नई पुस्तकें >> कबीर कबीरक्षितिमोहन सेन शास्त्री
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अवधू बेगम देस हमारा।
राजा रंक फकीर बादशा, सबसे कहीं पुकारा॥
जो तुम चाहो परम पदे को, बसिहो देस हमारा।
जो तुम आए झीने होके, तजो मन की भारा॥
ऐसी रहन रहो रे प्यारे, सहज उतर जाव पारा।
धरन अकास गगन कुछ नाहि नहीं चंद्र नहीं तारा॥
सत्त धर्म्म की हैं महताबे, साहब के दरबारा।
कहैं कबीर सुनो हो प्यारे, सत्त धर्म्म है सारा॥
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कबीर द्वैतवादी या अद्वैतवादी नहीं थे। उनके मतानुसार समस्त सीमाओं को पूर्ण करने वाला ब्रह्म समस्त सीमाओं से परे है-सीमातीत। उनका ब्रह्म काल्पनिक (Abstract) नहीं है, वह एकदम सत्य (Real) है; समस्त जगत उसका रूप है। समस्त विविधता (वैचित्र्य) उस अरूप की ही लीला है। किसी कल्पना के द्वारा ब्रह्म का निरूपण करने की आवश्यकता नहीं; ब्रह्म सर्वत्र विराज रहा है, उसे सहज के बीच विन्यस्त (निमज्जित) करना होगा। कहीं आने-जाने की आवश्यकता नहीं है। जैसा है, ठीक वैसा रहकर ही उसमें प्रवेश करना साधना है।
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