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भारतीय महाकाव्य

नगेन्द्र

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :417
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1729
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भारतीय महाकाव्य...

Bhartiya Mahakavya a hindi book by Nagendra - भारतीय महाकाव्य - नगेन्द्र

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय महाकाव्य

राष्ट्रीय एकता प्रत्येक देश के लिए महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीय एकता की आधारशिला है सांस्कृतिक एकता और सांस्कृतिक एकता का सबसे प्रबल माध्यम साहित्य की परिधि के अन्तर्गत महाकाव्यों का विशेष महत्व है, जिनके वृहत् कलेवर में राष्ट्रीय एकता को प्रभावी रीति से प्रतिफल करने का पूर्ण अवसर रहता है।

भारतीय महाकाव्य का आयोजन इसी से प्रेरित होकर किया गया है। इसमें तीन प्राचीन भाषाओं-संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और अंग्रेजी को मिलाकर तेरह आधुनिक भाषाओं के 26 प्रमुख महाकाव्यों का विवेचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। काव्य-वस्तु की दृष्टि से महाकाव्य पाँच प्रकार के है-रामायण महाकाव्य, भारत महाकाव्य, चरितकाव्य, रम्याख्यान और दार्शनिक या प्रतीकात्मक महाकाव्य। यह कार्य विभिन्न भाषाओं के अधिकारी विद्वानों द्वारा संपन्न हुआ है।

आमुख


राष्ट्रीय एकता का केवल भारत के लिए ही नहीं वरन् प्रत्येक देश के लिए अनिवार्य महत्व है। राष्ट्रीयता एकता की आधारशिला है सांस्कृतिक एकता और सांस्कृतिक एकता का सबसे प्रबल माध्यम है साहित्य की एकता। साहित्य की परिधि के अंतर्गत भी विशेष महत्त्व है महाकाव्यों का जिनके वृहत् कलेवर में राष्ट्रीय एकता को प्रभावी रीति से प्रतिफलित करने का पूर्ण अवसर रहता है।

‘भारतीय महाकाव्य’ का आयोजन इसी विचार से प्रेरित होकर किया गया है। इसमें तीन प्राचीन भाषाओं-सांस्कृत प्राकृत, अपभ्रंश-और अंग्रेजी को मिलाकर तेरह आधुनिक भाषाओं के 26 प्रमुख महाकाव्यों का विवेचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। काव्यवस्तु की दृष्टि से ये महाकाव्य, रम्याख्यान और दार्शनिक या प्रतीकात्मक महाकाव्य। यह कार्य विभिन्न भाषाओं के अधिकारी विद्वानों द्वारा संपन्न हुआ है। ग्रंथ के आरंभ में संपादक की विस्तृत भूमिका है जिसमें विवेच्य महाकाव्यों में अंतर्व्याप्त भारतीय एकता के मौलिक सूत्रों का संधान एवं समन्वय किया गया है।

भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता में हमारी दृढ़ आस्था है। इसके आधार पर हम ‘भारतीय साहित्य कोश’ ‘भारतीय साहित्य’, ‘भारतीय साहित्य का समेकित इतिहास’ , भारतीय समीक्षा’ आदि कई ग्रंथों का संपादन कर चुके हैं। ‘भारतीय महाकाव्य’ इसी श्रृंखला की एक कड़ी है।
इस ग्रंथ के लेखन में हमें विश्वविद्यालय अनुदान से आर्थिक सहायता प्राप्त हुई है। अतः उसके अधिकारियों के प्रति आभार व्यक्त करना हमारा कर्त्तव्य है।

नगेन्द्र

भारतीय महाकाव्यः एक परिदृश्य


अनेक भाषाओं में प्रणीत भरतीय साहित्य मूलतः एक है। इस सत्य के प्रति मेरा विश्वास क्रमशः बद्धमूल होता गया है और उसी क्रम के इस अनेकता में एकता का संधान करने की जिज्ञासा बलवती होती गई है। ‘भारतीय समीक्षा’ ‘भारतीय कृष्ण-काव्य’ और ‘भारतीय साहित्य का समेकित इतिहास’ इसी जिज्ञासा के परिणाम हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में भारत की प्राचीन और आधुनिक भाषाओं के छब्बीस प्रमुख महाकाव्यों पर समीक्षात्मक परिचय-लेख संकलित हैं। ये सभी लेख विषय के मर्मज्ञ ऐसे विद्वानों द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं जिनका महाकाव्य की मूल भाषा और हिन्दी पर पूरा अधिकार है। अतः हमें विश्वास है कि सुधी पाठकों को इनके विषय का प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त हो सकेगा।

महाकाव्य विश्व के प्रत्येक प्राचीन देश की सभ्यता-संस्कृति की अभिव्यक्ति का प्रबल माध्यम रहा है। भारत के रामायण’ और महाभारत और उधर यूनानी कवि होमर के ‘इलियड’ और ‘ओडिसी’ इसके उज्जवल प्रमाण हैं। इन महाकाव्यों के कथानक अपने-अपने देश के राष्ट्रीय इतिहास पर आधृत अवश्य हैं

किन्तु उनमें जातीय मिथकों का अन्तर्गुंफन आरंभ से अंत तक मिलता है। ‘इलियड’ और ‘ओडिसी’ में यूनान की मिथक कथाएँ अनुस्यूत हैं और रामायण-महाभारत में भारतीय मिथकों-मुख्यतः वैदिक मिथकों का ताना-बाना आरंभ से अंत तक बना हुआ है। रचना का रूप-आकार धारणा करने से पहले लौकिक-अलौकिक तत्त्वों से गुंफित ये कथाएं मौखिक परंपरा के रूप में प्रचलित रही थीं। अतः इन महाकाव्यों की रचना सार्वजनिक प्रस्तुति के उद्देश्य से वाचक-शैली में की गई है। रामायण में तो इस तथ्य का स्पष्ट रूप में उल्लेख ही कर दिया गया है कि लव और कुश ने जनसमाज तथा राजसभा में इसका वाचक किया था।

मौखिक परंपरा से संबद्ध रहने के कारण इन महाकाव्यों के कलेवर का निरंतर विकास होता रहा है। इसलिए मूलतः एक कवि के कृतित्व से मुद्रांकित होने पर भी ये अपने मूल रूप की रक्षा नहीं कर सके हैं। इसी दृष्टि से उन्हें विकसनशील महाकाव्य कहा गया है। मध्यकाल में रचित ‘बियोवुल्फ और इधर ‘पृथ्वीराज रासो’ इसी कोटि के महाकाव्य हैं। मूलतः वाल्मीकि और व्यास ऋषियों की रचना होने के कारण भारत में ये आर्ष महाकाव्य के नाम से प्रसिद्ध रहे हैं। इन रचनाओं में महाकाव्य विधा के विकास का पहला रूप मिलता है। संक्षेप में इसके लक्षण इस प्रकार हैं-

1. ये महाकाव्य अपने देश की जातीय और युगीन सभ्यता-संस्कृति के वाहक होते हैं।

2. इनमें ऐतिहासिक घटनाओं के साथ मिथकों का अंतर्गुफन रहता है।

3. इन महाकाव्यों के केन्द्र में युद्ध रहता है जो व्यक्तिगत तथा वंशगत सीमाओं से ऊपर उठकर जातीय युद्ध का रूप धारण कर लेता है। भारतीय महाकाव्यों में ये धर्मयुद्ध के रूप में लड़े गए हैं। इलियड और ओडिसी में ये युद्ध मूलतः जातीय युद्ध हैं-धर्म युद्ध नहीं। इसका कारण यह है कि यूनानी चिंतक भाग्यवादी रहा है किन्तु यहाँ भी धर्म की पराजय और अधर्म की विजय को मान्यता नहीं दी गई।

4. रचनाबद्ध होने से पहले इनकी मूलवर्ती घटनाएं मौखिक परंपरा के रूप में रहती हैं।

5. इसलिए सार्वजनिक प्रस्तुति के साथ किसी-न-किसी रूप में इनका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्क्ष संबंध रहता है-अतः इनकी शैली पर वाचन-शैली का प्रभाव अनिवार्यतः लक्षित होता है।

उपयुक्त महाकाव्य संख्या में अल्प होने पर भी परवर्ती महाकाव्यों के मूल–स्रोत रहे हैं। यूरोप में यूनानी-रोमी संस्कृति को मसीही संस्कृति ने एक प्रकार से आच्छादित कर दिया था, इसलिए इडियड और ओडिसी का प्रभाव भी सीमित हो गया। परंतु भारत में रामायण और महाभारत अद्यतन महाकाव्यों के उदगम और प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। परवर्ती महाकाव्यों की रचना सार्वजनिक वाचक के लिए नहीं, वरन् कलाकृति के रूप में हुई है। इसलिए इन्हें ‘कलात्मक महाकाव्य’ की संज्ञा देना उपयुक्त होगा। इस वर्ग के महाकाव्यों की भारत में एक सुदीर्घ परंपरा है-जो ‘कुमारसंभव’ ‘रघुवंश’ आदि संस्कृत महाकाव्यों से आरंभ होकर आधुनिक भाषाओं में ‘कामायनी’ तथा ‘श्रीरामायण दर्शनम्’ आदि तक निरंतर प्रवाहमान है।
ललित काव्य की एक विधा का रूप धारण कर महाकाव्य साहित्यशास्त्र का विषय बन गया और आचार्यों ने साहित्य की अन्य विधाओं की भाँति उसे भी लक्षणवद्ध कर दिया। यूरोप में अरस्तू, इतालवी भाषा के कतिपय आचार्यों, बाद में डॉ० जॉन्सन आदि और आधुनिक युग में अनेक काव्य-मर्मज्ञों ने महाकाव्य का स्वरूप-विवेचन किया है। भारत में प्राचीनों में भामह, दंडी, रुद्रट और विश्वनाथ आदि ने विस्तार के साथ महाकाव्य के लक्षण प्रस्तुत किए हैं और आधुनिक साहित्य-मर्मज्ञों ने भी भारतीय तथा पाश्चात्य काव्य-चिंतन के आ
लोक में उसके स्वरूप का तात्विक विवेचन किया है।
उपर्युक्त तत्त्व-विवेचन का सार-संक्षेप सामान्यः इस प्रकार है-

1.‘महाकाव्य’ पद में उपयुक्त ‘महा’ विशेषण एक ओर उसके महान कलेवर अर्थात् विपुल-व्यापक आकार और दूसरी ओर उसकी महान विषय-वस्तु अर्थात् प्रतिपाद्य विषय की गौरव-गरिमा का समान रूप से द्योतन करता है।
2. आकार की व्यापकता का अर्थ है कि उनमें जीवन का सर्वांग-चित्रण रहता है। प्रभावशाली महापुरुष का जीवन होने के कारण उसका विस्तार अनायास ही संपूर्ण देशकाल तक हो जाता है। अतः महाकाव्य की कथा-परिधि में जीवन के समस्त सामाजिक, राजनीतक पक्ष एवं आयाम और उनके परिवेश रूप में विभिन्न दृश्यों और रूपों का समावेश रहता है। ये सभी वर्णन साधारण जीवन की क्षुद्रताओं से मुक्त एक विशेष स्तर पर अवस्थित रहते हैं।

3. महाकाव्य की कथावस्तु एक महान उद्देश्य से परिचालित होती है। अनेक संघर्षों से गुजरती हुई वह अंततः महत्तर मानव-मूल्यों की प्रतिष्ठा करती है। इन महत्तर मानव-मूल्यों की प्रतिष्ठा अंततः जिस घटना के द्वारा होती है, वहीं महाकाव्य का महत्कार्य होता है।
4.महान कार्य की सिद्धि के लिए यह आवश्यक है कि उसका साधक उसके अनुरूप चारित्रक गुणों और शक्तियों से सम्पन हो। अतः महाकाव्य का नायक अथवा केन्द्रीय पात्र असाधारण शक्ति और गुणों से सम्पन्न होता है और ये गुण उसके सहयोगी तथा विरोधी पात्रों में भी विभिन्न अनुपातों में विद्यमान रहते हैं।

6. उपर्युक्त संसार को वहन करने में समर्थ महाकाव्य की शैली भी स्वभावतः अत्यन्त गरिमा-विशिष्ट होनी चाहिए। इसलिए आचार्यों ने यह अवस्था दी है कि महाकाव्य की शैली साधारण स्तर से भिन्न, क्षुद्र प्रयोगों से मुक्त अलंकृत होनी चाहिए। पाश्चात्य काव्यशास्त्र में यूनानी-रोमी आचार्य लोंजाइनस से प्रेरणा प्राप्त कर अनेक सुधी समीक्षकों ने इस संदर्भ में ‘उदात्य तत्व’ पर विशेष बल दिया गया है जो महाकाव्य की मूल चेतना को अभिव्यक्ति करने में अपेक्षाकृत अधिक सक्षम है। अतः उसके आधार पर उदात्त कथानक, उदात्त कार्य अथवा उद्देश्य, उदात्त चरित्र, उदात्त भाव-संपदा और उदात्त शैली को महाकाव्य के मूल तत्वों के रूप में रेखांकित किया गया है।

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