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चेतना के स्रोत

शंकर दयाल शर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1724
आईएसबीएन :81-7315-044-3

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प्रस्तुत है चेतना के स्रोत..

Chetana Ke Srot

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राचीन काल में राजर्षियों ने कर्मयोग का पालन किया था। मनु इक्ष्वाकु तथा जनक आदि राजा होते हुए भी ऋषि थे, और ऋषि होते हुए भी राजा थे। यही चेतना का वह स्तर है जहाँ गीता व्यक्ति को पहुँचाती है। आज विश्व में जो आपाधापी मची हुई है, विश्व के सामने जो अस्तित्व का संकट खड़ा है, यदि व्यक्ति की  चेतना ‘निज’ से उठकर ‘पर’ की ओर जा सके तो उससे अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है।

विधायिका और विधायक

उन लोगों के लिए जो मैदानों की धूल-मिट्टी, गरमी व शोरगुल में रहते हैं, हिमालय सदा एक आकर्षण रहा है। यहाँ वस्तुतः अतीव आनंद की अनुभूति होती है। महाकवि कालिदास ने ‘कुमारसंभवम्’ में कहा है—

   अस्त्युत्तरस्या दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:।
   पूर्वापरौ तोयनिधि विगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदंडः।।


पर्वतीय क्षेत्र की वायु अत्यंत स्वास्थ्यकर है। हिमालय के मनोहर दृश्य, हरे-भरे वन, अभिभूत कर देने वाली वनस्पति, लुभावनी ग्रामीण बस्तियाँ, आकर्षक और ऐतिहासिक थातियाँ—सभी हमारे देश के सौंदर्य को बढ़ाती हैं।

हिमाचल प्रदेश के लोग सर्वाधिक आकर्षण के केंद्र हैं। मुझे कवि जयदेव ‘किरण’ की पहाड़ी ‘पाथरो रे माणु’ की पंक्तियाँ याद आती हैं—

पाथरो रे माणू असे पाथरो री जिंदड़ी,
                      नरम-नरम कालजा,
        दिलारे दुराज्जे म्हारे, सारी दुनिया जो खुले,
                      जाणे वालया प्यार लेइजा।’’

अर्थात्, हम पत्थर के बने इनसान हैं और हमारा जीवन भी पत्थर के समान कठोर है। परंतु हमारा कलेजा (दिल) बहुत नरम है। हमारे दिल के दरवाजे सारे संसार के लिए खुले हैं। हे पथिक ! हमारा प्यार लेते जाओ।

हिमाचल प्रदेश के जनसाधारण, उनकी दयालुता और हृदय की उदात्तता, उनकी सादगी और निष्ठा के बारे में जयदेव ‘किरण’ की ये पंक्तियाँ कितनी सही हैं।

संकट का मुकाबला करने तथा उसके विरुद्ध सफलतापूर्वक संघर्ष करने की उनकी क्षमता को देखकर ऐसा लगता है कि यहाँ के लोगों में पर्वतों के समान दृढ़ता समाई हुई है। स्वतंत्रता और राष्ट्रीय आत्म-सम्मान के संघर्ष के दौरान हिमाचल प्रदेश के लोगों ने प्रेरणादायक संकल्प और साहस का परिचय दिया था। असहयोग आंदोलन के एक हिस्से के रूप में पुरुषों और महिलाओं ने ‘दूम्ह’ में भाग लेकर हमारे इतिहास में एक शानदार अध्याय जोड़ा है। ‘पहाड़ी गांधी’ बाबा काशीराम ने अपनी एक अति जीवंत कविता में लोगों की मनःस्थिति का चित्रण किया है। मैं उनकी कविता के कुछ शब्द उद्धृत करना चाहूँगा—

‘‘शहीदा रे लहुये री इकसी बूँदा
लखा गंगा खूने री बायियाँ
कांशिये बी गौता लाया
आपणा जन्म सुफल बनाया।’’

अर्थात् शहीदों का खून एक जैसा है। उन्होंने खून की लाखों गंगाएँ बहा दीं। काशीराम ने भी उसमें गोता लगाया और अपने जीवन को सफल बनाया है।

काशीराम की ये पंक्तियाँ हमारे स्वाधीनता संग्राम के समय की देशभक्तिपूर्ण भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति हैं।
महात्मा गांधी ने स्वाधीनता के लिए जन-आंदोलन में अपनी शक्ति लगा दी थी। शिमला के पर्वतीय राज्यों में परिश्रमरत जनसाधारण से जब बापू ने अपील की थी तो उन्हें यहाँ की देशभक्तिपूर्ण जागरुकता की गहराई और यहां के लोगों में अन्याय का मुकाबला करने के संकल्प का आभास था। 15 अगस्त, 1921 को महात्मा ने जो कहा था, उसे मैं यहाँ उद्धृत करता हूँ—‘‘....जब तक आपके मित्र और सहयोगी जेल में बन्द हैं, आप श्री स्टोक्स की सलाह को मानते हुए अंग्रेजों के लिए बेगार करने से इनकार कर दें। ....‘बेगार करने की अपेक्षा कठिनाइयों को सहन करना तथा अपने धर्म के लिए जेलों को भरने के लिए तैयार रहना कहीं अधिक अच्छा है।....आपके प्रयासों में पूरे हृदय से मैं आपके साथ हूँ।’’

हिमाचल की जनता के संघर्ष के साथ राष्ट्रपिता का पूर्ण तादात्म्य देशभक्ति और कठोर त्याग की उस उच्च भावना को दर्शाता है, जिससे यह पहाड़ी क्षेत्र ओतप्रोत रहा है। उन दिनों का स्मरण करके गर्व का अनुभव होता है।
चालीस वर्ष पहले 4 अक्तूबर, 1948 को हिमाचल सलाहकार परिषद् की पहली बैठक हुई थी और पच्चीस वर्ष पहले 3 अक्तूबर, 1963 को पुनर्स्थापित हिमाचल विधान सभा की पहली बैठक हुई थी। इन वर्षों में इस महती सभा की वर्तमान प्रतिष्ठा को बनाने के लिए मनसा, वाचा, कर्मणा बहुत कुछ किया गया है। इस प्रक्रिया में इस विधान मंडल के उत्तरोत्तर विकास और प्रगति, यहाँ स्थापित परंपराओं तथा इन सबसे अधिक हिमाचल प्रदेश राज्य के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में इस संस्था के सुस्पष्ट व्यक्तित्व को प्रभावित करने में हिमाचल प्रदेश के विशिष्ट वातावरण की भी रचनात्मक भूमिका रही है। ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि हमारी संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में विधान मंडल का यह प्रतिनिधि स्वरूप इसके सर्वोच्च तथा सर्वाधिक मूल्यवान गुणों में से एक है।

 विधान सभा वह स्थान है जहाँ लोगों की आशाओं, आकांक्षाओं, अभिलाषाओं, आशंकाओं तथा उन्हीं के भय, ज्ञान, अंतर्दृष्टि और अनुभूतियों की सम्पूर्ण और सच्ची अभिव्यक्ति होती है। यही वह स्थान है, जहाँ विधिवत् निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के आपसी विचार-विनिमय तथा स्वतंत्र वाद-विवाद के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुए उदात्त भावों से लोगों की ‘वास्तविक इच्छा’ का पता चलता है। इस प्रकार प्रकट हुई वास्तविक इच्छा शक्ति और संकल्प शक्ति के आधार पर यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि सदन से उठी शक्तिशाली राजनीतिक अंतःप्रेरणा से आम जनमानस, सरकार तथा विकास की प्रक्रिया प्रभावित होनी चाहिए। अतः विधान मंडल को अनिवार्यता आम जनता की अभिव्यक्ति का माध्मय होने के साथ-साथ, लोगों के हितों की यथार्थ अभिव्यक्ति का भी माध्यम होने की महत्त्वपूर्ण भूमिका लगातार निभानी चाहिए। इस विधान मंडल के लिए बड़ा जरूरी है कि वह लोगों का प्रतिनिधित्व करे और उनका समुचित मार्ग दर्शन भी करे। तभी यह सदन अपने उत्तरदायित्व को सही तौर से निभा सकेगा।

इसी संदर्भ में मैं उन नानाविध प्रवृत्तियों का भी उल्लेख करना चाहूँगा जिन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण धारणाओं तथा विचारों के प्राबल्य से अभिभूत होकर हमारे राष्ट्रीय जीवन को अधिक प्रभावित किया है, साथ ही कुछ जटिलताएँ भी उत्पन्न की हैं। इनमें से कुछ विचार तथा शक्तियाँ सकारात्मक हैं जो राष्ट्र-निर्माण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। दूसरी ओर, कुछ ऐसी धारणाएँ, विचार तथा शक्तियाँ भी हैं जिनका बिलकुल विपरीत प्रभाव पड़ता है। हमारे देश का सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक जीवन असंख्य मुद्दों तथा समस्याओं से जूझता हुआ आगे बढ़ता है और राष्ट्रीय जीवन की मुख्य धारा तथा राष्ट्र की दिशा पर इनमें से प्रत्येक का कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य पड़ता है। प्रत्येक समसामयिक विषय के संबंध में प्रबुद्ध, आधुनिक रचनात्मक और उत्तरदायित्वपूर्ण दृष्टिकोण की गुंजाइश रहती है; और इसी तरह उन सभी समस्याओं के संबंध में रूढ़िवादी, दुराग्रही, विनाशक या गैर-जिम्मेदाराना दृष्टिकोण की गुंजाइश भी रहती है जिनका हम पर असर पड़ता है। राष्ट्रवाद का विरोध संकीर्ण तथा संकुचित राष्ट्रीयता द्वारा किया जाता है, धर्मनिरपेक्षता का विरोध साम्प्रदायिक दृष्टिकोण द्वारा किया जाता है, समाजवाद का विरोध स्वार्थी अभिवृत्तियों द्वारा किया जाता है, एकता की शक्तियों को विखंडनकारी शक्तियों का मुकाबला करना पड़ता है, और विकास की शक्तियों को अवनति और हिंसा के रूप में अपने प्रतिद्वंद्वियों का मुकाबला करना होता है।

किसी नागरिक का चाहे जो भी दृष्टिकोण हो, उसका जिस दिशा में भी झुकाव हो, उसका राष्ट्र पर रचनात्मक या विध्वंसात्मक प्रभाव होता है। इस प्रक्रिया में, व्यक्ति राष्ट्रीय मनोदशा तथा लोकाचार का केंद्र बिंदु होता है। अलग-अलग व्यक्तियों के विचारों से ही हमारे लोकतांत्रिक समाज की आत्मा और हमारे राष्ट्र के भाग्य का निर्माण होता है। यह बहुत ही आवश्यक है कि हमारे नागरिक उपयुक्त धारणाओं और विश्वासों को आत्मसात करें, उन्हें व्यक्त करें तथा उन्हें अपने जीवन में अपनाएँ। विधान मंडल ऐसा करने में उनकी सहायता कर सकते हैं, और हमारे विधान मंडल ऐसा करने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त हैं भी। समाज को विधान मंडलों से ही ऐसी अपेक्षा है। इसके साथ ही हमारे विधान मंडलों को भी समाज से यही अपेक्षा है।

विधान मंडल का बड़ा कर्तव्य लोगों के लिए बेहतर भविष्य का निर्माण करना है और बेहतर भविष्य का निर्माण केवल विधि की गुणवत्ता से ही नहीं किया जा सकता, बल्कि सामाजिक प्रासंगिकता, नैतिक बल और वैचारिक प्रबलता के द्वारा किया जा सकता है, जिससे विधान मंडल जनता के मन को प्रभावित कर सकता है। हमारे राष्ट्र के ऐतिहासिक विकास के वर्तमान चरण में विधान मंडलों को ऐसी कार्य-नीति अपनानी चाहिए, जो हमारे शासन-तंत्र की अपेक्षा के अनुसार सामाजिक विकास की आवश्यकताओं को पूरा करे। हमारे बहुविध समाज में सहनशीलता और सूझ-बूझ की हमारी पुरातन परंपराओं के अनुरूप, हमारे देश के नागरिकों को सर्वधर्म समभाव का सही अर्थ और मूल्यों को समझने में मदद विधान मंडलों को करनी होगी। भौगोलिक स्थिति, जलवायु, जाति, भाषा, धर्म, स्थानीय परंपराओं और व्यवसाय की व्यापक विविधताओं को देखते हुए विधायिकाओं को चाहिए कि वे विविधताओं से उभरती हुई राष्ट्रीय एकता और अखंडता की महत्ता को समझने और उसे आत्मसात करने में हमारे नागरिकों की मदद करें। आय के वितरण और धनोपार्जन के अवसरों के मामले में अनेक वर्गों में बँटी राज्य-व्यवस्था में यह बात महत्त्वपूर्ण है कि हमारे नागरिक समाजवाद, लोकतंत्र और कानून के अनुसार शासन की धारणाओं का सम्मान करना पूरी तरह से सीखें।

दिन-प्रतिदिन धन लोलुप और भौतिकवादी होते जा रहे इस संसार में हमारे नागरिकों को राष्ट्रीय हित के लिए योगदान करने तथा वैयक्तिक, सामाजिक और राष्ट्रीय प्रयास के लिए अविचल नैतिक आधार बनाने के प्रति प्रत्येक नागरिक के कर्तव्य की महत्ता को समझने में मदद विधान मंडलों को करनी होगी। ऐसे वातावरण में, जहाँ गरीबी और अभाव बड़े पैमाने पर व्याप्त है और जहाँ व्यक्ति द्वारा धनोपार्जन को गलत महत्त्व दिया जाता है, हमारे नागरिकों को निस्वार्थ सेवा और श्रम की महत्ता के सही अर्थ की पहचान सिखानी होगी। वैज्ञानिक प्रगति और पारस्परिक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में अभूतपूर्व गतिवाले इस युग में हमारे नागरिकों को अपने देश के प्राचीन आदर्शों, नैतिक मानकों और संस्कृति के उदात्त तत्त्वों को अपने साथ रखते हुए भी नई प्रौद्योगिकी और आधुनिकता के सकारात्मक प्रभावों को आत्मसात करने के लिए प्रेरित करना होगा। तीव्र प्रतिस्पर्धा की राजनीति में हमारे नागरिकों को सर्वोदय, साधनों की पवित्रता और नैतिक बल के प्रभाव की गांधीवादी विचारधारा के मूल्य के बारे में विश्वास दिलाना होगा। स्वाधीनता के इकतालीस वर्ष के बाद हमारे नागरिकों को पहले की अपेक्षा अब और अधिक बलिदान, देशभक्ति और राष्ट्रीयता की उस प्रचंड भावना को आत्मसात करना होगा जो हमारे स्वाधीनता संग्राम के माध्यम से तेजस्विता से उभरी थी। हमारे विधान मंडलों से अपने एक मूलभूत कार्य के रूप में ऐसी प्रेरणा प्रदान करने की अपेक्षा की जानी चाहिए। ऐसा करने में असफल रहने पर वे उच्च राष्ट्रीय उद्देश्य के बिना कार्य करेंगे और उनसे वास्तव में अधिक भलाई के बजाय अधिक हानि हो सकती है।

हम भारतवासियों को संसदीय प्रजातंत्र के रूप में प्रभावशाली ढंग से काम करने का गौरव प्राप्त है। यह गौरव हमें प्राचीन परंपराओं, लोकतंत्रात्मक विचारों एवं लोकतंत्रात्मक संस्थाओं से मिला है। गणतंत्र, गणनायक और गणपति जैसे महत्त्वपूर्ण और अर्थपूर्ण शब्दों का परिचय हमारे अत्यधिक प्राचीन साहित्य में मिलता है। ग्रामीण लोकतंत्र की हमारी प्राचीन विरासत--ग्राम पंचायत--देश-भर में फैली हुई है। महात्मा गांधी का ग्राम स्वराज्य का आदर्श और पंडित जवाहरलाल नेहरू की पंचायती राज की संकल्पना हमारी प्राचीन लोकतंत्रात्मक धारणा का ही विकास है। ये परम्पराएँ सहिष्णुता, सूझ-बूझ और एकरूपता की हमारी चिर-स्थापित परंपराओं की नैसर्गिक सहयोगी हैं। कुल मिलाकर हम भारतीय पहले से ही स्वतः ही संसदीय और लोकतंत्रात्मक प्रणालियों को अपनाते रहे हैं। और इन्हीं के अनुसार कार्य करते रहे हैं।
फिर हमें यह याद रखना होगा कि किसी भी समय पर लोकतांत्रिक संस्थान तभी उचित ढंग से कार्य कर सकते हैं जब कतिपय अनिवार्य नियमों का उल्लंघन न किया जाए। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र शासन-व्यवस्था के शरीर पर एक बहुमूल्य और स्पृहणीय आभूषण है जो उसे अलंकृत करता है, लेकिन यदि सतर्कता के साथ इसकी रक्षा न की जाए तो आभूषण की तरह यह आसानी से छीना भी जा सकता है।

विधायकों के लिए सदन में अपने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक कार्य-प्रणाली का एक अनिवार्य नियम है। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 6 दिसंबर, 1957 को नई दिल्ली में, संसदीय लोकतंत्र’ गोष्ठी का उद्घाटन करते हुए कहा था, ‘‘हमने प्रजातंत्र शासन स्वीकार किया, क्योंकि यह समस्याओं के समाधान का शांतिपूर्ण सिद्धांत है--प्राकृतिक तौर पर बहुमत वास्तव में बहुतम है, और उसके पास अपना रास्ता होना चाहिए। लेकिन वह बहुमत, जो अल्पमत की अनदेखी करता है, संसदीय लोकतंत्र की सच्ची आत्मा से काम नहीं करता।’’
यहाँ मुझे वाल्टेयर के ये शब्द भी याद आ रहे हैं, ‘‘मैं आपके कथन को नामंजूर भी कर सकता हूँ, लेकिन मैं उस बात को कहने के आपके अधिकार की आखिरी साँस तक रक्षा करूँगा।’’
यही इसका सार है। इसी तरह यह भी जरूरी है कि जन साधारण के मन में विधायिकाओं और विधायकों के प्रति सम्मान की भावना प्रबल बनाई जाए। लोकतांत्रिक संस्थानों के प्रति जन-सम्मान और अनुरक्ति को लोकतांत्रिक जीवन पद्धति के लिए अनिवार्य माना जाना चाहिए। इसे कैसे सुनिश्चित किया जाय ? इसका जवाब हमें स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने दिया था। उन्होंने कहा था, ‘‘मंत्रियों और विधायकों को अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक आचरण पर नजर रखनी चाहिए। उन्हें सीजर की पत्नी के समान संशय से परे होना चाहिए।’’

अपने कार्यों की गुणवत्ता तथा आचरण द्वारा विधायकों को जनता के सामने उदाहरण प्रस्तुत करने चाहिए, जो उन्हें ‘माई पिक्चर ऑफ फ्री इंडिया’ (पृष्ठ 193) में कहे हैं। मैं उन्हें यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ, ‘‘यह सोचना एक भ्रम है कि विधायक मतदाताओं का निर्देश करते हैं।....लोग ही निर्देशन करते हैं, न कि विधायक। विधायक सेवक हैं, और लोग स्वामी।’’
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने ढंग से इस बात पर जोर दिया कि प्रजातांत्रिक प्रक्रिया में भागीदार पर आत्म-नियंत्रण के साथ कार्य करने के लिए कुछ कठिनाइयों को सहन करने का बहुत बड़ा उत्तदायित्व है। पंडित नेहरू ने इस संबंध में जो कुछ कहा था, उसे में यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ। ‘‘तुम प्रजातंत्र की परिभाषा सैकड़ों तरीके से कर सकते हो, परंतु निश्चय ही इसकी एक परिभाषा है--समुदाय का आत्मसंयम। हम जितना ही कम अनुशासन लागू करें, और जितना ही अधिक आत्मसंयम अपनाएँ, प्रजातंत्र का उतना ही अधिक विकास होगा।’’

मैंने इन बातों का उल्लेख कुछ सोच-विचार के बाद किया है। मैंने पहाड़ों के बीच बसे इस अनुकूल स्थान से ऐसा कहना उचित और आवश्यक समझा। हिमाचल प्रदेश जैसे एक ऊंचे पर्वत शिखर से हम चारों ओर के प्राकृतिक दृश्यों का पूरा-पूरा नजारा देख सकते हैं और इसके अलावा, पर्वत शिखर से हमें उस मार्ग की सभी कठिनाइयाँ भी साफ-साफ दिख जाती हैं। इस अवसर पर मैंने जो विचार व्यक्त किए हैं, वे केवल इसी प्रयोजन के लिए हैं।
मुझे पूरा विश्वास है कि आनेवाले वर्षों में हिमाचल प्रदेश विधान सभा सदा सार्थक और व्यापक दृष्टिकोण को सामने रखकर इस राज्य की और पूरे देश की सेवा करती रहेगी।


पंचायती राज



लोकतंत्र की भावना, इसका स्वरूप, इसका सत्व और इसकी तकनीकी विशेषताएँ अखिल भारतीय परंपरा का अंग रही हैं। यह हमारी ऐतिहासिक विरासत है और राजनीतिक चिंतन से प्राप्त हुई है। ‘विष्णुसहस्रनाम’ में उल्लिखित  ‘लोकाध्यक्ष’ और लोकबंधु’ शब्द तथा ‘गणपति, गणराज्य’ और ‘गणतंत्र’ आदि नाम प्राचीन काल के हमारे लोकतांत्रिक आदर्श की ओर संकेत करते हैं। महाभारत के शांति पर्व में लोकतंत्र को एक सामाजिक-राजनीतिक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ‘ललितविस्तर’ से हमें ज्ञात होता है कि प्राचीन कालीन भारत में 16 जनपद थे। उस समय प्रजातांत्रिक प्रणाली लोकप्रिय थी। ऐसा नहीं था कि केवल लिच्छवी और वज्जि में ही गणराज्य सरकारें थीं। ‘महापरिनिब्बान सुत्तंत’ में सार्वजनिक सभा संबंधी गौतम बुद्ध के प्रश्नों का उल्लेख है। ‘दीघ निकाय’ में बुद्ध ने गणराज्य की समृद्धि के लिए जो कुछ शर्तें बताई हैं, उनमें से--(1) बार-बार और पूरी सार्वजनिक चर्चाएँ करना, (2) बड़ों के लिए सम्मान, (3) महिला और बच्चों की सुरक्षा, तथा (4) व्यक्तिगत समानता के सिद्धांत पर आधारित विधि का शासन।

व्याकरणाचार्य पाणिनि ने ‘गणपूर्ति’ की अवधारणा का उल्लेख किया है, और जिस व्यक्ति की उपस्थिति में गणपूर्ति होती थी, उसके लिए ‘गणतिय’ अथवा ‘संघतिय’ शब्द का प्रयोग किया है। मतदान की विभिन्न प्रणालियों का भी जिक्र मिलता है, जिनमें ध्वनिमत, मतपत्र द्वारा मत, परोक्ष मत तथा गोपनीय मतदान भी हैं। प्रत्यक्ष मतदान को, ‘वितरक’ मतदान कहते थे। ऐसा दक्षिण में भी था। तमिल के प्राचीन ग्रंथ ‘सिलप्पदिकारम’ में गोपनीय मतदान द्वारा निर्वाचित पाँच सदस्यीय समिति का उल्लेख हुआ है, जिसे ‘इम-पारयम’ कहा जाता था।

ऋग्वेद, अथर्ववेद और तिरुक्कुरल में लोकतांत्रिक दृष्टिकोण का महत्त्व बताने वाले अनेक संदर्भ हैं। ऐसे ही संदर्भ शुक्रनीति, दंडनीति और अर्थशास्त्र में भी है।

हमारा प्राचीन इतिहास और परंपरा जो भी रही हो, यह तो सत्य ही है कि इस संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में ग्रामीण समाज लोकतांत्रिक ढाँचे पर ही गठित था। यहाँ ग्राम सभा तथा ग्रांम पंचायत की तरह ही पंच परमेश्वर की अवधारणा स्थापित हुई थी।
ग्राम पंचायत की प्रणाली हमारे नागरिक संगठन की आधारभूत इकाई थी, और पंचायत की परंपरा के कारण ही भारतीय जनमानस में लचीलापन और एक निरंतरता बनी रही। पंचायत हमारे देश की आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रकृति का पोषण करने वाले महत्त्वपूर्ण स्रोतों में रही है।
यही कारण था कि भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान शासकों ने हमारी ग्राम प्रणाली को नष्ट करने की पूरी कोशिश की, ताकि इस देश की आर्थिक और राजनीतिक प्रणाली का मूल आधार ही ढह जाए और उन्हें औपनिवेशिक शोषण करने की अधिक-से-अधिक सुविधा मिल जाए।

इसलिए हमारे देश के महान् नेताओं ने स्वतंत्रता संघर्ष तथा राष्ट्रीय पुनर्निमाण के दौरान ग्राम पंचायतों को पुनरुज्जीवित करने के कार्य को मुख्य उद्देश्य बनाया। लोकमान्य तिलक ने कहा था, ‘‘ग्राम पंचायत हमारी प्राचीन राज्य व्यवस्था का मूल आधार रही है। ब्रिटिश शासन के दौरान ग्रामीण व्यवस्था को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया था। किसान पराश्रित और असहाय हो गया था।...आजादी के बाद अगला कदम ग्राम संस्था को पुनरुज्जीवित करना होना चाहिए। ग्राम हमारे स्वराज्य, शिक्षा, उत्पादन, स्वास्थ्य, कानून-व्यवस्था, अकाल-राहत और वन-प्रबंध की इकाई होने चाहिए। वास्तव में सभी समस्याएँ ग्राम संस्था या ग्राम मंडल के क्षेत्राधिकार में होनी चाहिए।

 

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