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नारी विमर्श >> महाश्वेता

महाश्वेता

सुधा मूर्ति

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1707
आईएसबीएन :81-7315-337-x

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प्रस्तुत है महाश्वेता...

Mahashweta

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

एक ‘शादी का प्रेमपूर्वक आह्वान’ मेरी साहित्यिक जिंदगी में उत्साह लाकर इस दूसरी आवृत्ति का कारण बना है।
मेरे पास आए ‘आमंत्रण’ ने सामान्य होते हुए भी असामान्य परिणाम किया है। आमंत्रण के साथ एक छोटा कागज भी था—
‘‘आपकी महाश्वेता’ पढ़ कर आनंदित हो गए। अपने बेटे के लिए अच्छी बहू ढूंढ़ी थी। बेटा झिझका। ‘नहीं’ कहा। लड़की कई सालों से परिचित थी। हम सबों को बहुत बुरा लगा। लड़की मुरझाई। आपका उपन्यास छुट्टी में आया। बेटे ने पढ़ लिया। एक हफ्ते बाद खुद आगे आकर हाँ कर दी। लड़की की माँ को ‘सफेद दाग’ था। मेरा बेटा, सफेद दाग के पीछे कितना दर्द है, समझ गया था। आपके उपन्यास में हमें तृप्ति और संतुष्टि मिली है। इस शादी में जरूर उपस्थित रहें, यह हमारी आग्रहपूर्वक विनती है।’
मैंने चौंककर इस पर विश्वास नहीं किया, ‘यह संभव है क्या ?’ मेरे बड़े सहयोगी श्री जी.आर.नायक जी से पूछा। उन्होंने ‘यह संभव’ है कहा। मेरी कहानियों में वे अपार आस्था रखते हैं। हृदय से आनंद महसूस करते हैं।
एक उपन्यास जन-जीवन पर असर डालती है। इस बात का सही साक्ष्य है यह। यही मेरी लेखनी की स्फूर्ति है।
मेरा यही ‘गौरव-धन’ है। हमेशा की तरह पुस्तक खरीदकर पढ़नेवाले कन्नड़ बंधुओं को कृतज्ञताएँ !

सुधा मूर्ति

महाश्वेता


सुबह की शीत लहर आनंद के कपोलों को छू रही थी। उसके उद्वेग और आतंक से भरे हुए मन को एक अनोखी राहत महसूस हुई। पिछली रात के काम से आनंद बहुत थका हुआ था। माँ अपने नवजात शिशु को देखना चाहती थी, मगर वह बच्ची रो नहीं रही थी।
रात में मृत्युदेव से घमासान लड़ाई करती हुई माँ हृदय-रोग से पीड़ित तथा गर्भवती थी। उसने बच्ची को जन्म दिया था। गर्भवती की प्रसूति-कार्य में आनंद और उसके प्राध्यापक प्रो. देसाई जी ने कठिन परिश्रम किया था। उनके लिए यह नया अनुभव और सवाल था। इसी कारण वे पूरी रात जागे भी थे।

शल्य-चिकित्सा के बाद धरती पर उतरी ‘बच्ची’ रोना शुरु नहीं कर यक्ष-प्रश्न बन गई थी। नवजात शिशु के कोमल अधरों पर अपने रूखे अधरों को दबाते हुए कृत्रिम श्वासोंच्छवास करवाता हुआ आनंद अंत में शिशु के गले से हल्की सी आवाज निकलवाने में कामयाब हो गया।
देसाई साहब ने संतोष से हँसकर गहरी साँस ली। ‘बच्ची’ के रोने का सवाल ही नहीं है।
‘आनंद ! और थोड़ा रुलाओ।’ कहकर हाथ धोने चले गए। वहाँ मौजूद बच्चों के विशेषज्ञ डॉक्टरों ने कहा, ‘‘आनंद ! बच्ची है न ! जीएगी और आगे भी रोएगी’। ऐसा उद्गार व्यक्त करते हुए उन्होंने प्रस्थान किया। वहाँ रह गई माँ, आनंद और नर्स प्रभावती।

बच्ची जोर से चीख रही थी। प्रभावती मुस्कराई। प्रसूति-विभाग में ही समय बिताते उसके बाल सफेद हो गए थे। बच्ची जन्म काल में बेटे से अधिक शक्तिशाली है, ऐसा सोचती हुई वह अपने कामकाज में व्यस्त हो गई।
आनंद शिशु का जन्म-विवरण दाखिल करने लगा। समय, दिन माता-पिता, जात वगैरह-वगैरह। शिशु-जनन-प्रक्रिया में माता-पिता का पात्र भी बहुत महत्त्व का होता है, उसको ऐसा महसूस हुआ। हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि शिशु की माँ कौन है। मगर पिता वही होगा, जिसका नाम प्रसूति माँ बताएगी। कितनी विचित्र है। प्रसव स्त्री के लिए पुनर्जन्म ही है, पुरुष सिर्फ उसका प्रेक्षक होता है। बच्ची इस क्रिया-प्रक्रिया में चीख-चीखकर लाल हो रही थी।

आनंद ने अपनी घड़ी देखी। सात बज चुके थे। उसकी ड्यूटी का समय खत्म हो गया था। जल्दी घर पहुँच कर सोने की इच्छा हो गई। अपने हाथ धोकर ड्यूटी-कमरे से वह एप्रन लेकर बाहर आ रहा था तो नर्स प्रभावती मिल गई।
‘आनंद, प्रोफेसर साहब अपनी घड़ी भूल गए हैं। सिंक के पास थी। आप जाते वक्त उनको पहुँचा देना।’
आनंद को झट याद आया, शल्य-चिकित्सा के संभ्रम और आतंक में वे अपनी बहुमूल्य घड़ी भूल गए थे। घड़ी लेकर अस्पताल के बाहर खड़ी नई स्टील रंगवाली ‘ओपल आस्त्रा’ कार लेकर चला।

प्रो. देसाई की यह घड़ी बहुत प्रसिद्ध थी। इंग्लैंड में पढ़ाई करते समय यह घड़ी उनके गुरु जी ने दी थी। क्लास में पढ़ाते वक्त प्रो. देसाई अपने गुरु की शल्य-चिकित्सा के कौशल का वर्णन करते थे।
किसी शरारती छात्र ने एक बार उनसे पूछा, ‘सर, यह घड़ी आप किसके हाथ में बाँधेंगे ?’ तब उन्होंने कहा, ‘हाँ, बहुत अच्छा प्रश्न है, एम.बी.बी.एस में जो पहला स्थान प्राप्त करेगा, उसको यह घड़ी नहीं, दूसरी अपनी एच.एम.टी. दूँगा।’
आनंद ने फिर घड़ी देखी। उसके हाथ में एच.एम.टी. घड़ी केवल घड़ी ही नहीं थी, बल्कि गुरु जी की अंतःकरण-पूर्वक दिया हुआ उपहार था। अपने घर जाने का विचार छोड़कर प्रो. देसाई के घर की तरफ कार मोड़ते हुए उसने यह सोचा कि प्रोफेसर साहब अपनी घड़ी के लिए परेशानी से व्याकुल होंगे।

प्रो. देसाई की पत्नी वसुमती हॉल में बैठी रेडियो सुन रही थीं। आनंद को देखते ही उन्होंने कहा, ‘आओ, आओ। इतनी सुबह में ! घर से या अस्पताल से ?’
‘अस्पताल से। सर यह घड़ी भूल आए थे। इसे लौटाने आया हूँ।’
वसुमती मुस्करायी और कहा, ‘आनंद, चाय पीकर जाओ। घड़ी का इतिहास तो मुझे पता ही है। ‘वसुमती उठी। आनंद उनका दूर का रिश्तेदार लगता था।
आनंद ने कहा, ‘नहीं, घर में माँ इंतजार कर रही होगी।’

आनंद प्रो. देसाई का लाडला शिष्य था। अगर देसाई की बेटी होती तो वह निश्चय ही आनंद को दामाद बना लेते। अस्पताल की वर्दी उतारकर नाइट ड्रेस पहनकर आनंद गेस्ट रूम के बिस्तर पर लेट गया। जीवन में निद्रा अत्यंत सुखमय है। आँख मूँदी ही थी कि कि एक स्त्री का स्वर सुनकर चौंक गया। आवाज थी, ‘हे प्रिय ! तुम कितने सुंदर हो ! साक्षात मन्मथ हो। तुम्हें देखते ही मैं तुम्हारे प्रेमपराश में फँस गई।’ उसने आश्चर्य से देखा तो कोई दीख नहीं रही थी।
आनंद एक सुंदर पुरुष है, यह जाहिर था। गौरवर्ण, ऊँचा कद, घुँघराले काले बाल, आकर्षक रूप। आनंद कॉलेज में ‘मन्मथ’ और ही ‘हीमैन’ की उपाधि से पहचाना जाता था। लड़कियाँ उसके बारे में क्या-क्या बात करती हैं, यह आनंद को पता था। स्वभावतः गंभीर प्रकृति का होने की वजह से भी लड़कियाँ उसको गौतम, शुकमुनि कहकर मजाक करती थीं।
‘क्यों नलिनी, शुकमुनि जी के वार्ड में तुम्हारी तरफ ही देख रहे थे !’
‘सुमा और गौतम ऋषि की एक ही वार्ड में ड्यूटी ! ऑल द बेस्ट।’

‘क्यों जलती हो ? वे हमारे मित्र होते हुए एक बार भी हमारे घर नहीं आए। ‘मन्मथ’ उपाधि के संबंध में उनकी मौसी जी की बेटी अनुसूमा से पता चला।’
आनंद ने आइने में अपना मुंह देखा। रात की थकावट के बावजूद आँखें तेजोद्दीप्त थीं। मैंने किसकी सुमधुर सुरीली आवाज सुनी होगी, वह सोचने लगा।
आनंद श्य्या पर लेटकर बेसब्री से इंतजार कर रहा था। निःशब्द वातावरण, चूड़ियों की खनखनाहट, मुझे लक्ष्य कर किसने बात की होगी ? फिर सोने की कोशिश कर रहा था। फिर वही सुमधुर कंठ सुनाई पड़ा।
‘यह सुंदरांग देखते ही मोहपाश में बंध गई। मन्मथ-रूपी पुरुष में अनुरक्त हो गई। ये मेरा हाथ थामे, ये ही मेरी पति बने। यही मेरी जन्मांत की कामना है।’

फिर नितांत शांत वातावरण। दीवारों से तो शब्द नहीं निकले ? चादर फेंककर आनंद दीवार से कान लगाकर सुनने लगा।
‘प्रेम बाजार से खरीदी जाने वाली चीज नहीं है। दुकान पर रखकर बेचनेवाली वस्तु भी नहीं है। एक व्यक्ति पर पहली नजर पड़ते ही उसके सुख-दुःख में सम्मिलित होकर उसके साथ जिंदगी बिताने की उत्कट अभिलाषा, कामना अपने–आप मन में पैद हो जाती है, जिसमें जिंदगी के, समाज के सारे बंधन तोड़कर उसको पाना ही एक लक्ष्य हो जाता है। यह कोई भी हो, कहीं भी हो, कैसे भी हो, मेरा प्रेम अचल है, हिमालय जैसा अटल है, सागर जैसा गहरा है और मानसरोवर जैसा साफ है।’

प्रेम पर इतना अच्छा व्याख्यान सुनकर आनंद को अचरज हुआ। कोई भी हो, किसी के लिए भी हो, इतनी सुंदर भाषा में, सुंदर स्वर में अपने प्रेम का निवेदन करने वाली कौन होगी ?
इतने में सुबक-सुबक कर रोने के आक्रंदन ने आनंद के प्रेम-स्वप्न को भंग कर दिया।
‘चाँद को जैसे रोहिणी, सूरज को जैसे कमल, नारायण को जैसे लक्ष्मी, वृक्ष को जैसे लता है, मैं इसके लिए हूँ।

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