गए हैं। दो-तीन दिन बाद वापस चला जाऊँगा।
मैंने इस साल फैसला किया था कि इस बार ग्रीष्म ऋतु का अवकाश घर पर सोकर नहीं गुजारूँगा, बल्कि विभिन्न स्थानों पर जाऊँगा, गाँवों में, शहरों में, सभी उन छोटी बड़ी बस्तियों में जहाँ-जहाँ मेरे परिचित हैं, सम्बन्धी हैं। लोगों से मिलूँगा, हर वर्ग के हर श्रेणी के अपनों से परायों से; परिचितों से अपरिचितों से और जानने की कोशिश करूँगा कि आदमी ने अपने विकास की जो इतनी लम्बी यात्रा तय की है, उसमें बीसवीं सदी के अन्त तक आते-आते वह किस स्थान पर पहुँचा है ? और इक्कीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक उसकी सोच, उसकी प्रवृत्तियों का रूख क्या होगा ? पाषाण जो निर्जीव हैं और पर्वत की श्रृंखलाओं में कहीं चुपचाप पड़े हैं, परिवर्तन की प्रक्रिया से वे भी गुजर रहे हैं, बदल रहे हैं वे भी अपने आपको। आदमी तो फिर भी आदमी है, वह स्वयं तो अपने- आपको बदलता ही है, परिस्थियों के हाथ भी उसे इस प्रकार परिवर्तित कर रहे हैं, जिसका सहज अनुमान लगाना कठिन है।
अक्सर मुझे अपनी कल्पना में वह बहुत बड़ा चाक घूमता हुआ दिखाई दिया है, जिसे समय का कुम्भकार घुमा रहा है, सदियों और सदियों से और गीली मिट्टी के मानव आकर उस पर अपने जीवन, अपने स्वभाव और प्रवृत्तियों को बदलते देख रहे हैं।
चाक चल रहा है,
समय का कुम्भकार चुप है।
दोपहर का सूरज अपना नियमित मार्ग तय करते हुए आधे से कुछ अधिक की यात्रा पूरी कर चुका है। मैं इस छोटे से कमरे में इस वक्त अकेला हूँ। मेरा मित्र जिसके पास मै पिछले दस दिन से ठहरा हूँ, किसी कार्यवश बाहर चला गया है।
हवा मन्द है। खिडकियों पर झूलते हुए परदे हवा का स्पर्श न पाकर अपनी गुदगुदाहट खो चुके हैं, शान्त हो गए हैं। धूप की एक बारीक-सी लकीर ऊपर के रोशनदान से छनकर बाई ओर की दीवार पर स्थिर हो गई है। मुझे लगता है, जैसे आदमी रोशनी की इस लकीर को छोड़कर सदा-सदा के लिए अपने कक्षों से बाहर निकल गया है। क्या वह रोशनी की इस विरासत को लेने कभी वापस आएगा ? एक सवाल नाग की तरह फन उठाकर मेरे सामने खड़ा हो गया है।
वह भीड़ मेरी कल्पना में ऊभर आई है, जो शताब्दी की इस नवीं दहाई को फलाँगती हुई इक्कीसवीं सदी के अधखुले द्वार की तरफ बढ़ रही है।
मैं कल्पना ही कल्पना में इस भीड़ में सम्मिलित एक-एक व्यक्ति की झोली टटोलकर देखता हूँ। इनमें भीड़ का नेतृत्व करने वाले नेता भी हैं, धार्मिक उपदेश देने वाले धर्मगुरुओं के जत्थे भी, कुर्ते पहने और मोटे फ्रेम के चश्में लगाये राज नीतिज्ञों के गुट भी हैं, शिक्षक और अध्यापक भी हैं, लेकिन इन सबकी झोलियाँ खाली हैं, हाथ खाली हैं, मस्तिष्क और आत्मा भी खाली है।
धर्मगुरुओं के पास मोटे-मोटे ग्रन्थ हैं।
राजनेताओं के पास नीतियों पर लिखी गई भारी-भारी पुस्तकें हैं और अध्यापक उन शास्त्रों को अपनी बगलों में दबाये हैं, जिनसे वे और उनके पुरखे अपने बच्चों को शिक्षित करते आए थे..
मैं एक-एक पुस्तक एक-एक ग्रन्थ एक-एक शास्त्र खोलकर देखता हूँ और यह देखकर आश्चर्य में पड़ जाता हूँ कि इन पुस्तकों के पन्नों पर शब्द तो हैं लेकिन उनके अर्थ गायब हो चुके हैं। बिल्कुल इस तरह जैसे आदमी मरकर अपना शरीर छोड़ जाता है, और आत्मा लुप्त हो जाती है।
मुझे वह भविष्यवाणी याद आती है, जो संसार के अन्तिम चरणों का वर्णन करते हुए किसी देवदूत ने की थी-
‘‘प्रलय से पहले एक युग वह आएगा, जब पुस्तकों से अर्थ ही नहीं, शब्द भी गायब हो जाएँगे।’’
इस वाक्य को स्मरण करके मैं भय से काँफ जाता हूँ और वह दृश्य मेरी कल्पना में उभर आता है, जब मैं पुस्तक खोलूँगा, तो सादा पन्ना मेरे सम्मुख आएगा, क्योंकि उस समय तक मैं उसमें लिखे शब्दों को समझने और उनसे शिक्षा ग्रहण करने की योग्यता खो चुका हूँगा।
तो वह आदमी, जो इस लम्बी यात्रा पर निकला था, अन्त तक पहुँचते-पहुँचते अपनी वह पूँजी खो चुकेगा, जो वह कभी अपने साथ लेकर चला था-नैतिक और मानवीय मूल्यों की बहुमूल्य पूँजी।
सूर्य के प्रकाश की वह लकीर अब भी कमरे की इस दीवार से चिपकी हुई है, जिसे कुछ ही क्षण पहले मैंने देखा था। यह दीवार की सतह से अब कुछ और ऊपर सरक गई है। ज्यों-ज्यों सूरज पश्चिम की ओर ढल रहा है, रोशनी की यह लकीर दीवार के ऊपरी हिस्से की तरफ लपक रही है। और मुझे विश्वास है कि जब सूरज पश्चिम की अंधी कोख में डूब रहा होगा, रोशनी की यह लकीर भी रोशनदान के रास्ते निकलकर ऐसे गायब हो जाएगी जैसे शब्दों से उनके अर्थ गायब हो चुके हैं, या जैसे आने वाले समय में पुस्तकों के शब्द गायब हो जाएँगे, और पन्ने ऐसे सादा सपाट रह जाएँगे जैसे कुछ ही देर बाद कमरे की यह दीवार (जहाँ रोशनी की यह लकीर चिपकी है) खाली और सुनसान हो जाने वाली है।
एक ऊब, एक उदासी, सोच के लम्बे जीने से उतरती हुई अचानक मुझे घेर लेती है। इच्छा होती है, कमरे के बाहर निकलूँ, उन लोगों से मिलूँ, जो नमूना हैं, उस जीवन का, जीवन के उन विभिन्न क्षेत्रों का जिन्हें हम जी रहे हैं, सह रहे हैं।
विचारों के सागर में डूबकर बाहर निकला हूँ। ट्रांजिस्टर की वही आवाज फिर मेरे पास तक आई है, जो पिछले दस दिन से लगातार मेरे कानों पर दस्तक देती रही है।
सोचता हूँ, ऊपर की मंजिल पर यह कौन व्यक्ति है, जो हर वक्त ट्रांजिस्टर पर सभी उलटे-सीधे कार्यक्रम सुनता रहता है। सुबह छह बजे से रात के बारह बजे तक...
समाचार,
राजनीतिक समीक्षाएँ,
वार्ताएँ, परिचर्चाएँ,
गाने, नाटक, रूपक, भाषण,
सभी कुछ...
सोचता हूँ, कि क्या इस व्यक्ति को अब जीवन में करने के लिए कोई काम नहीं रह गया है ? शायद वह अकेला है और रिटायर...कल्पना में एक ऐसे आदमी की छवि उत्तर आई है, जो चाहे-अनचाहे अपने जीवन का सफर पूरा कर चुका है और निरन्तर अपने अतीत को, उन दिनों को भूलने का प्रयास कर रहा है, जिन्हें वह बहुत पीछे छोड़ आया है। मैं साहस जुटाता हूँ और सीढ़ी चढ़कर उसके कमरे में पहुँच जाता हूँ।
वह एक बूढ़ा, कमज़ोर और बीमार व्यक्ति है।
कमर झुककर कमान की तरह दोहरी हो गई है।
सफ़ेद बाल इस प्रकार माथे पर झुके हैं, जैसे पतझड़ की मारी शाखाएँ अपने पीले पत्ते उनसे अपना आखिरी सम्बन्ध तोड़ने के लिए नीचे झुका लेती है। बूढ़ा सामने बिछी मेज़ पर अपने पाँव फैलाये औंधा लेटा है और छाती पर रखा ट्रांजिस्टर कोई वार्ता प्रसारित कर रहा है। मुझे लगता है कि यह वार्ता मानव जीवन में नैतिक मूल्यों के महत्त्व से सम्बन्धित है। वार्ताकार कुछ महापुरुषों की जीवनी पर प्रकाश डालते हुए अपनी बात को सुन्दर एवं प्रभावपूर्ण शब्दों में व्यक्त करने का प्रयास कर रहा है। मैं कुछ देर चुपचाप सुनता रहता हूँ और फिर उसकी अनुमति लिये बगैर सामने बिछी कुर्सी पर बैठ जाता हूँ।
चौंककर उसने मेरी तरफ देखा है और ट्रांजिस्टर बन्द कर दिया है। हम दोनों अपनी सांस्कृतिक परम्परा के अनुसार कुछ औपचारिक वाक्य दोहराते हुए इधर-उधर की बातों में व्यक्त हो गए हैं। मैं उससे पूछता हूँ-‘‘तुम सारे दिन और आधी रात तक ट्रांजिस्टर सुनते रहते हो, आखिर क्यों ? किस चीज को भुलाने की कोशिश कर रहे हो तुम ?’’
वह कड़वी हँसी हँसकर कहता है, ‘‘समस्या किसी को भुलाने अथवा याद करने की नहीं है, दरअसल मुझे झूठ अच्छा लगता है। झूठ से अपना मन बहलाने के लिए ही मैं यह सब करता हूँ-’’
‘‘झूठ -!’’ मैं पूछता हूँ, ‘‘झूठ कैसा-?’’
बूढ़ा व्यक्ति ध्यान से एक क्षण मेरी तरफ़ देखता है और फिर कुछ टूटे-फूटे बोल उसके अधरों से निकल पड़ते हैं। लगता है जैसे उसके शब्दों को अधरंग मार गया हो।
जी हाँ। हर सचाई को अधरंग ही मार गया है न अब !
बूढ़ा मुझसे कहता है-
सुनने में अच्छा लगता है,
सुबह पहला कार्यक्रम आरम्भ होने के साथ ही मैं रेडियो ऑन कर देता हूँ-
‘वन्देमातरम्’
लगता है जैसे मीठा, आनन्द से भरा स्वर मेरे कानों में रस घोलता हुआ कहता है कि आदर्श अभी मरे नहीं हैं, जीवित हैं।
सुकरात ने कहा था,
भगवान बुद्ध ने कहा था,
महात्मा गांधी ने कहा था,
पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था..
रोज ही जब किसी महापुरुष के विचार मेरे कानों में पड़ते हैं, मुझे लगता है, जैसे यह दुनिया स्वर्ग है और इस दुनिया को स्वर्ग बनाने वाले हाथ अपना कर्त्तव्य निभाने में व्यक्त हैं, पाप के राक्षस हार गए हैं।
और फिर-
प्रेम के रस तथा मानव-भावनाओं को व्यक्त करने वाले गीतों, कविताओं, कहानियों से ज्ञात होता कि संसार अभी नरक नहीं बना है अथवा दुनिया अभी इतनी विकृत नहीं हुई है कि आदमी अभी जीवन से निराश हो जाए।
बूढ़ा अधरों पर शब्द रोककर माँ मरियम के उस चित्र को देखने लगता है, जो सामने की दीवार पर टँगा है और जिसके चेहरे से एक अद्भुत शान्ति, धैर्य, स्नेह और पवित्रता के भाव इस तरह टूट रहे हैं, जैसे सूर्य की छाती से किरणें फूट निकलती हैं-
मैं धीरे स्वर में उससे पूछता हूँ-
‘‘क्या आवाज़ों की दुनिया को छोड़कर कभी क्रिया-कलापों की दुनिया तक नही जाते ?’’
‘‘नहीं-’’ वह दृढ़ता से उत्तर देता है, ‘‘मुझे डर है, वह दुनिया मेरे उन सपनों को चकनाचूर कर देगी, जो मैं इस छोटे से कमरे में बैठकर बुनता हूँ। और रेडियो पर सुनाये जाने वाले समाचार जिस पर प्रायः आघात करते हैं-जब सुनता हूँ, आतंकवादियों ने पूरे एक परिवार का सफाया कर दिया, साम्प्रदायिक दंगों में दर्जन भर से अधिक लोग मार डाले गए, या किसी निरीह महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, तो मुझे लगता है कि जैसे बाहर की झूठी, पाखण्डी दुनिया मेरे सपनों की सच्ची दुनिया में प्रवेश कर गई है-मैं तुरन्त रेडियो बन्द कर देता हूँ।’’
मैं सपनों की इस दुनिया के आदमी की ओर आश्चर्य से देखता हूँ। धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरते हुए नीचे वापस आ जाता हूँ। रेडियो की आवाज़ हवा की लहरों पर यात्रा करती हुई फिर मेरे कानों में पहुँच रही है। बूढ़ा कोई प्रेम गीत सुनने में व्यस्त हो गया है।
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