विविध >> हमारे राष्ट्रपुरुष हमारे राष्ट्रपुरुषभाई परमानंद
|
3 पाठकों को प्रिय 195 पाठक हैं |
प्रस्तुत है भारत के राष्ट्रपुरुष....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘हमारे राष्ट्र-पुरुष’ में भाई परमानंद ने श्रीराम से
लेकर स्वामी दयानंद सरस्वती तक दृष्टि डालकर कई महान् व्यक्तियों के
संक्षिप्त चरित्र चित्रित किए हैं। इस पुस्तक के लघु आकार में जो
चयन उन्होंने किया, उसमें जीवन के अलग-अलग पहलुओं को पुष्ट करनेवाले
महापुरुषों का प्रतिनिधित्व रखने का यत्न किया गया है।
जिन महापुरुषों का चित्रण इसमें हुआ है, उनमें से संभवतः किसी से भी साधारण पठित देशवासी अपरिचित नहीं होंगे; परंतु विद्वान लेखक द्वारा इसमें गागर में सागर भर दिया गया है। ये चरित्र नायकों के केवल संक्षिप्त जीवन-निबंध ही नहीं हैं। राष्ट्र की जीवनधारा में काल के जिस-जिस मोड़ पर एक-एक का प्रादुर्भाव किस विशिष्ट राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति के लिए हुआ और किस गुण के अतिरेक से राष्ट्र की क्या हानि हुई, यह अनुभव मन और बुद्धि दोनों को बरबस मुग्ध कर देता है। एक-एक महापुरुष के जीवन के जन्म से मृत्यु तक की मुख्य घटनाओं के ब्योरे मात्र से यह न हो पाता।
हमें पूर्ण विश्वास है, यह कृति पाठकों के मानस में राष्ट्र के प्रति प्रेम व भक्ति तथा राष्ट्र पुरुषों के प्रति आस्था, श्रद्धा व अनुकरणीयता की भावना भरने में महती भूमिका अदा करेगी।
जिन महापुरुषों का चित्रण इसमें हुआ है, उनमें से संभवतः किसी से भी साधारण पठित देशवासी अपरिचित नहीं होंगे; परंतु विद्वान लेखक द्वारा इसमें गागर में सागर भर दिया गया है। ये चरित्र नायकों के केवल संक्षिप्त जीवन-निबंध ही नहीं हैं। राष्ट्र की जीवनधारा में काल के जिस-जिस मोड़ पर एक-एक का प्रादुर्भाव किस विशिष्ट राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति के लिए हुआ और किस गुण के अतिरेक से राष्ट्र की क्या हानि हुई, यह अनुभव मन और बुद्धि दोनों को बरबस मुग्ध कर देता है। एक-एक महापुरुष के जीवन के जन्म से मृत्यु तक की मुख्य घटनाओं के ब्योरे मात्र से यह न हो पाता।
हमें पूर्ण विश्वास है, यह कृति पाठकों के मानस में राष्ट्र के प्रति प्रेम व भक्ति तथा राष्ट्र पुरुषों के प्रति आस्था, श्रद्धा व अनुकरणीयता की भावना भरने में महती भूमिका अदा करेगी।
दो शब्द
विचारशील विदेशियों को आज के भारत की एक विलक्षणता बहुत चकित करती है।
यहाँ आते हैं तो उनके मन में इस देश के गौरवपूर्ण इतिहास की छवि होती है;
ज्ञान-विज्ञान, कला-साहित्य चरित्र-संस्कृति आदि सभी क्षेत्रों में हमारी
उपलब्धियाँ उनको ज्ञात होती हैं। उन्हें अचंभा होता है कि हमारे अपने ही
तथाकथित प्रगतिवादी उन उपलब्धियों को नकारते हैं, अपनी सफलताओं की खिल्ली
उड़ाते हैं, अपनी भाषा के प्रयोग में शर्म महसूस करते हैं अपनी उदार
चारित्रिक विशेषताओं का जिक्र होने पर उन्हें सर्वथा झूठ साबित करने पर
तुल जाते हैं। हमें कोई ‘अच्छा’ कह दे तो ये लोग उसकी
जान के
ग्राहक हो जाते हैं और ‘हिंदुत्व’ का आरोप लगाकर वे
समझते हैं
कि आरोपी को ऐसे मुँह छिपा लेना चाहिए। जैसे किसी ने उनको गाली दी हो !
शायद सबसे बुनियादी प्रवंचना का दृश्य तब दिखाई पड़ता है जब हम यह सुनते हैं कि इस देश में राष्ट्रीय जीवन कभी नहीं रहा, हमें अब एक राष्ट्र बनने का प्रयास करना है। किंतु वैदिक ऋषियों के काल से लेकर श्री अरविंद महर्षि रमण और स्वामी दयानंद के आधुनिक युग तक ज्ञान की जो सरस्वती प्रवाहित रही है, ‘माताभूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:’ कहकर तथा कांलातर में वंदे मातरम् के घोष के साथ बलिदानों की जो वरद माला इसे समर्पित की गई, और ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम्’ कहकर वेद में जिसके प्रति संकल्प व्यक्त किया गया, वह कोई व्यवस्थित समाज नहीं था, सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष सम्राट्, अशोक के शिलालेख और ईस्वी संवत् के प्रांरभ से शताब्दियाँ पहले सिकंदर के आक्रमण के समय उसके साथ लड़कर अपनी वीरता की गाथाओं से यूनानी इतिहासकारों द्वारा अभिनंदन कराया जैसे नागरिकों ने और जिन श्रीराम के आदर्शों ने जन-जन के लिए तथा शासन ने राजनेताओं के लिए स्थापित राज्य के मानदंड को स्वयं महात्मा गांधी भी अभिव्यक्त कर गए तथा जिन श्रीकृष्ण की अमर गीता, जो विश्व भर के लिए अनंत काल तक के लिए प्रकाश स्तंभ बन गई, उस समाज का कोई राष्ट्रीय स्वरूप नहीं था ?
हमें अग्रेजों ने सिखाया और उनकी शिक्षा के भक्तों व मार्क्स के पट्ट-शिष्यों का, जो उनकी हठधर्मिता भी उन्हें छोड़ने नहीं दे रही है-जोरदार उत्तर है ‘नहीं’। आज हमारे देश की कई समस्याएँ इस नकारात्मक बुद्धि से उत्पन्न हुई हैं और प्रायः तब तक समाप्त नहीं होंगी जब तक यह राष्ट्र आत्म विस्मृति से मुक्त नहीं होता।
श्री भाई परमानंदजी देश के उन पहले इतिहासकारों में से थे जिन्होंने इस रोग को पहचाना और इसके निवारण के लिए अथक प्रयास किए। इसमें उनकी भूमिका का मुख्य साधन थी उनकी लेखनी। प्रस्तुत पुस्तक ‘हमारे कौमी हीरो’ नाम से बहुत समय पूर्व प्रकाशित हुई थी, जो कई वर्षों से अप्राप्य रही है। हिंदी में यह प्रथम अवसर है जब हम इसको प्रकाशित कर पा रहे हैं, तो इसमें कृतकृत्यता का भाव है ही, किंतु अब तक की उपेक्षा की अपराध- भावना भी चुभे, यह स्वाभाविक है।
‘हमारे राष्ट्र-पुरुष’ में भाई जी ने श्रीराम से लेकर स्वामी दयानंक सरस्वती तक दृष्टि डालकर कुछ व्यक्तियों के संक्षिप्त चरित्र चित्रित किए हैं। हमारे सुदीर्घ इतिहास के दौरान इस विशाल राष्ट्र में उन नायकों की संख्या विशाल है जिनके कारण कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा। परंतु इस पुस्तक के लघु आकार में जो चयन उन्होंने किया, उसमें राष्ट्र जीवन के अलग- अलग पहलुओं को पुष्ट करनेवाले महापुरुषों का प्रतिनिधित्व रखने का यत्न किया गया है।
हमें आशा है, पुस्तक का स्वागत होगा और यह लेखक के लक्ष्य की सिद्धि में सहायक होगी।
शायद सबसे बुनियादी प्रवंचना का दृश्य तब दिखाई पड़ता है जब हम यह सुनते हैं कि इस देश में राष्ट्रीय जीवन कभी नहीं रहा, हमें अब एक राष्ट्र बनने का प्रयास करना है। किंतु वैदिक ऋषियों के काल से लेकर श्री अरविंद महर्षि रमण और स्वामी दयानंद के आधुनिक युग तक ज्ञान की जो सरस्वती प्रवाहित रही है, ‘माताभूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:’ कहकर तथा कांलातर में वंदे मातरम् के घोष के साथ बलिदानों की जो वरद माला इसे समर्पित की गई, और ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम्’ कहकर वेद में जिसके प्रति संकल्प व्यक्त किया गया, वह कोई व्यवस्थित समाज नहीं था, सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष सम्राट्, अशोक के शिलालेख और ईस्वी संवत् के प्रांरभ से शताब्दियाँ पहले सिकंदर के आक्रमण के समय उसके साथ लड़कर अपनी वीरता की गाथाओं से यूनानी इतिहासकारों द्वारा अभिनंदन कराया जैसे नागरिकों ने और जिन श्रीराम के आदर्शों ने जन-जन के लिए तथा शासन ने राजनेताओं के लिए स्थापित राज्य के मानदंड को स्वयं महात्मा गांधी भी अभिव्यक्त कर गए तथा जिन श्रीकृष्ण की अमर गीता, जो विश्व भर के लिए अनंत काल तक के लिए प्रकाश स्तंभ बन गई, उस समाज का कोई राष्ट्रीय स्वरूप नहीं था ?
हमें अग्रेजों ने सिखाया और उनकी शिक्षा के भक्तों व मार्क्स के पट्ट-शिष्यों का, जो उनकी हठधर्मिता भी उन्हें छोड़ने नहीं दे रही है-जोरदार उत्तर है ‘नहीं’। आज हमारे देश की कई समस्याएँ इस नकारात्मक बुद्धि से उत्पन्न हुई हैं और प्रायः तब तक समाप्त नहीं होंगी जब तक यह राष्ट्र आत्म विस्मृति से मुक्त नहीं होता।
श्री भाई परमानंदजी देश के उन पहले इतिहासकारों में से थे जिन्होंने इस रोग को पहचाना और इसके निवारण के लिए अथक प्रयास किए। इसमें उनकी भूमिका का मुख्य साधन थी उनकी लेखनी। प्रस्तुत पुस्तक ‘हमारे कौमी हीरो’ नाम से बहुत समय पूर्व प्रकाशित हुई थी, जो कई वर्षों से अप्राप्य रही है। हिंदी में यह प्रथम अवसर है जब हम इसको प्रकाशित कर पा रहे हैं, तो इसमें कृतकृत्यता का भाव है ही, किंतु अब तक की उपेक्षा की अपराध- भावना भी चुभे, यह स्वाभाविक है।
‘हमारे राष्ट्र-पुरुष’ में भाई जी ने श्रीराम से लेकर स्वामी दयानंक सरस्वती तक दृष्टि डालकर कुछ व्यक्तियों के संक्षिप्त चरित्र चित्रित किए हैं। हमारे सुदीर्घ इतिहास के दौरान इस विशाल राष्ट्र में उन नायकों की संख्या विशाल है जिनके कारण कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा। परंतु इस पुस्तक के लघु आकार में जो चयन उन्होंने किया, उसमें राष्ट्र जीवन के अलग- अलग पहलुओं को पुष्ट करनेवाले महापुरुषों का प्रतिनिधित्व रखने का यत्न किया गया है।
हमें आशा है, पुस्तक का स्वागत होगा और यह लेखक के लक्ष्य की सिद्धि में सहायक होगी।
राजभवन
भोपाल
भोपाल
भाई महावीर
विनम्र निवेदन
प्रस्तुत पुस्तक के रूप में प्रातः स्मरणीय भाई परमानंदजी की जिस कृति को
सुधी पाठक वर्ग को भेंट किया जा रहा है। उसके संबंध में वास्तव में ही
क्षमा प्रार्थना की आवश्यकता प्रतीत होती है। वह इस कारण कि उर्दू में
‘हमारे कौमी हीरो’ के प्रकाशन के अतिदीर्घ काल लगभग
पचहत्तर
वर्ष के पश्चात् पहली बार इसका हिंन्दी रूपांतर हुआ है। क्यों ? यह तो आप
न ही पूछें तो अच्छा है, क्योंकि सचमुच में मुझे कोई बहाना भी नहीं
सूझेगा। यह सच है कि पूज्य पिताश्री की जिन पुस्तकों में उनके श्रद्धालुओं
की विशेष रुचि रही है वे अन्य थीं, इसलिए इसकी माँग सामूहिक आवश्यकता में
ही समाविष्ट रही-जब लोग कहते रहे कि भाईजी का सारा साहित्य बहुत मूल्यवान
है, इसे लुप्त न होने दिया जाए।
अब ‘हमारे राष्ट्र-पुरुष’ की तैयारी में तीन-चार बार जो इसके पारायण का अवसर मिला तो हर बार अधिकाधिक मात्रा में आनंद ही प्राप्त नहीं हुआ, उसकी विलक्षणताएँ भी स्पष्ट से स्पष्टतर होती गईं।
जिन महापुरुषों का चित्रण इसमें हुआ है, इनमें से किसी से भी साधारण पठित देशवासी भी अपरिचित नहीं होगा। परंतु विद्वान लेखक द्वारा इसमें-सच में ही-गागर में सागर भर दिया गया है। ये चरित्र नायकों के केवल संक्षिप्त जीवन निबंध ही नहीं हैं, राष्ट्र की जीवन धारा में काल के जिस-जिस मोड़ पर एक-एक का प्रादुर्भाव किस विशिष्ट राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति के लिए हुआ और किस गुण के अतिरिके से राष्ट्र की क्या हानि हुई, यह अनुभव मन और बुद्धि दोनों को बरबस मुग्ध कर देता है ! एक-एक महापुरुष के जीवन के जन्म से मृत्यु तक की क्या हानि यह अनुभव मन और बुद्धि दोनों को बरबस मुग्ध कर देता है !
एक-एक महापुरुष के जीवन के जन्म से मृत्यु तक की मुख्य घटनाओं के ब्योरे मात्र से यह न हो पाता।
राष्ट्र की मुक्ति व कल्याण की चिंताओं में जो हृदय होश सँभालने की अवस्था से प्रारंभ करके महाप्रयाण की घड़ी तक तड़पता रहा, उसकी व्यथा का आभास पग-पग पर होता है। परंतु वर्णितों में प्रथम राष्ट्र-पुरुष के अपेक्षया लंबे चित्रण अंतिम पंक्तियों में श्रीराम को ‘आओ तो सही’ से प्रारंभ करके जो एक असहाय की गुहार की गई है-वह अत्यंत हृदयस्पर्शी है ! भगवन अगर आप अपने प्यारे देश में एक बार आ सकें तो आप पूरा चित्र उलटा हुआ देखेंगे। देश के पवित्र तीर्थों पर, जहाँ ऋषि-मुनि साधना किया करते थे, मसजिदें और गिरजाघर खड़े हैं। इन तीर्थों में रहने वाले हिंदू आपकी लीला मनाने से वंचित हैं, क्योंकि आपके नाम के शत्रु वहाँ स्वामित्व में रहे हैं। जहाँ गाय की पूजा हुआ करती थी, आज वहाँ बूचड़खाने बने हैं।..आपकी जाति की संतान न सिर्फ धर्म से विमुख हो रही है, बल्कि धर्म पर चलने वालों को नष्ट कर देने के साधन जुटा रही है।
‘भगवन् ! इस समय आपकी जाति पर बड़ा संकट आया हुआ है। चारों तरफ खतरों ने उसे घेर रखा है। दूसरी मुश्किल यह है कि वह अपने आपको भूले जा रही है...अपने दुश्मन और दोस्त में अंतर ही नहीं कर सकती...सब तरफ अँधेरा ही अँधेरा नजर आता है। अपनी जाति को सीधा रास्ता एक बार फिर दिखा जाओ।
अधिक क्या ! उपेक्षित उत्तरदायित्व के बोझ को कुछ अंश में कम होते देखकर कुछ समाधान का भाव मन में आ रहा है।
पाठक स्नेह बनाए रखेंगे, यही आशा है।
अब ‘हमारे राष्ट्र-पुरुष’ की तैयारी में तीन-चार बार जो इसके पारायण का अवसर मिला तो हर बार अधिकाधिक मात्रा में आनंद ही प्राप्त नहीं हुआ, उसकी विलक्षणताएँ भी स्पष्ट से स्पष्टतर होती गईं।
जिन महापुरुषों का चित्रण इसमें हुआ है, इनमें से किसी से भी साधारण पठित देशवासी भी अपरिचित नहीं होगा। परंतु विद्वान लेखक द्वारा इसमें-सच में ही-गागर में सागर भर दिया गया है। ये चरित्र नायकों के केवल संक्षिप्त जीवन निबंध ही नहीं हैं, राष्ट्र की जीवन धारा में काल के जिस-जिस मोड़ पर एक-एक का प्रादुर्भाव किस विशिष्ट राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति के लिए हुआ और किस गुण के अतिरिके से राष्ट्र की क्या हानि हुई, यह अनुभव मन और बुद्धि दोनों को बरबस मुग्ध कर देता है ! एक-एक महापुरुष के जीवन के जन्म से मृत्यु तक की क्या हानि यह अनुभव मन और बुद्धि दोनों को बरबस मुग्ध कर देता है !
एक-एक महापुरुष के जीवन के जन्म से मृत्यु तक की मुख्य घटनाओं के ब्योरे मात्र से यह न हो पाता।
राष्ट्र की मुक्ति व कल्याण की चिंताओं में जो हृदय होश सँभालने की अवस्था से प्रारंभ करके महाप्रयाण की घड़ी तक तड़पता रहा, उसकी व्यथा का आभास पग-पग पर होता है। परंतु वर्णितों में प्रथम राष्ट्र-पुरुष के अपेक्षया लंबे चित्रण अंतिम पंक्तियों में श्रीराम को ‘आओ तो सही’ से प्रारंभ करके जो एक असहाय की गुहार की गई है-वह अत्यंत हृदयस्पर्शी है ! भगवन अगर आप अपने प्यारे देश में एक बार आ सकें तो आप पूरा चित्र उलटा हुआ देखेंगे। देश के पवित्र तीर्थों पर, जहाँ ऋषि-मुनि साधना किया करते थे, मसजिदें और गिरजाघर खड़े हैं। इन तीर्थों में रहने वाले हिंदू आपकी लीला मनाने से वंचित हैं, क्योंकि आपके नाम के शत्रु वहाँ स्वामित्व में रहे हैं। जहाँ गाय की पूजा हुआ करती थी, आज वहाँ बूचड़खाने बने हैं।..आपकी जाति की संतान न सिर्फ धर्म से विमुख हो रही है, बल्कि धर्म पर चलने वालों को नष्ट कर देने के साधन जुटा रही है।
‘भगवन् ! इस समय आपकी जाति पर बड़ा संकट आया हुआ है। चारों तरफ खतरों ने उसे घेर रखा है। दूसरी मुश्किल यह है कि वह अपने आपको भूले जा रही है...अपने दुश्मन और दोस्त में अंतर ही नहीं कर सकती...सब तरफ अँधेरा ही अँधेरा नजर आता है। अपनी जाति को सीधा रास्ता एक बार फिर दिखा जाओ।
अधिक क्या ! उपेक्षित उत्तरदायित्व के बोझ को कुछ अंश में कम होते देखकर कुछ समाधान का भाव मन में आ रहा है।
पाठक स्नेह बनाए रखेंगे, यही आशा है।
गणतंत्र दिवस, 2003
राजभवन, भोपाल
राजभवन, भोपाल
भाई महावीर
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book