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नाटक-एकाँकी >> हंस मयूर

हंस मयूर

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1737
आईएसबीएन :81-7315-255-1

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‘पीले हाथ’ तथा ‘सगुन’ नामक दो सामाजिक नाटक...

Hansh Mayur

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ऐतिहासिक उपन्यासों के कारण वर्माजी को सर्वाधिक ख्याति प्राप्त हुई। उन्होंने अपने उपन्यासों में इस तथ्य को झुठला दिया कि ऐतिहासिक उपन्यास में या तो इतिहास मर जाता है या उपन्यास बल्कि उन्होंने इतिहास और उपन्यास दोनों को एक नई दृष्टि प्रदान की है।

इंद्रसेन : शकों को पराजित करके क्या हम उनके बाल-बच्चों का वध करेंगे ? कभी नहीं, राजन्। यदि वे हमारी संस्कृति के होकर हमारे देश में रहेंगे तो उनकी उसी प्रकार रक्षा की जाएगी जैसी आर्य जनों की जाती है।

रामचंद्र : आप यह कहते हैं और वे लोग दिन-रात, प्रत्येक क्षण तर्पण करते चले आ रहे हैं !

इंद्रसेन : इसका निवारण करने के लिए विष्णु के एक हाथ में गदा है। दुवृत्तियों का दमन करने के लिए दूसरे हाथ में चक्र है। स्पष्ट स्वर में नीति और शौर्य के मेल की घोषणा करके जन को जगाने के लिए हाथ में शंख है और जीवन को पुरस्कार तथा वरदान देने के लिए चौथे हाथ में कमल है। कुछ लोग शंख, चक्र और गदा को त्यागकर केवल कमल की पूजा में लीन हो जाते हैं। यह उनकी भूल है। भक्ति और पुरुषार्थ का, हंस और मयूर का मेल होना चाहिए।
रामचंद्र :  मैं समझा नहीं देव ?
इंद्रसेन : हंस बुद्धि-विवेक, प्रज्ञा, मेधा, भक्ति और संस्कृति का प्रतीक है; मयूर तेज, बल और पराक्रम का  दोनों का समन्वय ही आर्य संस्कृति है। जीवन और परलोक—दोनों की प्राप्ति का एक मात्र साधन।

रामचंद्र : कपालिकों ने प्रण किया है कि वे शकों के मुंडों की माला पहिनेंगे और उनके शरीर की राख को अपने तन में मलेंगे। क्या यह अनुचित है ?

इंद्रसेन : इससे बढ़कर अनुचित और क्या होगा ! जब शकों की पराजय हो जाएगी और संस्कृति फिर अपने प्रबल मनोहर रूप में व्याप्त होने को होगी, तब ये कापालिक किसकी मुंडमाला पहिनेंगे ? किसकी भस्म शरीर पर लपेटेंगे ?


-इसी पुस्तक से


भूमिका


ऐतिहासिक उपन्यास अथवा नाटक लिखने में कई कठिनाइयाँ हैं जो संपूर्णतया काल्पनिक कथा के लिखने में नहीं होती हैं। इतिहास की बातों को बदलने का अधिकार लेखक को नहीं है। इतिहास के समय का ही उसे वर्णन करना होता है, उस काल के समाज और सार्वजनिक दशा से उसकी कल्पना शक्ति नियंत्रित हो जाती है, उस समय के वेश और रहन-सहन का उसे ज्ञान करना होता है।

श्री वृन्दावनलाल वर्मा ने विक्रमादित्य के काल से इस नाटक ‘हंस-मयूर’ का संबंध रखा है। लेखक ने नाटक के आरंभ में बड़ी योग्यता से उस समय का परिचय दिया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इस नाटक के लिखने से पूर्व कितना परिश्रम और अन्वेषण आवश्यक है। केवल ऐतिहासिक दृष्टि से यदि देखा जाए तो भी नाटक आदर का पात्र है।

भरत ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में कहा है-


‘लोकसिद्धं भवेत सिद्धं नाट्यलोक स्वाभावजम्।
तस्मान्नाट्य प्रयोगे तु प्रमाण लोक इष्यते।।’


इसी बात को अंग्रेजी में कवि ‘Dryden’  ने कहा है, ‘The drama’s laws the drama’s patrons give.’ प्राचीन शास्त्रकारों ने यह भी कहा है कि नाटक के ये अंग हैं—अभिनय, प्रकृति, पाठ्य, छंद, अलंकार, स्वर, संगीत।

‘हंस-मयूर’ इन सबसे अलंकृत है। साहित्यिक दृष्टि से इसका चरित्र-चित्रण दृढ़ और आकर्षक है। कथा रोचक है, पाठक को पढ़ने में आनंद मिलता है। साथ ही मेरा विश्वास है कि रंगमंच पर इसका अभिनय सफल होगा। अभिनय का सिद्धांत भरत मुनि के शब्दों में यह है—


‘वयोऽनुरूपः प्रथमस्तु वेषो वेषोऽरूपश्च गतिं प्रचारः।
गतिं प्रचारानुगतं च पाठ्यं पाठ्यनुरूपोऽभिनयश्च कार्यः।।


यदि इस नाटक का अभिनय कुशल पात्रों द्वारा हुआ तो इसके देखनेवालों को एक अपूर्व झलक अतीत भारत की मिलेगी। एक और विलक्षणता इस नाटक में है, जो पाठक और दर्शक हिंदी के बहुत से और नाटकों में नहीं पाएँगे—वह है इसकी भाषा, जिसमें न तो गद्य-काव्य का प्रसार किया गया है और न कृत्रिमता आने पाई है। प्रसाद जी महाकवि थे, प्रेमचंदजी सफल उपन्यास लेखक थे; परंतु श्री वृन्दावनलालजी वर्मा उपन्यास और नाटक, दोनों कला में अपना विशिष्ठ स्थान रखते हैं।

मेरी सम्मति में ऐसी उत्तम पुस्तक यदि विद्यार्थियों को पढ़ने को मिले, तो मनोरंजन के साथ-साथ उनका भारतीय संस्कृति से भी परिचय होगा और उनको अच्छा उपदेश मिलेगा।

अमरनाथ झा

परिचय



हिंदी में विक्रमादित्य के ऊपर जो नाटक अब तक लिखे गए हैं, उनमें आधुनिकतम ऐतिहासिक अनुसंधानों का बहुत कम उपयोग किया गया है। और चित्रपटों की तो बात ही निराली है। एक बार ‘विक्रमादित्य’ चित्रपट (फिल्म) को देखकर मन में बहुत ही ग्लानि हुई थी। यह चित्रपट उस समय के इतिहास और तत्कालीन अवस्था का विपर्ययमात्र था। नाटकों और कहानियों में तो कुछ है भी, चित्रपट तो अनर्गल ही था। विक्रम संवत् और विक्रमादित्य के संबंध का पुराना ऐतिहासिक मत चंद्रगुप्त द्वितीय में अपना स्रोत बहुत समय तक पाता रहा। परंतु शिलालेखों और सिक्कों से यह मत बिलकुल निराधार प्रमाणित हुआ है। अब यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि विक्रम संवत् ईसा से सत्तावन वर्ष पूर्व ही स्थापित हुआ और मालव गणतंत्र की पुनः स्थापना के उपलक्ष्य में इसका प्रचलन किया गया था।

इस निर्धार पर पहुँचने के लिए चार शिलालेख मिले हैं। पहला संवत् 202 का है, दूसरा 428 का, तीसरा संवत् 461 का और चौथा संवत् 493 का। यही समय गुप्त सम्राटों के उद्भव और विकास का भी है। इनमें से किसी भी शिलालेख में किसी भी गुप्त सम्राट की कीर्ति या नाम का उल्लेख नहीं है। ‘विक्रम’ शब्द का भी कोई उपयोग नहीं है। पहला लेख उदयपुर राज्य में नादसा में एक यूप पर है। वह इस प्रकार है—


‘कृतयोर्द्वयो र्वर्षशतयो र्द्वयशीतयोः चैत्र पूर्णामास्याम्।’


-कृतके दो सौ दौ वर्ष उपरांत की चैत्र पूर्णिमा में।
दूसरा शिलालेख भरतपुर राज्य में प्राप्त हुआ है-


‘कृतेषु चतुर्षु वर्ष शतेष्वष्टाविंशेषु।’


-कृतके चार सौ अट्ठाईसवें वर्ष में।
तीसरा मंदसौर में प्राप्त हुआ-


श्री मालवगण भ्नाते प्रशस्ते कृत संज्ञिते।
एम षट्यधिके प्राप्ते समासत चतुष्टये।

-मालवगण या कृत नाम से विख्यात चार सौ इकसठवें वर्ष में।

इसमें मालवगण और कृत को संयुक्त कर दिया गया है। एक प्रकार से दोनों को एक-दूसरे का पर्याय-सा बना दिया है।

चौथा शिलालेख भी मंदसौर से मिला है-


मालवानां गणस्थित्या याते शत चतुष्टये।
त्रिनवत्याधिकेऽब्दानां ऋतौ सेव्य घनस्तने।


-मालवगण की स्थापना से चार सौ तिरानबेवें वर्ष में।

मालवों का गणतंत्र बहुत प्राचीन था। इसका उल्लेख मेगस्थनीज (Megasthenese) ने अपने भारत वर्णन में किया है। मेगस्थनीज की पूरी पुस्तक लुप्त हो गई है, परंतु उसको अन्य यूनानी (ग्रीक) लेखकों ने उद्धृत किया है। इन उद्धरणों का संकलन पटना कॉलेज के प्रिंसिपल मैकक्रिंडल ने अपनी अँग्रेजी पुस्तक (Megasthenese Indika) में किया है। उसमें तत्कालीन भारतीय समाज का एक खासा चित्र मिलता है। इन मालवों ने सिकंदर के दांत खट्टे किए थे। मालवों और यौधेयों के सम्मिलित निरोध के सामने सिकंदर को झुकना और लौट जाना पड़ा था।

सिकंदर के चले जाने के उपरांत मौर्यों के शासनकाल में भारत को, बहुत समय तक, शांति-सुख मिलता रहा। मौर्यों की सत्ता के क्षीण हो जाने के काल में शकों, हूणों इत्यादि ने उत्तर-पश्चिम से टिड्डी दल की भाँति आक्रमण किए और उन्होंने भारतीय संस्कृति को झकझोर डाला। मौर्यों के उत्तराधिकारी शुंगों ने मध्य देश के यवनों और उत्तर से आए शक-हूणों का दमन करने के उपाय किए; परंतु इन आक्रमणकारियों का प्रवाह थोड़ा ही अवरुद्ध हो पाया। धार्मिक विवादों से उत्पन्न कलहों ने समाज को बहुत अस्त-व्यस्त कर दिया था। अनेक भारतीय बौद्ध शक-हूणों को आक्रमण के लिए निमंत्रण देते रहते थे। कुछ कारण भी था। एक शुंग राजा ने सांची के कुछ बौद्ध स्तूपों को तुड़वा दिया था। विदेशी बौद्धों ने शैव और वैष्णव मंदिरों को भंग किया था। शकों और हूणों के धर्म का यह हाल था कि जहाँ जाते वहीं के धर्म के बाहरी रंग-रूप में रँग जाते; परंतु बर्बरता उनकी अक्षुण्ण रहती थी। उनके सिक्कों पर यूनानी, ईरानी, बौद्ध, शैव और वैष्णव मतों की खिचड़ी अंकित है। एक ओर कोई यूनानी देवता, दूसरी ओर कोई भारतीय।

उस समय भारत में गणतंत्र, राजन्य, राजा और एकाधिकारी नरेश तक थे। प्रधान गणतंत्र मालवों, यौधेयों, आरकों, उत्तमभद्रों इत्यादि के थे। जनसत्ता-नियंत्रित राजन्य और राजा विदिशा, कोशल इत्यादि में और एकाधिकारी नरेश आंध्र, पाटलिपुत्र इत्यादि में। मंडलेश्वरता की ओर राजनीति अनिवार्य रूप से अग्रसर हो रही थी। गणतंत्रों में वाद-विवाद इतना बढ़ जाता था कि काम निबट ही नहीं पाता था। कभी-कभी वितंडावाद इतना हो पड़ता था कि बिना कुछ किए-धरे ही सभा भंग हो जाती थी। यौधेयों और मालवों का मेल था, परंतु उत्तम भद्रों से इनकी शत्रुता थी। ‘यौधेये’ नाम अब ‘जोहियावार’ नामक राजपूतों में रह गया है, जो बहावलपुर और बीकानेर रियासतों के आसपास रहते हैं। उत्तमभद्रों के अवशेष भदौरिया ठाकुर जान पड़ते हैं। मालवों का पर्याय ‘मल्ल’ अब जयपुर, जोधपुर इत्यादि के मारवाड़ी कहलानेवाले व्यापारियों के नाम भर के साथ रह गया है।

गणतंत्रों में धर्म संबंधी कला के अतिरिक्त तीव्र राजनीतिक मतभेदों के कारण भी बहुत फूट रहती थी। शक इत्यादि बर्बर जातियाँ भारत में थोड़ी-बहुत संख्या में तो ईसा से लगभग छह सौ वर्ष पूर्व से आ रही थीं, परंतु उनको भारतीय समाज अपनी वर्ण-व्यवस्था में सोखता रहता था। ईसा से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व से लगभग पचहत्तर वर्ष पूर्व के काल में उनके असंख्य प्रवाह विविध मार्गों से आए। जान पड़ता था कि आर्य संस्कृति अब डूबी और अब डूबी। आर्य संस्कृति में भूमि, जन और जन संस्कृति के समुच्चय को राष्ट्र कहते थे।

ये तीनों महासंकट में पड़ गए। भारत में युद्ध तो कहीं-न-कहीं सदा ही होते रहते थे, परंतु कृषक की भूमि, शांति, गाय और आस्था को कोई भी रौंद डालने की कल्पना तक न करता था। शिल्पों को भी कोई नहीं छूता था। व्यक्ति को स्वाधीनता इतनी थी कि मनचाहे देवता को अपनी श्रद्धा और भेंट करता रहे—‘इष्टदेव’ की संज्ञा बनी ही इसी कारण होगी। शासन चाहे गणतंत्रीय हो, चाहे अन्य प्रकार का हो, जनजीवन में हस्तक्षेप बहुत कम करता था। चीनी यात्री फाहियान, जो इस काल के कई शताब्दियों पीछे भारत में आया, कहता है कि—भारत में दास प्रथा नहीं थी। परंतु इसमें संदेह नहीं कि चांडाल इत्यादि अंत्यत या अछूतों को नगरों और ग्रामों के बाहर रहना पड़ता था। आर्य संस्कृति में ग्रह्य के साथ-साथ बहुत सा आग्राह्य भी वर्तमान था। शकों, हूणों इत्यादि ने सभी प्रकार की आर्य संस्थाओं पर घोर आक्रमण किया—ग्राह्य और अग्राह्य दोनों पर।


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