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चन्द्रेश गुप्त का रचना संसार

राजेन्द्र तिवारी

विनोद श्रीवास्तव

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2024
पृष्ठ :416
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16997
आईएसबीएन :9781613017357

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विलक्षण साहित्यकार चन्द्रेश गुप्त का समग्र रटना संसार

चन्द्रेश गुप्त : एक निस्पृह व्यक्तित्व

डा. प्रेम स्वरूप त्रिपाठी
सम्पादक
दि अण्डरलाइन
कानपुर

 

यशःशेष रमेश चन्द्र गुप्त जिन्हें प्रायः लोग चन्द्रेश गुप्त ‘चन्द्रेश’ के नाम से जानते हैं और पत्रकारिता जगत में चन्द्रेश दादा या ‘दादा’ के नाम से जाने जाते रहे हैं। मैं उन्हें हमेशा ‘दादा’ के नाम से सम्बोधित करता रहा। दादा से पहली बार मिलने की घटना कुछ इस प्रकार है कि डा.श्याम जी श्रीवास्तव, जो अंग्रेजी विभाग डी.बी.एस. कालेज में थे और मेरी नियुक्ति भी अर्थशास्त्र विभाग में थी। 90 के दशक में डा.श्याम जी श्रीवास्तव कानपुर शहर के प्रतिष्ठित ‘स्वरूप परिवार’ के कीर्तिशेष रागेन्द्र स्वरूप द्वारा संचालित सांध्य दैनिक ‘सत्य संवाद’ अखबार में जिम्मेदारी लिए हुए थे। डा. श्याम जी का मित्र होने के नाते सप्ताह में एक-दो बार वहाँ मेरा भी आना-जाना शुरू हो गया। चूँकि मुझमें भी पत्रकारिता से जुड़ने की इच्छा थी इसलिए वहाँ जाने पर मैं खबरें कैसे बनती हैं, उनका शीर्षक कैसे रखा जाता है आदि सम्पादन की बारीकियाँ समझने की कोशिश करता था। यह क्रम वर्षों चलता रहा और एक दिन अचानक डा.श्याम जी श्रीवास्तव से मैंने कहा कि-‘चलो हम सब मिलकर इण्डिया टुडे, आउटलुक की तरह एक पत्रिका निकालते हैं।‘ डा.श्याम जी व डा. सुनील कुमार श्रीवास्तव, जो हमारे अभिन्न मित्र हैं, ने भी हामी भरी और कहा ‘चलो करते हैं।‘ इसके बाद हम लोगों ने पत्रिका के छह नामों का चुनाव कर रजिस्ट्रेशन के लिए भेजा। दरअसल हम लोग एक ऐसा नाम चाहते थे जो हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं की पत्रिका के लिए उपयुक्त हो। संयोग से पत्रिका के लिए ‘दि अण्डरलाइन’ नाम आर.एन.आई. द्वारा स्वीकृत हुआ। हम सब मित्र खुश थे परन्तु हमारे पिता डा. राम स्वरूप त्रिपाठी अध्यक्ष हिन्दी विभाग डी.ए.वी. कालेज को हिन्दी पत्रिका के लिए यह नाम उपयुक्त नहीं लग रहा था, पर मैं हार नहीं मानना चाहता था इसलिए अपनी पैरवी के लिए क्राइस्ट चर्च कालेज के आचार्य सेवक वात्स्यायन जी के पास पहुँच गया। उन्होंने मेरी समस्या सुनी और मेरे पिता डा. रामस्वरूप त्रिपाठी से दूरभाष पर बात कर उन्हें संतुष्ट किया।

अब पत्रिका प्रकाशन के अगले चरण में मुझे एक ऐसे सम्पादक की आवश्यकता थी, जो सर्वगुण सम्पन्न हो। तब पिता जी ने कहा –भाई चन्द्रेश जी से मिल लो शायद वह तुम्हारी कुछ मदद कर सकें। यह बात जब मैंने डा.श्याम जी श्रीवास्तव से बताई तो उन्होंने बताया कि आजकल वह सत्य संवाद में आते हैं, चलो मैं तुम्हें उनसे मिला दूँ। यह है चन्द्रेश दादा तक पहुँचने की गाथा।

खैर समय तय हुआ और बताये समय पर मैं सिविल लाइन्स स्थित ‘सत्य संवाद’ के प्रशासनिक कार्यालय पहुँच गया। डा. श्याम जी श्रीवास्तव मुझे लेकर चन्द्रेश दादा के कक्ष में पहुँचे। वहाँ मैं देखता हूँ कि सफारी पहने एक भद्र पुरुष छपने के लिए तैयार अखबार को अन्तिम रूप दे रहा है। गौर से देखने के बाद उन्होंने सामने खड़े सज्जन से कहा-‘ठीक है अब इसे छापो।‘ वह सज्जन डमी लेकर कक्ष से निकले तब उन्होंने डा. श्याम जी के साथ मुझे देखा और बोले- आओ डाक्टर साहब। शिष्टाचार उपरान्त डा.श्याम जी ने मेरा परिचय बताया कि- आप डा.प्रेमस्वरूप त्रिपाठी हमारे साथ डी.बी.एस. कालेज में हैं और आप इनके पिता जी को जानते होंगे। उन्होंने मेरी ओर रुख करके पूछा कि- क्या नाम है, मैंने बताया कि मेरे पिता डा. रामस्वरूप त्रिपाठी अध्यक्ष हिन्दी विभाग डी.ए.वी. कालेज... मैं अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया कि वे तपाक् से बोले-‘अच्छा-अच्छा तुम रामस्वरूप जी के बेटे हो, मैं तुम्हारे घर कई बार जा चुका हूँ। और बताओ त्रिपाठी जी कैसे हैं।‘ मैंने बताया कि वे सकुशल हैं। इसी बीच उन्होंने घन्टी बजाई और चाय लाने को कहा, मैंने कहा अभी घर से पीकर ही आया हूँ। इस पर चन्द्रेश जी बोले, ‘अरे यार चाय पियो, इसी बहाने मैं भी पी लूँगा क्यों श्याम जी।‘ अब चुप रहने के अलावा कोई चारा नहीं था। चाय आने के बीच जो समय था उसमें ‘दादा’ आज छपने गये सांध्य पत्र दैनिक सत्य संवाद की हेड लाइन पर डा.श्याम जी से चर्चा करने लगे। इसी बीच चाय आ गयी और हम चाय पीने लगे। चाय के बीच में ही ‘दादा’ बोले- कहो प्रेम कैसे आये हो, मैंने हिचकिचाते हुए कहा कि ‘दादा’ हम सब मिलकर एक मासिक पत्रिका निकालना चाहते हैं, इसमें सम्पादक के रूप में आपको चाहते हैं। दादा हँसे और बोले-‘बड़े जिगरे का काम है आज के समय में, रही सम्पादक की बात तो सब बातें यहीं करिहौ, छुट्टी वाले दिन घर आओ फिर बैठ के बातें करी जायें।‘ मैंने कहा ठीक है मैं रविवार को सुबह नौ-दस बजे तक आऊँगा और डा.श्याम जी के साथ उनके कक्ष से बाहर आ गया।

पत्रकारिता जगत में प्रवेश की हुड़क ने मुझे रविवार को 69/170 दानाखोरी, कानपुर चन्द्रेश दादा के निवास पर पहुँचा दिया। मैंने जैसे ही सीढ़ी चढ़कर दरवाजा खटखटाया, उधर से दादा की आवाज सुनाई पड़ी ‘दरवाजा खुला है चले आओ।‘ मैंने कमरे में प्रवेश किया तो देखा तख्त पर दादा राइटिंग पैड पर कुछ लिख रहे हैं। मैंने उत्सुकतावश पूछा ‘क्या मैंने आपको डिस्टर्ब किया।‘ दादा ने कहा ‘नहीं-नहीं।’ उन्होंने राइटिंग पैड सिरहाने रखा और बोले बताओ उस दिन तुम क्या कह रहे थे। मैंने झिझकते हुए दादा से कहा कि हम लोग एक पत्रिका निकालना चाहते हैं जिसका टाइटिल भी आ गया है। बस आप हामी भर दें तो काम बन जाये। दादा हँसे और बोले कि तुम प्रेम नगर वाले घर से ही निकालोगे। मैंने कहा- ‘जी’। दादा कुछ क्षण मौन रहे फिर बोले- अच्छा कल हम शाम को घर आयेंगे। इसी बीच दादा की छोटी पुत्री निहारिका चाय व नाश्ता लेकर आ गयी। मैंने उस पूरे कमरे का जायजा लिया तो लगा कि जैसे दादा किताबों के ढेर के बीच बैठे हों। चाय पीने के बाद मैं जैसे ही उठने को हुआ तभी मातृवत दादा की अर्धांगनी (श्रीमती पुष्पा गुप्ता) शायद मन्दिर से पूजा करके लौट आयी थीं। दादा ने मेरा परिचय कराया उन्होंने मुझे प्रसाद दिया।

अगले दिन शाम होते ही दादा अपनी लूना मोपेड से निर्धारित समय पर आ गये। मैं तो उनका बेसब्री से इंतजार कर ही रहा था। फौरन नीचे आया और दादा को ले जाकर स्वागत कक्ष में बैठाया और पिता जी से कहा, ‘चन्द्रेश जी आये हैं।‘ पिता जी थोड़ा चौंकते हुए बोले - चन्द्रेश जी ! ‘क्या खुराफात चल रहा है।‘ मैं बस मुस्कुराया। पिता जी आये और दादा के साथ साहित्यिक परिचर्चा शुरू हो गयी। मैं इस इंतजार में कि कब पत्रिका की चर्चा हो अचानक चन्द्रेश दादा बोले- ‘त्रिपाठी जी यो लरिकवा कहि रहा रहै कि पत्रिका निकरिबे।’ पिता जी मुस्कुराये और बोले- ‘प्रेम अपनी मन की करते हैं, चलो ये भी कर लें।‘ चन्द्रेश दादा ने मेरा पक्ष लेते हुए कहा- ‘अरे कम से कम कुछ अच्छा करैं का सोच रहा है, करैं देओ हम तो हंयी हन्।‘ दादा की यह बात सुनकर मैं भौच्चक रह गया कि आज के अर्थयुग में कोई व्यक्ति ऐसा भी हो सकता है जो नियम-शर्तों को बताये बिना हामी भर दे। पिता जी ने मुझे प्रश्नवाचक नजरों से देखा। मैं उनका मन्तव्य समझ चुका था। मैंने धीरे से दादा से कहा कि-‘आप इतनी दूर से आयेंगे गाड़ी में पेट्रोल खर्च होता है और आप अपना समय भी देंगे तो दादा मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ।‘ दादा बड़ी जोर से हँसे और मेरी ओर उन्मुख होकर बोले-’लौंडपन न करो यह बताओ किस दिन से हमको आना है। रही पारिश्रमिक की बात तो देखो घर मा गइया पली है जब हम सबेरे आवन तो हमैं एक गिलास मट्ठा चाहिए, बोलौ मंजूर होय तो बताओ।‘ दादा की यह बात सुनकर मैं हक्का-बक्का रह गया। आज वे हमारे बीच नहीं हैं पर जब तक उनके शरीर ने साथ दिया वे निरन्तर वर्षों तक निष्काम भाव से पत्रिका को अपने ज्ञान और अनुभव के बल पर प्रकाशित करते रहे। यहाँ एक बात और बताना चाहता हूँ कि प्रसिद्धि के लिए प्रायः लोग जोड़-तोड़ में लगे रहते हैं पर दादा ने कभी भी पत्रिका के प्रिंटलाइन में अपना नाम नहीं चाहा और जब इस बारे में बात की तो सिर्फ डाँट मिली। आज जब मैं नजर दौड़ाता हूँ तो कोई भी मुझे चन्द्रेश दादा सरीखा नहीं दिखलाई पड़ता है। पत्रिका ‘दि अण्डरलाइन’ अपने पच्चीसवें वर्ष की ओर अग्रसर है वह सिर्फ और सिर्फ चन्द्रेश दादा के निश्छल समर्पण एवं शुभकामनाओं का परिणाम है।

फिर भी जब कभी मैं थोड़ा परेशान होता हूँ तो पता नहीं क्यों मुझे ‘दादा’ का मुस्कुराता हुआ मैनपुरी दबाया चेहरा दिखलाई पड़ता है कि- ‘प्रेम ! परेशान न होयेव हम हन् ना।‘ आज दादा नहीं हैं किन्तु सौभाग्य से उनके ज्येष्ठ आत्मज आयुष्मान मनीष गुप्ता उसी भाव से ‘दि अण्डरलाइन’ पत्रिका के संवर्धन में जुटे हैं। मैं चन्द्रेश दादा के पूरे परिवार के प्रति कृतज्ञता इसलिए ज्ञापित करता हूँ क्योंकि चन्द्रेश दादा ने जो संस्कार अपनेपुत्रों-पुत्रियों व पुत्र-वधुओं को दिये वह बिरले परिवारों में ही देखने को मिलते हैं। कहने को बहुत कुछ है किन्तु अब मैं अपने भावों पर नियंत्रण नहीं रख पा रहा हूँ इसलिए लेखनी को विराम देता हूँ।



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