जीवनी/आत्मकथा >> युग भगीरथ श्री गुरुजी युग भगीरथ श्री गुरुजीनरेश भारतीय
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प्रस्तुत पुस्तक में सदाशिव राव गोलवलकर के जीवन चरित्र पर प्रकाश डाला गया है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिवराव
गोलवलकर ‘गुरुजी’ का यह सरल तथा प्रसंग वर्णनात्मक
जीवन-चरित्र है । आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राष्ट्र-कार्य देश भर में
फैला हुआ है । उस कार्य विस्तार का अधिकतम श्रेय श्री गुरु जी के नेतृत्व
को है। उनका जीवन त्यागमय तथा तपस्यामय था । एक महान व आदर्श
जीवन
पर केंद्रित महत्त्वपूर्ण पठनीय कृति।
आमुख
मेरे जीवन में परिवर्तन श्रीराम की कृपा से हुआ। तुलसी ने कहा
है-‘बिनु सतसंग बिबेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई
।’
बाल्यकाल से ही ‘मातुपितारहित’ चंचल बालक को ऐसे
व्यक्तियों
का साथ मिला, जिनमें प्ररित करने की क्षमता थी, जो सन्मार्ग पर चलने के
लिए प्रोत्साहित करते थे जिन्हें हिंदू जीवन-मूल्यों की समझ थी और उनपर
आस्था भी थी। इन अपार कृपालु मित्रों के अतिरिक्त जिनका मैं उल्लेख समय
आने पर करूँगा, दो व्यक्तियों के संपर्क से मेरा जीवन धन्य हो गया। एक तो
संपादकाचार्य श्री अंबिका प्रसाद बाजपेई, जिन्होने मेरी लेखनी
को
शक्ति प्रदान की, जिसके कारण मेरी भाषा धारदार और प्रभावी बनी; उन्हीं के
मार्गदर्शन में लेखक और संपादक बना।
दूसरे है परम पूज्य श्री मा.स. गोलवलकर ‘गुरूजी’। श्रीगुरुजी का सान्निध्य निरंतर होता था। वर्ष में यदा-कदा उनके साथ समय व्यतीत करने का अवसर प्राप्त हो जाता था। किंतु गुरूजी मनुष्य निर्माण करते थे – अर्थात मनुष्यों को संस्कारित करने के लिए पूर्णतया समर्पित थे । वे केवल समर्पित नहीं, वे अपने काम में कुशल थे। अल्प समय के साथ से ही वे पहचान लेते थे कि कौन किस मिट्टी का बना है और उस मिट्टी के अनुसार ही उसे रूप देते थे। गढ़ते थे। यह कार्य वे तैंतीस वर्षो तक करते रहे - निकट सम्पर्क द्वारा भाषणों द्वारा और पत्र-व्यवहार द्वारा। जिस प्रकार श्रीरामजी ने शिवजी को समर्थ रामदास से मिलवाया नरेन्द्र को पू, रामकृष्ण परमहंस से मिलवाया, उसी प्रकार मुझे भी पं. दीनदयालजी और गुरूजी का सन्निध्य और सत्संग प्राप्त कराया ।
श्री नरेश भारतीय ने श्रीगुरुजी के जीवन को एक विशेष दृष्टि से देखा है यह खोजने का प्रयास किया है कि उनके कौन से कार्य या उक्ति से उसका कौन सा गुण प्रकट होता है, जो नेतृत्व का गुण होना चाहिए । नेतृत्व के गुणों पर श्री गुरूजी ने भी अपने उदगार प्रकट किए हैं। नागपुर के श्री यादवराव जामदार ने एक पुस्तक लिखी- ‘‘राम एडं हिज पालिटिक्स’। उनके आग्रह पर श्रीगुरूजी ने उस ग्रन्थ की प्रस्तावना 2 दिसम्बर, 1949 को लिखी। उसके कुछ अंश उदधृत करना प्रासंगिक होगा।
दूसरे है परम पूज्य श्री मा.स. गोलवलकर ‘गुरूजी’। श्रीगुरुजी का सान्निध्य निरंतर होता था। वर्ष में यदा-कदा उनके साथ समय व्यतीत करने का अवसर प्राप्त हो जाता था। किंतु गुरूजी मनुष्य निर्माण करते थे – अर्थात मनुष्यों को संस्कारित करने के लिए पूर्णतया समर्पित थे । वे केवल समर्पित नहीं, वे अपने काम में कुशल थे। अल्प समय के साथ से ही वे पहचान लेते थे कि कौन किस मिट्टी का बना है और उस मिट्टी के अनुसार ही उसे रूप देते थे। गढ़ते थे। यह कार्य वे तैंतीस वर्षो तक करते रहे - निकट सम्पर्क द्वारा भाषणों द्वारा और पत्र-व्यवहार द्वारा। जिस प्रकार श्रीरामजी ने शिवजी को समर्थ रामदास से मिलवाया नरेन्द्र को पू, रामकृष्ण परमहंस से मिलवाया, उसी प्रकार मुझे भी पं. दीनदयालजी और गुरूजी का सन्निध्य और सत्संग प्राप्त कराया ।
श्री नरेश भारतीय ने श्रीगुरुजी के जीवन को एक विशेष दृष्टि से देखा है यह खोजने का प्रयास किया है कि उनके कौन से कार्य या उक्ति से उसका कौन सा गुण प्रकट होता है, जो नेतृत्व का गुण होना चाहिए । नेतृत्व के गुणों पर श्री गुरूजी ने भी अपने उदगार प्रकट किए हैं। नागपुर के श्री यादवराव जामदार ने एक पुस्तक लिखी- ‘‘राम एडं हिज पालिटिक्स’। उनके आग्रह पर श्रीगुरूजी ने उस ग्रन्थ की प्रस्तावना 2 दिसम्बर, 1949 को लिखी। उसके कुछ अंश उदधृत करना प्रासंगिक होगा।
(श्रीगुरूजी, समग्र दर्शन, खंड 2, पृष्ठ 158)
एक ऋषि एवं द्रष्टा के नाते वाल्मीकि ने उन लोगों की मनोरचना का ठीक
विश्लेषण किया था, जिनके लिए वे महाकाव्य की रचना कर रहे थे। उन्होंने
देखा कि लोग इस दुर्बलता से ग्रसित हैं कि श्रेष्ठ अवतार नाम स्मरण के लिए
है, न कि अनुकरण के लिए। इसका परिणाम यह होता है कि मनुष्य को
श्रेष्ठ बनने, परमात्मा के समान पूर्ण बनने, इस लोक में
चैतन्यपूर्ण
कार्यशीलता के द्वारा शुद्ध एवं समृद्धशाली जीवन-निर्माण करने
और
साथ-ही-साथ अवतार के द्वारा अभिव्यक्त सत्य का साक्षात्कार करने की
प्रवृत्ति-मनुष्य के सच्चे धर्म का दमन हो जाता है ।....
शिवाजी, लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी को अवतार की कोटि में रखकर, उन्हें निर्जीव पूजा का विषय बताने तक लोंगों की प्रवृत्ति बढ़ गयी। समस्त संकटों का स्वेच्छापूर्वक सामना कर और दुर्लध्य पर्वत सदृश बाधाओं को लाँघकर जीवन के शाश्वत मूल्यों एवं आदर्शों की प्रतिष्ठा करने वाले उनके जीवनादर्शों को हमने आँखों से ओझल कर दिया।
इसके पश्चात श्रीगुरूजी अपने लेख में उन गुणों का वर्णन करते हैं, जो प्रभु श्रीरामचंद्र में विद्यमान थे, जैसे-माता-पिता के प्रति भक्ति, भाइयों के प्रति स्नेह, पत्नी के प्रति प्रेम। जिन कठिनाइय़ों का उन्होंने सामना किया, माता-पिता तथा अर्धांगिनी का वियोग, बलशाली शत्रु, युद्ध और किस प्रकार अंत में अधर्म की शक्तियों पर विजय प्राप्त की।
आगे श्रीगुरूजी लिखते हैं ।– परन्तु मनुष्य और विशेषता मनुष्यों के नेता के जीवन का एक पक्ष और है – अपने समाज के प्रति कर्तव्य जिसका वह स्वयं घटक है। इस पक्ष की अभिव्यक्ति देश-काल परिस्थिति के अनुसार विभिन्न रूपों में होती है, जो नेता को उपदेशक, धार्मिक एवं सामाजिक सुधारक राजनीतिक प्रकाश-स्तंभ अथवा इन सबके सम्मिलित रूप में प्रस्तुत करती है। ....इतना ही कहना पर्याप्त है कि सभी परिस्थियों में सुख-दुःख में हमारे समाज ने इस महान् व्यक्ति से स्फूर्ति प्राप्त की है और सफलता प्राप्त करने में उससे मार्गदर्शन पाया हैं। वाल्मीकि द्वारा गाए गए श्री रामचंद्र के जीवन में इन समस्त रूपों की अभिव्यक्ति होती है.....महात्मा गांधी ने ‘राम राज्य’ का स्मरण दिलाकर लोगों को प्रेरित किया कि वे अपने को सुखी और आर्थिक अभाव से मुक्त करने के लिए प्रयास करें।
आगे इसी लेख में श्रीगुरूजी श्रीरामचंद्र के जीवन के कुछ पहलू गिनाते हैं-
परिस्थिति के आकलन करने की क्षमता, राजनीतिक सूक्ष्म दृष्टि राजनीतिज्ञता, अपना सबकुछ समर्पित कर जनसेवा का व्रत, दुष्टों का निर्दलन, दुष्टों के चुंगुल से निष्पाप लोगों की मुक्ति और रक्षा, धर्म का अभ्युत्थान अर्थात समाज की धारणा, जिससे विषमता का निर्मूलन, विभेदों में सामंजस्य परस्पर शत्रुओं का निवारण तथा विपुल विविधता में प्रकट होने वाले जन-जीवन में मौलिक एकता का साक्षात्कार...पूर्णतया शुद्ध व्यक्तित्व जीवन समाज के सुख-दुख में समरस होने की क्षमता और परिणताः स्वयं स्वीकृत आत्मसंयमी जीवन सत्य के प्रति के प्रेम, वचन पालन का संकल्प, फिर उसके लिए चाहे जो त्याग करना पड़े और जनहित सिद्धि के हेतु परिपूर्ण आत्मसमर्पण और सबसे महत्त्वपूर्ण बात समाज के धर्म एवं संस्कृति पर अटल निष्ठा।
श्रीगुरूजी के जीवन पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट दिखाई देता है कि जिन को उन्होंने श्रीराम के चरित्र में देखा, वे सभी उनके चरित्र में भी विद्यमान हैं। उनका जीवन पूर्णतया शुद्ध व्यक्तित्व जीवन था। वे इस जगत् में वैसे ही रहते थे जैसे सरोवर में कमल। वे परिस्थियों पर प्रभाव डालते थे,. किन्तु परिस्तियों से प्रभावित नहीं होते थे। कुछ अल्पज्ञ समझते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति मरण के पश्चात होती है । श्री गुरूजी मुक्त थे। ‘भगवान’ का सिद्धांत है कि मनुष्य प्रत्येक श्वास में स्वर्ग और मोक्ष का आनंद ले सकता है। जीते-जी वे मुक्त थे, देहधारी होते हुए भी विदेह थे, संसार में रहते हुए भी अनासक्त थे । आसक्ति बंधन हैं, अनासक्ति मोक्ष हैं ।
हिन्दू समाज के साथ वे इतने समररस थे कि अपने जीवन पर संकट की परिस्थिति में भी समाज के अन्य घटकों के विरुद्ध कोई काररवाई नहीं करने दी। जब गांधी हत्याकांड के बाद नागपुर में और अन्य स्थानों पर भीड़ एकत्र कर उनपर आक्रमण कराए गए तब भी उन्होंने अपने स्वयंसेवकों से यही कहा कि हमें अपने समाज का रक्त नहीं बहाना हैं, चाहे अपने प्राण ही क्यों न चले जाएँ ! जब 4 फरवरी 1948 को संघ पर प्रतिबंध लगाया गया तब श्रीगुरूजी ने पं नेहरू और सरदार पटेल से पत्र-व्यवहार किया। उनपर हत्या का आरोप लगाया गया। बाद में हत्या के और अन्य सभी अभियोग वापस ले लिए गए। इस प्रतिबंध काल में अनेक स्थानों पर कार्यालय लूटे गए, स्वयंसेवको को अपमानित किया गया, संघ पर आरोप लगाते हुए पुस्तिकाएं वितरित की गईं। अनेक प्रकार का दुष्प्रचार किया गया। जब 12 जुलाई 1949 को सरकार ने बिना शर्त प्रतिबंध हटा दिया उनके पश्चात् नागपुर दिल्ली पुणे अमृतसर, लखनऊ, पटना, कलकत्ता अहमदाबाद, राजकोट, मद्रास (चेन्नई) आदि स्थानों पर श्री गुरूजी के स्वागत में विशाल जनसभाँए हुई। लोग यह समझते थे कि श्रीगुरुजी क्रुद्ध होकर सरकार और शासकों के विरुद्ध कुछ कठोर बातें कहेंगे; किन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि श्रीगुरुजी ने किस प्रमाण में अपने को समाज के साथ समरस कर दिया हैं श्रीगुरूजी ने समाज के प्रति अपने अपार प्रेम का प्रदर्शन किया। वहीं मनोमालिन्य नहीं, कहीं दुर्भाव नहीं कोई कठोर वचन या अपशब्द नहीं। जिसके हृदय में केवल प्रेम का पारावार हो वहाँ घृणा कहाँ से जन्म ले। इस संदर्भ में उनके उदगार उदधृत करना उचित होगा-
शिवाजी, लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी को अवतार की कोटि में रखकर, उन्हें निर्जीव पूजा का विषय बताने तक लोंगों की प्रवृत्ति बढ़ गयी। समस्त संकटों का स्वेच्छापूर्वक सामना कर और दुर्लध्य पर्वत सदृश बाधाओं को लाँघकर जीवन के शाश्वत मूल्यों एवं आदर्शों की प्रतिष्ठा करने वाले उनके जीवनादर्शों को हमने आँखों से ओझल कर दिया।
इसके पश्चात श्रीगुरूजी अपने लेख में उन गुणों का वर्णन करते हैं, जो प्रभु श्रीरामचंद्र में विद्यमान थे, जैसे-माता-पिता के प्रति भक्ति, भाइयों के प्रति स्नेह, पत्नी के प्रति प्रेम। जिन कठिनाइय़ों का उन्होंने सामना किया, माता-पिता तथा अर्धांगिनी का वियोग, बलशाली शत्रु, युद्ध और किस प्रकार अंत में अधर्म की शक्तियों पर विजय प्राप्त की।
आगे श्रीगुरूजी लिखते हैं ।– परन्तु मनुष्य और विशेषता मनुष्यों के नेता के जीवन का एक पक्ष और है – अपने समाज के प्रति कर्तव्य जिसका वह स्वयं घटक है। इस पक्ष की अभिव्यक्ति देश-काल परिस्थिति के अनुसार विभिन्न रूपों में होती है, जो नेता को उपदेशक, धार्मिक एवं सामाजिक सुधारक राजनीतिक प्रकाश-स्तंभ अथवा इन सबके सम्मिलित रूप में प्रस्तुत करती है। ....इतना ही कहना पर्याप्त है कि सभी परिस्थियों में सुख-दुःख में हमारे समाज ने इस महान् व्यक्ति से स्फूर्ति प्राप्त की है और सफलता प्राप्त करने में उससे मार्गदर्शन पाया हैं। वाल्मीकि द्वारा गाए गए श्री रामचंद्र के जीवन में इन समस्त रूपों की अभिव्यक्ति होती है.....महात्मा गांधी ने ‘राम राज्य’ का स्मरण दिलाकर लोगों को प्रेरित किया कि वे अपने को सुखी और आर्थिक अभाव से मुक्त करने के लिए प्रयास करें।
आगे इसी लेख में श्रीगुरूजी श्रीरामचंद्र के जीवन के कुछ पहलू गिनाते हैं-
परिस्थिति के आकलन करने की क्षमता, राजनीतिक सूक्ष्म दृष्टि राजनीतिज्ञता, अपना सबकुछ समर्पित कर जनसेवा का व्रत, दुष्टों का निर्दलन, दुष्टों के चुंगुल से निष्पाप लोगों की मुक्ति और रक्षा, धर्म का अभ्युत्थान अर्थात समाज की धारणा, जिससे विषमता का निर्मूलन, विभेदों में सामंजस्य परस्पर शत्रुओं का निवारण तथा विपुल विविधता में प्रकट होने वाले जन-जीवन में मौलिक एकता का साक्षात्कार...पूर्णतया शुद्ध व्यक्तित्व जीवन समाज के सुख-दुख में समरस होने की क्षमता और परिणताः स्वयं स्वीकृत आत्मसंयमी जीवन सत्य के प्रति के प्रेम, वचन पालन का संकल्प, फिर उसके लिए चाहे जो त्याग करना पड़े और जनहित सिद्धि के हेतु परिपूर्ण आत्मसमर्पण और सबसे महत्त्वपूर्ण बात समाज के धर्म एवं संस्कृति पर अटल निष्ठा।
श्रीगुरूजी के जीवन पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट दिखाई देता है कि जिन को उन्होंने श्रीराम के चरित्र में देखा, वे सभी उनके चरित्र में भी विद्यमान हैं। उनका जीवन पूर्णतया शुद्ध व्यक्तित्व जीवन था। वे इस जगत् में वैसे ही रहते थे जैसे सरोवर में कमल। वे परिस्थियों पर प्रभाव डालते थे,. किन्तु परिस्तियों से प्रभावित नहीं होते थे। कुछ अल्पज्ञ समझते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति मरण के पश्चात होती है । श्री गुरूजी मुक्त थे। ‘भगवान’ का सिद्धांत है कि मनुष्य प्रत्येक श्वास में स्वर्ग और मोक्ष का आनंद ले सकता है। जीते-जी वे मुक्त थे, देहधारी होते हुए भी विदेह थे, संसार में रहते हुए भी अनासक्त थे । आसक्ति बंधन हैं, अनासक्ति मोक्ष हैं ।
हिन्दू समाज के साथ वे इतने समररस थे कि अपने जीवन पर संकट की परिस्थिति में भी समाज के अन्य घटकों के विरुद्ध कोई काररवाई नहीं करने दी। जब गांधी हत्याकांड के बाद नागपुर में और अन्य स्थानों पर भीड़ एकत्र कर उनपर आक्रमण कराए गए तब भी उन्होंने अपने स्वयंसेवकों से यही कहा कि हमें अपने समाज का रक्त नहीं बहाना हैं, चाहे अपने प्राण ही क्यों न चले जाएँ ! जब 4 फरवरी 1948 को संघ पर प्रतिबंध लगाया गया तब श्रीगुरूजी ने पं नेहरू और सरदार पटेल से पत्र-व्यवहार किया। उनपर हत्या का आरोप लगाया गया। बाद में हत्या के और अन्य सभी अभियोग वापस ले लिए गए। इस प्रतिबंध काल में अनेक स्थानों पर कार्यालय लूटे गए, स्वयंसेवको को अपमानित किया गया, संघ पर आरोप लगाते हुए पुस्तिकाएं वितरित की गईं। अनेक प्रकार का दुष्प्रचार किया गया। जब 12 जुलाई 1949 को सरकार ने बिना शर्त प्रतिबंध हटा दिया उनके पश्चात् नागपुर दिल्ली पुणे अमृतसर, लखनऊ, पटना, कलकत्ता अहमदाबाद, राजकोट, मद्रास (चेन्नई) आदि स्थानों पर श्री गुरूजी के स्वागत में विशाल जनसभाँए हुई। लोग यह समझते थे कि श्रीगुरुजी क्रुद्ध होकर सरकार और शासकों के विरुद्ध कुछ कठोर बातें कहेंगे; किन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि श्रीगुरुजी ने किस प्रमाण में अपने को समाज के साथ समरस कर दिया हैं श्रीगुरूजी ने समाज के प्रति अपने अपार प्रेम का प्रदर्शन किया। वहीं मनोमालिन्य नहीं, कहीं दुर्भाव नहीं कोई कठोर वचन या अपशब्द नहीं। जिसके हृदय में केवल प्रेम का पारावार हो वहाँ घृणा कहाँ से जन्म ले। इस संदर्भ में उनके उदगार उदधृत करना उचित होगा-
(श्रीगुरूजी, समग्र दर्शन, खंड 2, पृष्ठ 67 और आगे)
हमारे सरकार के साथ प्रामाणिक मतभेद हैं, यह सत्य है; परंतु
मतभेद
सर्वस्त्र रहते हैं। घर में भी मतभेद रहते हैं। ऐसा होने पर भी
भिन्नता में एकता देखकर चलना, यही तो लोकतंत्र की कसौटी हैं और हम इस
कसौटी का पालन करते हैं।
परंतु यह हमारा दृष्टिकोण रहा, हमारी सरकार की दृष्टि भिन्न थी। उसे संघ के आंदोलन में कुछ दिखाई दिया, इसलिए पशु-बलि से कुचल डालने का प्रयास किया ।....बीच में कुछ अप्रिय घटनाएं घटीं, उनके बारे में प्रत्यक्ष अधिक कुछ न कहना मैं उचित समझता हूँ कुछ हिंसा हुई, अपप्रचार हुआ, झूठी-मूठी खबरें तथा बदनाम करने को पुस्तिकाएँ प्रचारित की गई और विशेष यह कि सारी हिंसात्मक बातें अहिंसा के पुजारी के नाम पर की गई। ये सारी घटनाएं भरतीयत्व को कलंकित करनेवाली थीं। उनसे भारत के गौरव में तनिक भी वृद्ध नहीं हुई है ।
इन सारी अप्रिय घटनाओं को भूल जाना कठिन हैं, फिर भी उन्हें भुलाना अधिक लाभदायी है; क्योंकि उनके सूत्रधार अपने ही लोग हैं । वे पथभ्रष्ट हों, विरोधी हों, फिर भी अपने ही भाई हैं। हम उनके कर्म भूल जाएँ।.... ऐसा सदभाव प्रकट करने का सौभाग्य अब तो संघ के स्वयंसेवकों को निश्चित रूप से प्राप्त हुआ है।.... इसलिए उन अप्रिय घटनाओं को अपने हृदय से बाहर निकाल डालें। देश और समाज की सेवा करना अपना कर्तव्य मानकर हम संघ कार्य करते आए हैं। उन पवित्रतम ध्येय तथा कर्तव्य से प्रेरणा ग्रहण कर हम अपने कार्य में पुनः जुट जाएँ ।......
परंतु यह हमारा दृष्टिकोण रहा, हमारी सरकार की दृष्टि भिन्न थी। उसे संघ के आंदोलन में कुछ दिखाई दिया, इसलिए पशु-बलि से कुचल डालने का प्रयास किया ।....बीच में कुछ अप्रिय घटनाएं घटीं, उनके बारे में प्रत्यक्ष अधिक कुछ न कहना मैं उचित समझता हूँ कुछ हिंसा हुई, अपप्रचार हुआ, झूठी-मूठी खबरें तथा बदनाम करने को पुस्तिकाएँ प्रचारित की गई और विशेष यह कि सारी हिंसात्मक बातें अहिंसा के पुजारी के नाम पर की गई। ये सारी घटनाएं भरतीयत्व को कलंकित करनेवाली थीं। उनसे भारत के गौरव में तनिक भी वृद्ध नहीं हुई है ।
इन सारी अप्रिय घटनाओं को भूल जाना कठिन हैं, फिर भी उन्हें भुलाना अधिक लाभदायी है; क्योंकि उनके सूत्रधार अपने ही लोग हैं । वे पथभ्रष्ट हों, विरोधी हों, फिर भी अपने ही भाई हैं। हम उनके कर्म भूल जाएँ।.... ऐसा सदभाव प्रकट करने का सौभाग्य अब तो संघ के स्वयंसेवकों को निश्चित रूप से प्राप्त हुआ है।.... इसलिए उन अप्रिय घटनाओं को अपने हृदय से बाहर निकाल डालें। देश और समाज की सेवा करना अपना कर्तव्य मानकर हम संघ कार्य करते आए हैं। उन पवित्रतम ध्येय तथा कर्तव्य से प्रेरणा ग्रहण कर हम अपने कार्य में पुनः जुट जाएँ ।......
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