नई पुस्तकें >> बेरोजगारी का छतरा बेरोजगारी का छतराप्रो. मनु
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प्रकृति की गोद में संघर्ष और इश्क़ का आलाप: बेरोज़गारी का छतरा – प्रो. मनु के नये संग्रह का स्वर...
प्रकृति हमें सृजित करती है और मनुष्य बनने में अहम भूमिका निभाती है । हम इससे सम्बद्ध रहकर ही अपनी मनुष्यता का फ़लक ऊँचा रख सकते हैं और लिख सकते हैं संघर्ष और इश्क़ की इबारतें। प्रो. मनु के नये संग्रह बेरोज़गारी का छतरा की कविताओं का यही मूल स्वर है और अपने इस मूल स्वर के ज़रिये वे अपनी दृष्टि और संवेदना का जो परिचय देते हैं, वह अपने अर्थबोध में गहरा प्रभाव डालता है।
‘परिन्दा इन्सान की तरह/पौधा नहीं लगाता है/ मगर इन्सान से कई गुना / ज़मीन को बचाते हुए / जंगल बसा देता है’… तब भी हम जंगल काटते जा रहे और संकट में डाल रहे न सिर्फ़ मानव बल्कि पंछियों की तरह जाने कितने जीवों को। इसलिए कवि कामना करता है कि कोई ‘लौटा दे हमें अपना बचपन’ जहाँ पहाड़, नदियाँ, जंगल, बारिश की तरह बहुत – बहुत कुछ शेष । इस आधुनिक दुनिया में कवि की एक बड़ी चिन्ता यह भी है कि आबादी की आज जो मैराथन दौड़ है, यह ख़तरे से ख़ाली नहीं, इससे सुविधाएँ तो कम पड़ती ही हैं, विकास भी अवरुद्ध हो जाता है। ऐसे में बदहाली और बेरोज़गारी का जो दौर शुरू होता है, वह भूख और भविष्य दोनों को निगलने लगता है । अनपढ़ ही नहीं, जो पढ़े-लिखे वे भी लम्बी क़तारों में खड़े नज़र आने लगते हैं, नज़र आने लगता है हर ओर बेरोज़गारी का छतरा । पलायन की टीस अपनों को रह-रहकर बेचैन करने लगती है । रोटी की तलाश में गया युवक ट्रेन हादसे का शिकार होता है और ‘लाशों के ढेर में, दूर से आया बूढ़ा / अपने बेटे को तलाशता है’ और ‘वह हर लाश को अश्क-भरी आँखों से/ताकते हुए / आगे बढ़ जाता है’, ढूँढता रहता है ।
जब स्थितियाँ इस तरह प्रतिकूल हों तो जो थोड़े सपने थोड़ा प्रेम, वही आसरा इस ठीहे जीने-रचने का क्योंकि उसकी नमी जड़ों को सींचती ही नहीं छाया भी देती है – ‘क्या कोई छोड़ दे मोहब्बत / गुरबत की ज़द से/परिन्दे फल बिन शजर पे भी अपना घोंसला बना लेते हैं ।’ ‘नदियाँ सूख जाती हैं/ सागर कभी सूखता नहीं ।’ ‘हरदम ख़ैरियत / पूछने की ताक़त / सिर्फ़ मोहब्बत में ही है।’ कवि के पास प्रेम के ऐसे कई शेड्स हैं जो जीवन के गाढ़े समय का माकूल दृश्य रचते हैं और अपने सरोकार को एक संवेदनात्मक घनत्व में मूर्त करते हैं ।
निस्सन्देह, इस संग्रह में अपने समय, समाज, सभ्यता, संस्कृति और व्यवस्था आदि के परिप्रेक्ष्य में ऐसी कई कविताएँ हैं जो रोज़ घटित उसे बहुत क़रीब से देखती और बयान करती हैं। इस उम्मीद के साथ कि ‘कई इंक़लाब / हमने देखे / कुकुरमुत्ते का इंक़लाब / हमें न चाहिए / हमें भूख का / झींगुर का इंक़लाब चाहिए वहाँ समझौता है कहाँ ? / दर्द-भरी घुटन में भी / हमें आस है/नये साल का !’
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