नई पुस्तकें >> जलाक जलाकसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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सुदर्शन प्रियदर्शिनी के उपन्यास का द्वितीय संस्करण
हम चारों बहन भाइयों की नज़रों में पिता कहीं बहुत बड़े हो गए थे।
रात्रि के लगभग 10 बजे हम अमेरिका पहुँच गए थे। पिता के एक मित्र हमें लेने आने वाले थे। ये सारा ताम-झाम उन्हीं का ही तो था। सभी उन्हें देखने को उत्सुक आँखें बिछाए थे।
वह एयरपोर्ट पर पहले से ही मौजूद थे। सीढ़ियों पर से उतरते ही हमने उनके हिलते हाथ को देख लिया था। कितनी प्यार-भरी नज़र से वे हमें जहाज की सीढ़ियों से उतरता देख रहे थे।
नीचे उतरते ही उन्होंने सभी को बाहों में भरकर प्यार किया था। उनके प्यार में भी एक भव्य शालीनता थी।
उनकी बड़ी मर्सीडीज़ गाड़ी में हम लोग पीछे और पिता उनके साथ आगे बैठे थे। उनके बेपरवाही से उड़ते हुए बाल... उन्हें एक अलग ही गरिमा दे रहे थे। पिता से वे सारी राह अपने देश की बातें पूछते रहे थे। मौसम... राजनीति... खेती-बाड़ी और न जाने क्या-क्या...?
हम भाई-बहन उनकी सादगी और बेबकूफी पर दबी नजरों से मुस्कुराते रहे थे।
क्या रखा है, वहाँ का सब पूछने में... यहाँ की बातें क्यों नहीं करते... ये...? हम अब वहाँ का सब कुछ जान लेने को उत्सुक थे।
घर आ गया था। बाहर से घर बड़ा साधारण और वर्षा-धूप की मार खाये हुए लगता था। हमारा उत्साह ठण्डा होता जा रहा था।
घर की डोर-बेल पर हाथ रखते ही दरवाजा खुल गया था। मिसेज धवन मुँह पर चारों ओर मुस्कान लपेटे दरवाजे पर खड़ी थी। हम सबको उन्होंने बाँहों में भर-भर कर भरपूर प्यार किया था ।
यों मुझे याद है... वहाँ एक वर्ष रहने के बाद भी हमें मिसेज धवन के परिवार जैसा कोई परिवार नहीं मिला था। सब मुखौटे लगाए, अन्दर ही अन्दर एक अन्य भाव-भंगिमा में जी रहे थे। अमेरिका के कथित कायदे-कानून अपनाये हुए... चेहरों पर रुक्ष-भाव के रेगिस्तान ओढ़े हुए एवं एक राजसी वैभव के अहम् के नीचे दबे हुए। अंकल धवन एवं आँटी धवन ने हमारी तुच्छता में भी हमें गरिमा दी थी... और धीरे-धीरे जैसे हाथ पकड़कर चलना सिखाया था।
घर... क्या घर था उनका... इतना बड़ा राजसी घर... बड़े-बड़े फानूस... मसनदी सोफे. कोई दो सीट वाला सोफा, जिसे लव सीट भी कहते थे, कोई तीन सीट वाला। पैरों के नीचे बिछे हुए नरम-नरम गद्देदार गलीचे... जो दीवारों और सीढ़ियों तक उठे हुए थे। मुलायम इतने कि चलने पर पैर धँस जाता। इतनी सारी कोमलता इतनी सारी सुन्दरता अनायास ही हमारे चारों ओर बिखर गई थी। सब कुछ इतना साफ- सुथरा... इतना वैभव-पूर्ण कि पिक्चर्स में देखे हुए घरों को भी मात करता। आर्टिफिशल मनीप्लांट की बेलें-सुन्दर काँच के गुलदस्तों में सजी हुई थीं... भिन्न-भिन्न प्रकार की लतरें, सीढ़ियों की रेलिंग से लिपटती- ऊपर तक चली गई थी। छतें इतनी ऊँची कि आकाश की तरह नज़र उठानी पड़े। ये बच्चों के खेलने का कमरा है। यह ड्राईंग रूम, यह लिविंग रूम, ये बैडरूम... ये बच्चों के अलग-अलग बैडरूम्स, ये बेसमेन्ट... स्टोर्स-गैराज... और किचन। मिसेज धवन हमं् एक-एक करके घर दिखा रही थीं ।
कहीं आँखें न टिकती थीं। हम सभी एक दूसरे को भौचक नज़रों से देख रहे थे। इतना वैभव, इतनी सम्पदा। जगह-जगह ब्रास के नटराज, शिव की मूर्ति, मरियम का बस्ट, छोटे-छोटे केबिनट की तरह बने लकड़ी के मेजों पर सज रहे थे।
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