नाटक-एकाँकी >> राष्ट्रीय एकता के एकांकी राष्ट्रीय एकता के एकांकीगिरिराजशरण अग्रवाल
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प्रस्तुत है राष्ट्रीय एकता के एकांकी...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘आज से लगभग 100 वर्ष पहले, वह एक अंग्रेज न्यायधीश
था पंजाब का मिस्टर मैकालिफ-जिसने 1890 में सबसे पहले यह नारा दिया कि सिख
एक अलग धर्म है एक अलग काम है। कैसे अचम्भे की बात है, मैकालिफ ने यह तो
लिखा कि सिख हिन्दू से अलग कौन है और यह बात वह भूल गया कि महाराजा रणजीत
सिंह ने जगन्नाथपुरी को कोहनूर हीरा और काशी विश्वनाथ मंदिर को कई मन सोना
भेंट किया था, वह यह भी भूल गया कि सिखों ने हमेशा हिन्दू धर्म की रक्षा
की है।
‘‘अपना भाषण बन्द करो, कमीन के बच्चे। तुम नहीं जानते कि आज सिख कौम भारत में गुलामों जैसी जिन्दगी गुजार रही है उसकी अस्तित्व खतरे में है।’’
‘‘गुलामी की जिन्दगी सिख कौम नहीं, तुम और तुम्हारे साथ के आतंकवादी गुजार रहे हैं जो बिक गए हैं उन विदेशी शक्तियों के हाथों जो भारत को तोड़ देना चाहती हैं, खण्डित कर देना चाहती है।’’
‘‘अपना भाषण बन्द करो, कमीन के बच्चे। तुम नहीं जानते कि आज सिख कौम भारत में गुलामों जैसी जिन्दगी गुजार रही है उसकी अस्तित्व खतरे में है।’’
‘‘गुलामी की जिन्दगी सिख कौम नहीं, तुम और तुम्हारे साथ के आतंकवादी गुजार रहे हैं जो बिक गए हैं उन विदेशी शक्तियों के हाथों जो भारत को तोड़ देना चाहती हैं, खण्डित कर देना चाहती है।’’
इसी संकलन में पढ़ें
राष्ट्रीय एकता और अखंडता के अखबारी नारों से परे कुछ प्रेरक,
भावोत्तेजक तथा रचनात्मक शब्दचित्र जो धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के
निहित स्वार्थों के जंजाल में जकड़े भारत की मूलभूत समस्याओं पर मौलिक,
यथार्थपरक और सार्थक चिंतन की प्रेरणा जगाएँगे-
दो तोपें चाँदी की
आँख खुलते ही एक आहट कान में आई।
जैसे बाहर की तरफ से खुलने वाली खिड़की से कोई चीज़ कमरे के भीतर आकर गिरी हो। आवाज़ परिचित थी। विश्वास हो गया कि आवाज प्रातः कालीन समाचार पत्र की है, जो प्रतिदिन इसी खिड़की से इसी प्रकार, इसी आहट के साफ फर्श पर आकार गिरता है और मन में जिज्ञासा पैदा करता है यह जानने की कि पिछले चौबीस घण्टों में दुनिया पर क्या बीती है।
सुबह का सूरज अभी निकला नहीं है और अगर निकला है, तो उसका प्रकाश अभी मेरे कमरे, मेरे घर की दीवारों पर या अँगनाई तक नहीं पहुँचा है, क्योंकि आसपास खड़ी ऊँची कोठियों ने अभी उसे पूरी तरह रास्ता नहीं दिया है। आसमान को चूमते हुए भव्य भवन अब भी उसके रास्ते में बाधा बने खड़े हैं। लेकिन यह तो सूर्य है, महान् और कभी पराजित न होने वाला सूर्य, जो ऊपर चढ़ता ही जाएगा, चढ़ता ही जाएगा, यहाँ तक कि दोपहर होने तक इन विशाल भवनों की परछाइयाँ भी सिकुड़कर बौनी हो जाएँगी। यह तो सूर्य देवता है, जिसका प्रकाश सबके लिए समान है, सबके लिए बराबर। यह गरीब घर का दीया नहीं है, जो स्वयं अपने आँगन को भी पूरी तरह प्रकाशित नहीं कर पाता। दीये को तेल और बाती आदमी देता है, आदमी जिसने मानव समाज में असमानता के बीज बोए, जिसने समाज में छोटे-बड़े वर्गों की स्थापना की और जिसने अँधेरे और उजाले को विभाजित कर उसे अलग-अलग श्रेणियों में बाँट दिया, लेकिन यह तो सूरज है, जिसे उजाला प्रकृति देती है, आदमी नहीं...
विचारों का एक रेला मेरी तरफ बढ़ता है और मस्तिष्क पर छा जाता है। कमरे में धूप नहीं है लेकिन रोशनी अवश्य आ गई है, सोचता हूँ कि ऊँची दीवारें और ऊँची अटारियाँ सूरज की किरणों को निस्संदेह कुछ क्षण के लिए मेरी खिड़की तक आने से रोक सकती हैं, लेकिन उनकी रोशनी को फैलने से रोकने वाला कोई नहीं है।
किचन से बर्तन खनकने की आवाज आती है विश्वास हो जाता है पत्नी चाय बनाने में व्यस्त होगी। आँखों से देखे बिना आदमी कितनी ही चीजों को केवल अपने अनुभव और विवेक की दृष्टि से देख लेता है। आश्चर्य की बात है
मैंने अखबार नहीं देखा लेकिन निश्चित समय पर होने वाली एक विशेष आवाज ने मुझे बता दिया कि यह कुछ और हो या न हो, अवश्य ही आज का अखबार है, जिसे रोज की भाँति हॉकर मेरी खिड़की से फेंक गया है।
मैंने पत्नी को चाय बनाते नहीं देखा लेकिन प्रतिदिन की बर्तनों की सुपरिचित आहट ने मुझे बता दिया कि पत्नी किचन में है और मेरे लिए चाय तैयार कर रही है। मैं चाय की प्रतीक्षा करता हूँ और जैसे ही खिड़की के नीचे हाथ बढ़ाता हूँ, नजर अचानक बाहर सड़क पर जाती है। सड़क से एक आदमी गुज़र रहा है। उसका ऊपर का धड़ मेरी आँखों से ओझल है, मैं केवल उसके निचले धड़ और पैर ही देख पा रहा हूँ। सम्पूर्ण आदमी को नहीं।
तो क्या मुझे कहना चाहिए,
कि यह आदमी पूरा नहीं-
अधूरा आदमी है-
क्योंकि इसका जो भाग मेरे सामने प्रमाणित नहीं है उसे कल्पना के आधार पर स्वीकार करना मेरे लिए आवश्यक क्यों है ? मैं कह सकता हूँ कि इसका निचला धड़ मेरे सामने है, ऊपर का नहीं, इसलिए यह आदमी अधूरा है, और केवल अपने निचले धड़ के सहारे एक-एक पग आगे बढ़ते हुए अपनी यात्रा पूरी कर रहा है।
लेकिन मैं ऐसा नहीं कहूँगा,
क्योंकि समाचार पत्र मैंने खिड़की से अन्दर आते नहीं देखा लेकिन विवेक और अनुभव से जान गया कि यह समाचार पत्र ही है, जो हॉकर खिड़की से भीतर फेंक गया है।
पत्नी को चाय बनाते हुए मैंने नहीं देखा लेकिन प्रतिदिन की परिचित आहट ने मुझे बताया कि किचन में निश्चित तौर पर पत्नी ही है, जो इस समय मेरे लिए चाय बना रही है।
सचाइयाँ मात्र आँखों से प्रमाणित नहीं होतीं, अनुभव से भी होती है। जैसे आदमी का यह निचला धड़ जो मेरे सामने से गुज़र रहा है, मुझे विवश करता है, इस सचाई को मानने पर कि उसका ऊपर वाला धड़ भी अवश्य होना चाहिए और अवश्य होगा। यह केवल अनुभव और विवेक ही है, जो आँखों देखी अधूरी सचाई को पूर्ण कर रहा है, इसके लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
विचारों की बाढ़ अब तक मेरे मस्तिष्क को घेरे है, अखबार मैंने फर्श से उठा कर अपने सिरहाने रख लिया है।
अब तक के विचारों को काटती हुई, सोच की एक और लहर मेरे भीतर उठती है-
मुझे लगता है, दुनिया में पूरे आदमी ही नहीं आधे अधूरे आदमी भी होते हैं।
ऐसे आदमी जिन्होंने अपना ऊपर का धड़ या तो बेच दिया है, अथवा किसी के हाथ गिरवी रख दिया है या फिर जीवन के मोह अथवा मृत्यु के भय ने उन्हें इस बात के लिए विवश कर दिया है कि वे अपने ऊपरी धड़ की अपनी निर्लज्जता के नीचे छिपाये रखें और स्वाभिमान के परदे पर उसका प्रतिबिम्ब न पड़ने दें। बिल्कुल इस प्रकार जैसे कछुआ तनिक-सा भय पाते ही अपनी गर्दन को शरीर के पथरीले खोल के भीतर छुपा लेता है।
ऐसे कितने ही लोगों की छवि मेरे स्मृति पटल पर उभरती है और गायब हो जाती है।
जयचन्दों और मीर जाफ़रों की एक लम्बी पंक्ति है, जो धीरे-धीरे मेरे सामने आती है और चुपचाप गुज़र जाती है। ये वही लोग हैं, जिनका ऊपरी धड़ नहीं है, जो आधे हैं, अधूरे हैं और जिन्होंने अपने ऊपर का भाग या तो बेच खाया है। या भय अथवा लालच से कछुए की भाँति अपने ही खोल के अन्दर समेट लिया है। मैं घृणा और तिरस्कार से इस पंक्ति की तरफ देखता हूँ और अखबार खोलकर अपने सामने फैला लेता हूँ।
पृष्ठ के निचले भाग में एक छोटी-सी खबर छपी है। सम्पादक ने इसे कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया है, शीर्षक है-
रक्षा मंत्रालय के एक उच्च अधिकारी ने सेना के महत्त्वपूर्ण रहस्य विदेशी एजेंट को बेचे।’
पढ़कर एक कड़वाहट मेरे रक्त में घुल गई है। क्रोध की एक लहर है जो रीढ़ की हड्डी से होती हुई मेरी मांस पेशियों में अकड़ाहट पैदा कर रही है।
विचार आता है कि देशद्रोह का यह समाचार जिसे प्रमुखता मिलनी चाहिए थी, क्यों नहीं मिली ? उत्तर मिलता है, शायद हम देशद्रोह और राष्ट्र विरोधी ऐसी घटनाओं को सुनने देखने के अभ्यस्त हो गए हैं। अब ऐसी घटनाएँ हमें न तो चौंकाती ही हैं और न दुखी करती हैं।
ऊपर के धड़ से वंचित आधे-अधूरे लोग हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को दीमक की तरह लग गए हैं और अब यह एहसास भी हमारे अन्दर धूमिल होता जाता है कि राष्ट्रीयता का वह बहुमूल्य एवं ऐतिहासिक वस्त्र जो हमारे पुरखों ने शताब्दियों के परिश्रम से बुना था, इन बौनों के हाथों धज्जी-धज्जी होने लगा है; परन्तु हम इन्हें सहन कर रहे हैं, क्षमा दे रहे हैं, क्योंकि यह हमारा स्वभाव है, हमारी संस्कृति भी।
आशा नहीं कि कल के अखबार में यह पढ़ पाऊँगा कि इस संगीन राष्ट्रविरोधी कृत्य के लिए उस अधिकारी को पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया है, जिसने रक्षा सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण रहस्य किसी विदेशी एजेंट के हाथ कुछ धन लेकर बेच दिए हैं।
मुझे ज्ञात है कि कल के अखबार में ऐसा कोई समाचार नहीं होगा, क्योंकि दोषी की पहुँच अपने ऊपर के लोगों तक होगी और उसके हाथ वहाँ तक पहुँच रहे होंगे, जहां से कानून लागू किए जाते हैं।
अन्य खबरों की तरह, कल तक यह खबर भी पुरानी होकर भुला दी जाएगी, पाठक भूल जाएँगे कि उच्च पद पर बैठे हुए किसी देशद्रोही ने अपने निहित स्वार्थों के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर दिया था।
मैं जानता हूँ, कानून उसे दण्डित नहीं करेगा, क्योंकि कानून के हाथ तक वे प्रमाण नहीं पहुँच सकेंगे, जिनसे उसका अपराध सिद्ध होता हो।
तब हम क्या करें ? उन्हें कैसे बतायें कि स्वार्थ ही नहीं, जीवन से भी बड़ी है, राष्ट्रीय हित की भावना।
पत्नी चाय का कप रख गई है। मैंने गर्म-गर्म चाय का घूंट लिया है और फिर वही सवाल मेरे सामने आ खड़ा हुआ है।
तब हम क्या करें, उन्हें कैसे समझाएँ कि राष्ट्रीयता की भावना जीवन के मोह से बड़ी है ?’
सोचता हूँ तो वे घटनाएँ मस्तिष्क में जाग उठती हैं, जिन्होंने विवशता और दासता की जंजीरों में भी हमें राष्ट्र के लिए समर्पित रहने की प्रेरणा दी थी-
आइये चलें, दूर अतीत की ओर-
मुगल राज का सूरज अस्त हो रहा है। भारत विभिन्न रियासतों में बँट गया है। अंग्रेज एक-एक करके सभी रियासतों को अपने पंजों में जकड़ते जा रहे हैं। शाही दरबार सिमटकर दिल्ली तक सीमित हो गया है। बड़ी-बड़ी रियासतें अंग्रेज शासकों की दासता स्वीकार कर चुकी हैं, और यह दासता उन शर्तों पर स्वीकार की गई है, जो अंग्रेजों को पसंद हैं, रियासतों के स्वामियों को नहीं।
देश भर में वायसराय लार्ड कर्जन का दबदबा है। लार्ड कर्जन के नाम से अच्छे-अच्छे शूरवीरों को कँपकँपी आ जाती है।
लार्ज कर्जन एक-एक रियासत का बारी-बारी दौरा करते हैं और जो चाहे माँग लेते हैं या बलात् वसूल कर लेते हैं।
इस राष्ट्रीय पराजय और पराधीनता के दौर में बड़ौदा का महाराजा सयाजी राव गायकवाड़ जीवित है, अतीत के दम-खम और स्वतंत्र रियासतों का दबदबा लिये।
अंग्रेज हरकारा आता है,
वायसराय लार्ड कर्जन का संदेश उसके पास है।
लिखा है, वायसराय कल राजधानी बड़ौदा का दौरा करेंगे।
समय की परम्परा के अनुसार सारी रियासत सावधान हो गई है। सड़कों की सफाई, मकानों की मरम्मत और महल की साज- सज्जा में हजारों आदमी लगे हुए हैं। लार्ड को खुश करने के लिए सभी व्यवस्थाएँ की जा रही हैं। शिकार का विशेष प्रबन्ध है। सेना की टुकड़ियों को 21 तोपों की सलामी देने के लिए तैयार कर दिया गया है।
लार्ड के रियासत में आगमन से पूर्व उस पूरे रास्ते पर बहुमूल्य मखमल का फर्श बिछा दिया गया है, जिसे लार्ड को अपने कठोर बूटों के साथ गुज़र कर आना है-दोनों ओर दर्शकों की पक्तियां हाथ बांधे खड़ी हैं।
दरबार पूरी तरह सजा हुआ है। तभी ऐलची ने नौबत पर घोषणा की है कि लार्ड कर्जन की सवारी राजधानी की सीमाओं में प्रवेश कर चुकी है।
सम्पूर्ण वातावरण फौजी बैंड की धुन में गूँज उठा है।
घोड़े पर सवार लार्ड कर्जन अपने लम्बे काफिले के साथ दरबार हॉल की तरफ बढ़ रहे हैं।
महाराजा गायकवाड़ तख्त से नीचे उतरकर शिष्टतापूर्वक लार्ड का स्वागत करते हैं।
तोपों की आवाज से चारों दिशाएँ दूर तक गूँज उठी हैं।
महाराजा सयासी राव गायकबाड़ कर्जन का हाथ अपने हाथ में लिये महल की ड्योढ़ी तक आते हैं। कर्जन की नजर ऊपर उठती है तो वह यह देखकर चकित रह जाता है कि महल के सुरक्षा कक्ष में दो बड़ी तोपें लगी हैं जिनकी चमक सूरज की तेज रोशनी को भी मात दे रही है।
कर्जन तेजी से महल के सुरक्षा कक्ष की तरफ लपकता है। तोपों को आश्चर्य से छूकर देखता है और महाराज गायकबाड़ से पूछता है।
ओह इतनी सुन्दर और कलात्मक तोपें ? किस धातु से बनी हैं-?’
महाराजा मूंछों के अन्दर मुस्कराते हैं उत्तर मिलता है, फौलाद पर चाँदी की मोटी चादर है, जिस पर विशेष कारीगरों द्वारा बेहतहीन नक्काशी की गई है।’
जैसे बाहर की तरफ से खुलने वाली खिड़की से कोई चीज़ कमरे के भीतर आकर गिरी हो। आवाज़ परिचित थी। विश्वास हो गया कि आवाज प्रातः कालीन समाचार पत्र की है, जो प्रतिदिन इसी खिड़की से इसी प्रकार, इसी आहट के साफ फर्श पर आकार गिरता है और मन में जिज्ञासा पैदा करता है यह जानने की कि पिछले चौबीस घण्टों में दुनिया पर क्या बीती है।
सुबह का सूरज अभी निकला नहीं है और अगर निकला है, तो उसका प्रकाश अभी मेरे कमरे, मेरे घर की दीवारों पर या अँगनाई तक नहीं पहुँचा है, क्योंकि आसपास खड़ी ऊँची कोठियों ने अभी उसे पूरी तरह रास्ता नहीं दिया है। आसमान को चूमते हुए भव्य भवन अब भी उसके रास्ते में बाधा बने खड़े हैं। लेकिन यह तो सूर्य है, महान् और कभी पराजित न होने वाला सूर्य, जो ऊपर चढ़ता ही जाएगा, चढ़ता ही जाएगा, यहाँ तक कि दोपहर होने तक इन विशाल भवनों की परछाइयाँ भी सिकुड़कर बौनी हो जाएँगी। यह तो सूर्य देवता है, जिसका प्रकाश सबके लिए समान है, सबके लिए बराबर। यह गरीब घर का दीया नहीं है, जो स्वयं अपने आँगन को भी पूरी तरह प्रकाशित नहीं कर पाता। दीये को तेल और बाती आदमी देता है, आदमी जिसने मानव समाज में असमानता के बीज बोए, जिसने समाज में छोटे-बड़े वर्गों की स्थापना की और जिसने अँधेरे और उजाले को विभाजित कर उसे अलग-अलग श्रेणियों में बाँट दिया, लेकिन यह तो सूरज है, जिसे उजाला प्रकृति देती है, आदमी नहीं...
विचारों का एक रेला मेरी तरफ बढ़ता है और मस्तिष्क पर छा जाता है। कमरे में धूप नहीं है लेकिन रोशनी अवश्य आ गई है, सोचता हूँ कि ऊँची दीवारें और ऊँची अटारियाँ सूरज की किरणों को निस्संदेह कुछ क्षण के लिए मेरी खिड़की तक आने से रोक सकती हैं, लेकिन उनकी रोशनी को फैलने से रोकने वाला कोई नहीं है।
किचन से बर्तन खनकने की आवाज आती है विश्वास हो जाता है पत्नी चाय बनाने में व्यस्त होगी। आँखों से देखे बिना आदमी कितनी ही चीजों को केवल अपने अनुभव और विवेक की दृष्टि से देख लेता है। आश्चर्य की बात है
मैंने अखबार नहीं देखा लेकिन निश्चित समय पर होने वाली एक विशेष आवाज ने मुझे बता दिया कि यह कुछ और हो या न हो, अवश्य ही आज का अखबार है, जिसे रोज की भाँति हॉकर मेरी खिड़की से फेंक गया है।
मैंने पत्नी को चाय बनाते नहीं देखा लेकिन प्रतिदिन की बर्तनों की सुपरिचित आहट ने मुझे बता दिया कि पत्नी किचन में है और मेरे लिए चाय तैयार कर रही है। मैं चाय की प्रतीक्षा करता हूँ और जैसे ही खिड़की के नीचे हाथ बढ़ाता हूँ, नजर अचानक बाहर सड़क पर जाती है। सड़क से एक आदमी गुज़र रहा है। उसका ऊपर का धड़ मेरी आँखों से ओझल है, मैं केवल उसके निचले धड़ और पैर ही देख पा रहा हूँ। सम्पूर्ण आदमी को नहीं।
तो क्या मुझे कहना चाहिए,
कि यह आदमी पूरा नहीं-
अधूरा आदमी है-
क्योंकि इसका जो भाग मेरे सामने प्रमाणित नहीं है उसे कल्पना के आधार पर स्वीकार करना मेरे लिए आवश्यक क्यों है ? मैं कह सकता हूँ कि इसका निचला धड़ मेरे सामने है, ऊपर का नहीं, इसलिए यह आदमी अधूरा है, और केवल अपने निचले धड़ के सहारे एक-एक पग आगे बढ़ते हुए अपनी यात्रा पूरी कर रहा है।
लेकिन मैं ऐसा नहीं कहूँगा,
क्योंकि समाचार पत्र मैंने खिड़की से अन्दर आते नहीं देखा लेकिन विवेक और अनुभव से जान गया कि यह समाचार पत्र ही है, जो हॉकर खिड़की से भीतर फेंक गया है।
पत्नी को चाय बनाते हुए मैंने नहीं देखा लेकिन प्रतिदिन की परिचित आहट ने मुझे बताया कि किचन में निश्चित तौर पर पत्नी ही है, जो इस समय मेरे लिए चाय बना रही है।
सचाइयाँ मात्र आँखों से प्रमाणित नहीं होतीं, अनुभव से भी होती है। जैसे आदमी का यह निचला धड़ जो मेरे सामने से गुज़र रहा है, मुझे विवश करता है, इस सचाई को मानने पर कि उसका ऊपर वाला धड़ भी अवश्य होना चाहिए और अवश्य होगा। यह केवल अनुभव और विवेक ही है, जो आँखों देखी अधूरी सचाई को पूर्ण कर रहा है, इसके लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
विचारों की बाढ़ अब तक मेरे मस्तिष्क को घेरे है, अखबार मैंने फर्श से उठा कर अपने सिरहाने रख लिया है।
अब तक के विचारों को काटती हुई, सोच की एक और लहर मेरे भीतर उठती है-
मुझे लगता है, दुनिया में पूरे आदमी ही नहीं आधे अधूरे आदमी भी होते हैं।
ऐसे आदमी जिन्होंने अपना ऊपर का धड़ या तो बेच दिया है, अथवा किसी के हाथ गिरवी रख दिया है या फिर जीवन के मोह अथवा मृत्यु के भय ने उन्हें इस बात के लिए विवश कर दिया है कि वे अपने ऊपरी धड़ की अपनी निर्लज्जता के नीचे छिपाये रखें और स्वाभिमान के परदे पर उसका प्रतिबिम्ब न पड़ने दें। बिल्कुल इस प्रकार जैसे कछुआ तनिक-सा भय पाते ही अपनी गर्दन को शरीर के पथरीले खोल के भीतर छुपा लेता है।
ऐसे कितने ही लोगों की छवि मेरे स्मृति पटल पर उभरती है और गायब हो जाती है।
जयचन्दों और मीर जाफ़रों की एक लम्बी पंक्ति है, जो धीरे-धीरे मेरे सामने आती है और चुपचाप गुज़र जाती है। ये वही लोग हैं, जिनका ऊपरी धड़ नहीं है, जो आधे हैं, अधूरे हैं और जिन्होंने अपने ऊपर का भाग या तो बेच खाया है। या भय अथवा लालच से कछुए की भाँति अपने ही खोल के अन्दर समेट लिया है। मैं घृणा और तिरस्कार से इस पंक्ति की तरफ देखता हूँ और अखबार खोलकर अपने सामने फैला लेता हूँ।
पृष्ठ के निचले भाग में एक छोटी-सी खबर छपी है। सम्पादक ने इसे कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया है, शीर्षक है-
रक्षा मंत्रालय के एक उच्च अधिकारी ने सेना के महत्त्वपूर्ण रहस्य विदेशी एजेंट को बेचे।’
पढ़कर एक कड़वाहट मेरे रक्त में घुल गई है। क्रोध की एक लहर है जो रीढ़ की हड्डी से होती हुई मेरी मांस पेशियों में अकड़ाहट पैदा कर रही है।
विचार आता है कि देशद्रोह का यह समाचार जिसे प्रमुखता मिलनी चाहिए थी, क्यों नहीं मिली ? उत्तर मिलता है, शायद हम देशद्रोह और राष्ट्र विरोधी ऐसी घटनाओं को सुनने देखने के अभ्यस्त हो गए हैं। अब ऐसी घटनाएँ हमें न तो चौंकाती ही हैं और न दुखी करती हैं।
ऊपर के धड़ से वंचित आधे-अधूरे लोग हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को दीमक की तरह लग गए हैं और अब यह एहसास भी हमारे अन्दर धूमिल होता जाता है कि राष्ट्रीयता का वह बहुमूल्य एवं ऐतिहासिक वस्त्र जो हमारे पुरखों ने शताब्दियों के परिश्रम से बुना था, इन बौनों के हाथों धज्जी-धज्जी होने लगा है; परन्तु हम इन्हें सहन कर रहे हैं, क्षमा दे रहे हैं, क्योंकि यह हमारा स्वभाव है, हमारी संस्कृति भी।
आशा नहीं कि कल के अखबार में यह पढ़ पाऊँगा कि इस संगीन राष्ट्रविरोधी कृत्य के लिए उस अधिकारी को पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया है, जिसने रक्षा सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण रहस्य किसी विदेशी एजेंट के हाथ कुछ धन लेकर बेच दिए हैं।
मुझे ज्ञात है कि कल के अखबार में ऐसा कोई समाचार नहीं होगा, क्योंकि दोषी की पहुँच अपने ऊपर के लोगों तक होगी और उसके हाथ वहाँ तक पहुँच रहे होंगे, जहां से कानून लागू किए जाते हैं।
अन्य खबरों की तरह, कल तक यह खबर भी पुरानी होकर भुला दी जाएगी, पाठक भूल जाएँगे कि उच्च पद पर बैठे हुए किसी देशद्रोही ने अपने निहित स्वार्थों के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर दिया था।
मैं जानता हूँ, कानून उसे दण्डित नहीं करेगा, क्योंकि कानून के हाथ तक वे प्रमाण नहीं पहुँच सकेंगे, जिनसे उसका अपराध सिद्ध होता हो।
तब हम क्या करें ? उन्हें कैसे बतायें कि स्वार्थ ही नहीं, जीवन से भी बड़ी है, राष्ट्रीय हित की भावना।
पत्नी चाय का कप रख गई है। मैंने गर्म-गर्म चाय का घूंट लिया है और फिर वही सवाल मेरे सामने आ खड़ा हुआ है।
तब हम क्या करें, उन्हें कैसे समझाएँ कि राष्ट्रीयता की भावना जीवन के मोह से बड़ी है ?’
सोचता हूँ तो वे घटनाएँ मस्तिष्क में जाग उठती हैं, जिन्होंने विवशता और दासता की जंजीरों में भी हमें राष्ट्र के लिए समर्पित रहने की प्रेरणा दी थी-
आइये चलें, दूर अतीत की ओर-
मुगल राज का सूरज अस्त हो रहा है। भारत विभिन्न रियासतों में बँट गया है। अंग्रेज एक-एक करके सभी रियासतों को अपने पंजों में जकड़ते जा रहे हैं। शाही दरबार सिमटकर दिल्ली तक सीमित हो गया है। बड़ी-बड़ी रियासतें अंग्रेज शासकों की दासता स्वीकार कर चुकी हैं, और यह दासता उन शर्तों पर स्वीकार की गई है, जो अंग्रेजों को पसंद हैं, रियासतों के स्वामियों को नहीं।
देश भर में वायसराय लार्ड कर्जन का दबदबा है। लार्ड कर्जन के नाम से अच्छे-अच्छे शूरवीरों को कँपकँपी आ जाती है।
लार्ज कर्जन एक-एक रियासत का बारी-बारी दौरा करते हैं और जो चाहे माँग लेते हैं या बलात् वसूल कर लेते हैं।
इस राष्ट्रीय पराजय और पराधीनता के दौर में बड़ौदा का महाराजा सयाजी राव गायकवाड़ जीवित है, अतीत के दम-खम और स्वतंत्र रियासतों का दबदबा लिये।
अंग्रेज हरकारा आता है,
वायसराय लार्ड कर्जन का संदेश उसके पास है।
लिखा है, वायसराय कल राजधानी बड़ौदा का दौरा करेंगे।
समय की परम्परा के अनुसार सारी रियासत सावधान हो गई है। सड़कों की सफाई, मकानों की मरम्मत और महल की साज- सज्जा में हजारों आदमी लगे हुए हैं। लार्ड को खुश करने के लिए सभी व्यवस्थाएँ की जा रही हैं। शिकार का विशेष प्रबन्ध है। सेना की टुकड़ियों को 21 तोपों की सलामी देने के लिए तैयार कर दिया गया है।
लार्ड के रियासत में आगमन से पूर्व उस पूरे रास्ते पर बहुमूल्य मखमल का फर्श बिछा दिया गया है, जिसे लार्ड को अपने कठोर बूटों के साथ गुज़र कर आना है-दोनों ओर दर्शकों की पक्तियां हाथ बांधे खड़ी हैं।
दरबार पूरी तरह सजा हुआ है। तभी ऐलची ने नौबत पर घोषणा की है कि लार्ड कर्जन की सवारी राजधानी की सीमाओं में प्रवेश कर चुकी है।
सम्पूर्ण वातावरण फौजी बैंड की धुन में गूँज उठा है।
घोड़े पर सवार लार्ड कर्जन अपने लम्बे काफिले के साथ दरबार हॉल की तरफ बढ़ रहे हैं।
महाराजा गायकवाड़ तख्त से नीचे उतरकर शिष्टतापूर्वक लार्ड का स्वागत करते हैं।
तोपों की आवाज से चारों दिशाएँ दूर तक गूँज उठी हैं।
महाराजा सयासी राव गायकबाड़ कर्जन का हाथ अपने हाथ में लिये महल की ड्योढ़ी तक आते हैं। कर्जन की नजर ऊपर उठती है तो वह यह देखकर चकित रह जाता है कि महल के सुरक्षा कक्ष में दो बड़ी तोपें लगी हैं जिनकी चमक सूरज की तेज रोशनी को भी मात दे रही है।
कर्जन तेजी से महल के सुरक्षा कक्ष की तरफ लपकता है। तोपों को आश्चर्य से छूकर देखता है और महाराज गायकबाड़ से पूछता है।
ओह इतनी सुन्दर और कलात्मक तोपें ? किस धातु से बनी हैं-?’
महाराजा मूंछों के अन्दर मुस्कराते हैं उत्तर मिलता है, फौलाद पर चाँदी की मोटी चादर है, जिस पर विशेष कारीगरों द्वारा बेहतहीन नक्काशी की गई है।’
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लोगों की राय
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