जीवनी/आत्मकथा >> कवि नायक अज्ञेय कवि नायक अज्ञेयइला डालमिया कोइराला
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प्रस्तुत है अज्ञेय की जीवनगाथा...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपने ऊपर फिल्म बनाने के लिए श्री सच्चिदानन्द वात्स्यायन
‘अज्ञेय’ जब मान गये तब श्री प्रमोद माथुर और श्रीमति
नीलिमा माथुर के आग्रह पर बन रही इस फिल्म में साक्षात्कार होना तो निहित
ही था। मुझे वात्स्यायन जी से बातचीत के दौरान यह अन्दाज़ नहीं था कि
व्यक्ति विशेष होते हुए भी इतने बड़े आदमी का साक्षात्कार हम कर रहे हैं।
कई लोगों ने कई दृष्टियों से उन का साक्षात्कार लिया है; लेकिन यह अपनी तरह का, अपने ढंग का साक्षात्कार है क्यों कि न तो यह दीक्षित लेखकों द्वारा लिया गया है और न ही निपुण पत्रकारों द्वारा। यह लिया गया है दो संवेदनशील पाठकों द्वारा और इस अर्थ में यह अनूठा है। इस के माध्यम से वात्स्याजन जी के निजी जीवन और लेखकीय जीवन के बहुत से पहलू उजागर हुए हैं। जिस सहज भाव से उन्होंने हमारे प्रश्नों का विस्तार किया है, अपने उत्तरों में ही प्रश्नों को समेटा और अपने मन को खोलते हुए, हमारी सीमाओं को पहचानते हुए अपने औदार्य में हमें समेट लिया है।
यह साक्षात्कार दो लोगों-श्रीमती नीलिमा माथुर और मेरे द्वारा दो समयों में दो तरह से लिया गया है जिस से उनका निजी और औपचारिक जीवन सामने आया है। अज्ञेय के जीवन से सम्बंन्धित उनके अपने कुछ ही पोर्ट्रेट एक श्रृंखलाबद्ध रूप में हर खण्ड से पहले दिये गये हैं। यह पुस्तक कुछ और समय तक ऐसे रह जाती, यदि श्री अशोक वाजपेयी इसके प्रकाशन के लिए इतने उत्साहित न हुए होते। इसके लिए मैं उन की आभारी हूँ। इस प्रयास से ‘अज्ञेय’ के पाठकों को उनके जीवन-कर्म और चिन्तन के विषय में अतिरिक्त जानकारी मिल सके और वे अपने को उन के कृतित्व की सूक्ष्मता और संवेदनशीलता के निकट पायें, यही मेरी कामना है।
कई लोगों ने कई दृष्टियों से उन का साक्षात्कार लिया है; लेकिन यह अपनी तरह का, अपने ढंग का साक्षात्कार है क्यों कि न तो यह दीक्षित लेखकों द्वारा लिया गया है और न ही निपुण पत्रकारों द्वारा। यह लिया गया है दो संवेदनशील पाठकों द्वारा और इस अर्थ में यह अनूठा है। इस के माध्यम से वात्स्याजन जी के निजी जीवन और लेखकीय जीवन के बहुत से पहलू उजागर हुए हैं। जिस सहज भाव से उन्होंने हमारे प्रश्नों का विस्तार किया है, अपने उत्तरों में ही प्रश्नों को समेटा और अपने मन को खोलते हुए, हमारी सीमाओं को पहचानते हुए अपने औदार्य में हमें समेट लिया है।
यह साक्षात्कार दो लोगों-श्रीमती नीलिमा माथुर और मेरे द्वारा दो समयों में दो तरह से लिया गया है जिस से उनका निजी और औपचारिक जीवन सामने आया है। अज्ञेय के जीवन से सम्बंन्धित उनके अपने कुछ ही पोर्ट्रेट एक श्रृंखलाबद्ध रूप में हर खण्ड से पहले दिये गये हैं। यह पुस्तक कुछ और समय तक ऐसे रह जाती, यदि श्री अशोक वाजपेयी इसके प्रकाशन के लिए इतने उत्साहित न हुए होते। इसके लिए मैं उन की आभारी हूँ। इस प्रयास से ‘अज्ञेय’ के पाठकों को उनके जीवन-कर्म और चिन्तन के विषय में अतिरिक्त जानकारी मिल सके और वे अपने को उन के कृतित्व की सूक्ष्मता और संवेदनशीलता के निकट पायें, यही मेरी कामना है।
इला डालमिया-कोइराला
न्यासी सचिव
न्यासी सचिव
यादें
बचपन की बहुत सी बातें याद आती हैं। बचपन यों तो कुछ ही वर्ष का होता है
लेकिन बहुत लम्बा होता है। बचपन की दृष्टि से अगर देखें तो याद आते हैं
कुछ थोड़े से लोग, कुछ दृश्य, माता-पिता, आवाज़ें, तरह-तरह की चीज़ें। सब
से पहली यादों में तो लखनऊ की एक बाढ़ है। मैं शायद तीन-चार वर्ष का ही था
जब बाढ़ आयी थी लखनऊ में। लखनऊ में ही बचपन बीता था मेरा और वह काफ़ी बड़ी
बाढ़ थी। इतनी बड़ी कि शहर की सड़कों पर नावों में बैठ कर आना-जाना हुआ।
हजरत गंज में भी नाव में बैठ कर घूमे। ऐसी यादें हैं कुछ या कि फिर कुछ
तेज गति की यादें हैं, दौड़ते हुए घोड़े की याद है मुझ को। तेज गति का
हमेशा आकर्षण रहा है। तेज और लययुक्त गति का अच्छा तैरने वाला हो, घोड़ा
दौड़ रहा हो, हिरण कूद रहे हों, इस तरह की। इस तरह के बचपन के बहुत से
चित्र हैं जिन में और कुछ नहीं सिर्फ़ किसी गतिमान चीज़ की या जन्तु की एक
छवि सामने आती है, ऐसी यादें भी हैं। कुछ बचपन में की गयी शरारतों की
यादें भी कभी आती हैं।
बाकी बचपन की यादों में पढ़ाई की उतनी स्मृतियाँ नहीं हैं जितनी पशु-पक्षियों की हैं। पिता जी को भी जानवरों के पालने का शौक़ था। गाय और घोड़ा तो ख़ैर सामान्य बातें हैं। लेकिन मोर भी पाले गये, घर में, एक बार हिरण भी पाला गया, खरगोश पाले गये, चकोर पाला गया। ये सब पक्षी पिंजरों में नहीं रखे जाते थे, खुले रखे जाते थे। परिचित हो जाते थे इस लिए घर में ही घूमते रहते थे। हिरण भी इसी तरह खुला फिरता था। यद्यपि शहर में रहते थे फिर भी शहर के लोगों के अलावा जीव-जन्तुओं के संसार से भी शुरू से ही परिचित रहे। फिर जब शहर में नहीं रहते थे जिस का मौक़ा अकसर होता था क्योंकि पिताजी का काम तो पुरातत्त्व का था। वह हमेशा कहीं-न कहीं देहात में, जंगलों में, खण्डहरों में खुदाई करवाते रहते थे। प्रकृति का निकट साहचर्य बहुत मिलता रहा और अकेले रहने का भी काफ़ी, उस को सुयोग ही कहना चाहिए, संयोग सिर्फ़ नहीं था, वह भी मिलता रहता।
बाकी बचपन की यादों में पढ़ाई की उतनी स्मृतियाँ नहीं हैं जितनी पशु-पक्षियों की हैं। पिता जी को भी जानवरों के पालने का शौक़ था। गाय और घोड़ा तो ख़ैर सामान्य बातें हैं। लेकिन मोर भी पाले गये, घर में, एक बार हिरण भी पाला गया, खरगोश पाले गये, चकोर पाला गया। ये सब पक्षी पिंजरों में नहीं रखे जाते थे, खुले रखे जाते थे। परिचित हो जाते थे इस लिए घर में ही घूमते रहते थे। हिरण भी इसी तरह खुला फिरता था। यद्यपि शहर में रहते थे फिर भी शहर के लोगों के अलावा जीव-जन्तुओं के संसार से भी शुरू से ही परिचित रहे। फिर जब शहर में नहीं रहते थे जिस का मौक़ा अकसर होता था क्योंकि पिताजी का काम तो पुरातत्त्व का था। वह हमेशा कहीं-न कहीं देहात में, जंगलों में, खण्डहरों में खुदाई करवाते रहते थे। प्रकृति का निकट साहचर्य बहुत मिलता रहा और अकेले रहने का भी काफ़ी, उस को सुयोग ही कहना चाहिए, संयोग सिर्फ़ नहीं था, वह भी मिलता रहता।
शरारतें-1
एक घटना मुझे याद आती है। मैंने कभी कहीं सुना था कि किसी के पक्का होने
की बहुत प्रशंसा की जा रही थी। पक्का होना क्या होता है यह तो मैं ठीक
समझता नहीं था। लेकिन शरीर पक्का हो सकता है या चोट लगे तो उस को सहने में
धैर्य है और यह भी पक्केपन की एक निशानी है, ऐसी बातों को जानता था। मैं
अपना माथा पक्का करने के लिए एक कुर्सी की पीठ पकड़ कर बार-बार यों उस से
टक्कर मारते हुए तब माथा पक्का किया करता था। तो एक दिन ऐसा हुआ कि हमारे
मास्टर साहब आ गये। उन्होंने पूछा, यह क्या कर रहे हो ? मैंने कहा, माथा
पक्का कर रहा हूँ। उनको हँसी आयी तो कहने लगे, देखें कि कितना पक्का है,
तो मैंने कहा ऐसे क्या देखेंगे, टक्कर मार कर देखिए तो देख सकते हैं।
उन्हें नहीं मालूम था कि मुझसे टक्कर लगाने का उन के लिए क्या असर हो सकता
है। लेकिन मैंने जोर से जो टक्कर मारी तो उन का सिर चकरा गया। फिर उस के
बाद वह वैसी स्थिति नहीं रही कि वह मास्टर साहब रहे और मैं छात्र रहूँ। तो
वह भी पढ़ाना छोड़ कर चले गये। इस तरह की तो घटनाएँ होती रहती थीं।
शरारतें-2
एक और ऐसी घटना याद आती है कि पिता का एक रसोइया था जिस के हाथ की रसोई उन
को बहुत पसन्द थी। लेकिन मैं और मेरे भाई, हम लोगों की दुष्टता की कोई
सीमा नहीं थी। जहाँ की यह घटना है, वहाँ नालन्दा में, एक अमराई में एक
डाक-बँगला में पिता जी रहते थे। वहाँ भी रसोई का एक छोटा सा क्वार्टर अलग
था। हम लोग अमराई में आम के पेड़ों पर चढ़ कर रसोई की छत पर कूद जाते थे।
ऐसा कोई भोजन को बिगाड़ने का इरादा तो नहीं था लेकिन ऊपर जो चिमनी थी उस
में मुट्ठी भर-भर कर मिट्टी डाला करते थे। यह भी नहीं मालूम था कि अन्दर
गिरेगी तो अन्दर जो रसोई हो रही है उस में पड़ जायेगा। दो-चार बार ऐसा हुआ
तो उसके बाद भोजन पर बैठे तो भोजन की हर एक चीज में किरक थी। मिट्टी पड़ी
थी। कभी-न-कभी रसोइये ने कुछ खोल कर देखा होगा ठीक उसी समय, वैसे भी धूल
बरसती रही होगी और पिता जी को उस से बहुत कष्ट होता था और क्रोध भी होता
था। उन्होंने एक बार तो थाली उठा कर फेंक दी। रसोइये को बुलाया और कहा कि
तुम ठीक से साफ़ नहीं करते दाल-चावल। हर एक चीज़ में मिट्टी होती है।
रसोइया बेचारे ने हम लोगों की शिकायत नहीं की और चुपचाप सुन लिया। लेकिन
दो-चार बार ऐसी घटना घटने के बाद दुःखी हो कर नौकरी छोड़ कर चला गया। खैर
स्थितियाँ बदल गयीं। हम लोगों के लिए भी यह खेल कुछ ऐसा आकर्षक नहीं रहा।
पिता जी उस की रसोई को और उसको वर्षों तक याद करते रहे। उनके कोई दस बरस
बाद, यह बात नालन्दा की थी, पिता जी का तबादला दक्षिण में हो गया था।
दक्षिण से एक बार यात्रा पर वह अकेले ‘पुरी’ गये थे।
वहाँ से लौट कर उन्होंने बताया कि वही रसोइया उन को मिला था। वहीं पुरी
में वहाँ के महन्त के यहाँ काम कर रहा था। बड़े आदर से पिता जी से मिलने
आया। पिताजी ने बताया कि हम ने कोशिश की थी उसको वापस बुलाने की पर वह
नहीं आया। तब जिस ढंग से बातचीत हो रही थी उससे कुछ साहस भी हम लोगों का
बढ़ गया था। हमने कहा कि उसके बारे में एक बात हम आपको बतलाना चाहते हैं,
आप को अभी तक मालूम नहीं है। उनको याद दिलायी उस रसोई में भोजन में किरक
निकलने की घटना की। बताया कि वह किरक उसमें इसलिए होती थी कि हम ऊपर से
मिट्टी डालते रहते थे रसोईघर में। तब उन के मन में बहुत पश्चात्ताप हुआ कि
उन्होंने क्यों उस को बेकसूर डाँटा। बात भी इतनी पुरानी हो गयी थी, हम लोग
बड़े भी हो गये थे, इसलिए हम लोगों को क्या कहते ! वह देख रहे थे कि हम भी
कुछ लज्जित हैं अपनी करनी से। लेकिन प्रायः वह याद करते तो कहते थे, बहुत
अच्छा आदमी था। उसको हमने नाहक ऐसे निकाल दिया और उस बेचारे को इतना दुःख
दिया जबकि उस का कोई दोष नहीं था। पिताजी में यह बात तो थी कि क्रोध उनको
बहुत जल्दी आता था लेकिन बड़ी जल्दी शान्त भी हो जाता था। फिर उन्हें इस
बात की बहुत चिन्ता होती थी कि जिस पर हम ने क्रोध किया उसकी कुछ प्रशंसा
भी करना चाहिए, उसको फिर से प्रसन्न करना चाहिए। फिर वह नौकर हो या बच्चा
हो या कोई भी हो। जब तक उन्हें यह सन्तोष न हो जाये कि अपने क्रोध का सर्व
हम ने ढोह दिया तब तक उनको शान्ति नहीं होती थी।
पहले नाटक की अनुभूति
हाँ, शुरू के अनुभवों में एक और कुछ अलग ढंग का अनुभव है सबसे पहला नाटक
देखने का। वहीं नालन्दा में। वहाँ तो खैर कुछ था नहीं, खुदाई हो रही थी।
लेकिन वहाँ से कुछ दूर पर एक गाँव था-बडगाँव। तब तो कुछ छोटा ही था, अब तो
बड़ा हो गया है। वहाँ पर कभी-कभी बिहार शरीफ से कोई छोटी-छोटी नाटक मण्डली
आती थी तो नाटक होता था। तो इस बार एक नाटक मण्डली ने सत्य हरिशचन्द्र
नाटक प्रस्तुत करने का निर्णय किया। पिताजी उस इलाक़े के बड़े नागरिकों
में गिने जाते थे, इसलिए जब नाटक का आयोजन हुआ तो स्थानीय लोग पिता जी से
भी चन्दा माँगने आये। उन्होंने चन्दा दिया भी, गाँव के हिसाब से
अच्छा-खासा चन्दा था। उसका एक असर यह भी हुआ कि बच्चे या हम तीनों भी नाटक
देखने के लिए यथासमय आमन्त्रित हुए। पिताजी तो नहीं गये। हम लोग गये। मेरे
लिए वह पहला ही नाटक था। आज उसकी बात याद करूँ तो हँसी भी आती है लेकिन तब
उस का बहुत गहरा असर हुआ था। क्यों कि तब नाटक और यथार्थ में भेद करने
योग्य बुद्धि नहीं थी। जब यह देख रहा था तो मान रहा था कि सचमुच में यह
घटित हो रहा है। उस में जब यह दृश्य आया जहाँ बच्चे को साँप डसता है तब
मुझसे नहीं सहा गया और मैं ने वहीं रोना शुरू किया। और ज़ोर-ज़ोर से रोने
लगा, इतना कि दूसरों के लिए भी कष्टकर हो गया। तब वहाँ से उठा कर मुझे
बाहर ले जाया गया, लेकिन रास्ते भर मैं रोता रहा और घर पहुँचने तक हिचकी
बढ़ गयी और रात में भी ठीक से सो नहीं सका। बार-बार जाग कर यही दोहराता कि
उसको साँप ने डस लिया। लेकिन जो देखा था शायद वह भी बता देना रोचक हो। उन
दृश्यों में बच्चे को साँप डसता है और बच्चा गाने लगता है। जो उसने गाया
वहाँ पर, उसके बोल भी मुझे याद हैं। यह मालूम नहीं कौन सा यह नाटक था, किस
का लिखा हुआ नाटक था जो दिखाया गया। लेकिन उस में गीत था, ‘साँप
ने मुझ को डस लिया, हाय गजब सितम गजब।’ और जो उसके साथी थे अनपत
और गनपत ‘अनपत-गनपत भाइयो, माता को हाल सुनाइयो। रोहित तो तेरा
चल बसा, हाय गजब सितम गजब।’ तो यह हाय गजब, सितम गजब मंच पर हो
रहा था। हम इस सारी घटना को सच मान कर बिलकुल बेबस हो कर रो रहे थे और
रोते हुए घर पहुँचाये गये। उसके बाद तो धीरे-धीरे समझ में आ गया कि नाटक
नाटक होता है और यथार्थ अलग चीज़ होती है
क्रान्ति के बीज-1 : दीवाली
जब कुछ पढ़ना-लिखना ज़्यादा करने लगे थे तो समझ भी आने लगी थी। तब कुछ
पुस्तक ऐसी भी मिली थी जिस में तरह-तरह के जादू, करतब, खेल और बच्चों की
रुचि की चीज़ों का वर्णन था। आतिशबाजी का उल्लेख भी था। बारूद बनाने की
विधियाँ भी दी हुई थीं और उसी की सहायता से धीरे-धीरे गन्धक और शोरा सब
किस्तों में ख़रीद कर मैंने बारूद वगैरह बनाना भी शुरू किया। वह ऐसी जगह
तो थी जहाँ दीवाली तो उत्साह से मनाते थे लेकिन कोई दीवाली मनाने वाला
समाज नहीं था। अकेले ही यह सब काम करना होता था। दीवाली के लिए सारी
मिठाइयाँ भी घर पर ही बनती थीं। हम लोग ही बनाते थे। उसके कारण पाक-विद्या
में कुछ गति हुई। मिठाई-विठाई वगैरह बनाना शुरू किया, भोजन तो बनाते ही थे
और आतिशाबाजी भी घर पर ही बनती थी। बाज़ार में मुश्किल से ही कोई चीज़
मिलती थी और दक्षिण में तो दीवाली का कोई ख़ास महत्त्व नहीं था इसलिए और
भी कठिनाइ होती थी। लेकिन जब बनाने ही लगा तो फिर सिर्फ़ पटाखे या कि अनार
बनाने से सन्तोष नहीं हुआ। एक बार मैंने एक कथा भी गढ़ी और आतिशाबाजी का
वैसा उपयोग किया जैसा आज आवाज़ का किया जाता। पूरा एक युद्ध का दृश्य
मन-ही-मन रचा और बांस के टुकड़े काट कर धागे की रोलों के ऊपर उन को रख कर
तोपें बनायीं। उनमें बारूद भरकर बत्ती लगा कर व्यवस्था की। फिर कई जगह
बारूद दाब दिया गया और एक मिट्टी का क़िला बनाया।
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लोगों की राय
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