आलोचना >> जैनेन्द्र और नैतिकता जैनेन्द्र और नैतिकताज्योतिष जोशी
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हिन्दी कथा साहित्य में अपनी विविध सृजनात्मक समृद्धि के कारण जैनेन्द्र प्रेमचन्द के बाद सबसे बड़े कथाकार के रूप में समादृत हैं। प्रेमचन्द के जीते जी जैनेन्द्र ने कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से एक नयी परम्परा शुरू की जो उनके समानान्तर एक नूतन धारा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। यह धारा प्रेमचन्दीय परम्परा की इतिवृत्तात्मकता से अलग भाषा, भाव और शिल्प के नये प्रयोग पर तो आधारित थी ही, इसमें नये युग की चुनौतियों के समकक्ष भारतीय पुरुषों और स्त्रियों की भागीदारी को भी परिभाषित करने का प्रयास हुआ। हिन्दी में जैनेन्द्र ने पुरुषों के समकक्ष स्त्रियों को खड़ा किया और उसे स्वतन्त्रता के साथ जीने की छूट दी। स्त्री स्वतन्त्रता का पहला स्वीकार जयशंकर प्रसाद के यहाँ दिखाई देता है जिसे जैनेन्द्र ने न केवल आगे बढ़ाया, वरन् उससे जुड़ी सामाजिक रूढ़ियों पर प्रह्यर भी किया। जैनेन्द्र का यह सारा संघर्ष ‘‘नैतिकता” की उस परम्परा से है जिसका सदियों से प्रभुत्व रहा है और जिसे छेड़ने की हिम्मत किसी भी अन्य लेखक ने नहीं दिखाई। वस्तुतः नैतिकता ही वह धुरी है जिस पर जैनेन्द्र ने अपनी सारी बहस केन्द्रित की है और अपनी रचनाओं को उसका क्षेत्र बनाया है। यह उनकी रचनाओं में सबसे बड़ा प्रश्न भी है और समूची बहस का मुद्दा भी। यह पुस्तक पहली बार जैनेन्द्र को सम्पूर्णता में देखने की कोशिश करती है जिसमें हिन्दी उपन्यास के आरम्भ से लेकर बीसवीं शताब्दी के समापन तक भारतीय समाज और विशेषकर, हिन्दी क्षेत्र की बुनियादी सामाजिक संरचनाओं की पड़ताल देखी जा सकती है। इसमें ‘जैनेन्द्र की कृतियों में नैतिक चिन्ता’, ‘स्त्री की स्वतन्त्रता : प्रेम और परिवार’, ‘वास्तविकता और आकांक्षा का बन्द’, मानवीय सम्बन्ध और नये मूल्यों की खोज’ तथा ‘जीवन का आशय और आकुलता का तनाव’ जैसे विश्लेषणपरक निबन्धों के माध्यम से एक ऐसे जैनेन्द्र से साक्षात्कार होता है जो अपनी पुरानी छवि तथा पूर्वग्रहग्रस्त मूल्यांकन से सर्ववा अलग आभा से दीप्त हो उठते हैं। जैनेन्द्र को समझने और उनके साहित्य तथा चिन्तन को आज के सन्दभों में देखने की कोशिश करती ‘जैनेन्द्र और नैतिकता’ उन सब पाठकों को अवश्य पसन्द आएगी जो विचार की दुनिया में जीने के कायल हैं और जो तर्क पर आधारित विश्लेषण में यक़ीन रखते हैं।
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