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कार्यालय जीवन के एकांकी

गिरिराजशरण अग्रवाल

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1697
आईएसबीएन :81-7315-201-2

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प्रस्तुत है कार्यालय में प्रतिदिन होनेवाले नाटकों का उत्कृष्ट संग्रह...

Karyalaya Jivan Ke Ekanki

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


आज के जमाने के बीच पनपनेवाले सर्वाधिक शक्तिशाली बिचौलिए,नौकरशाहों के रंग-ढंग रीती-नीति और मन-मिजाज की बहुरंग रसमय झलकियाँ प्रस्तुत करते हैं-सरकार और प्रशासन के राजपथ को चलानेवाले इन छोटे बड़े बाबुओं तथा जनता के माई-बाप अफसरों की आपसी खींचतान भ्रष्टाचार भाई-भतीजावाद और सत्ता-सापेक्ष सरगर्मियों का सरस दृश्यांकन।

यह भी एक नाटक है


‘तुम्हारी बस मीरापुर से गुजरे तो उस बूढे़ व्यक्ति मनफूल को मेरा प्रणाम कहना, जो शीतल जल पिलाकर यात्रियों की सेवा करता है और दूर-दूर से आये यात्री अपनी प्यास बुझाकर उसकी झोली में दस-दस, बीस-बीस पैसे डालते रहते हैं...’
विदाई के लिए हाथ बढ़ाते हुए मैं अपने मित्र से कहता हूँ। वह आश्चर्य से मेरी ओर देख रहा है।

मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ। ‘उस बूढ़े व्यक्ति मनफूल को खोजने में तुम्हें कोई कठिनाई नहीं होगी। तुम्हारी बस मीरापुर के छोटे से बस अड्डे पर दो-एक मिनट के लिए रुकेगी। वह यात्रियों के भीड़ के बीच गिलास और ठंडे पानी की बाल्टी लिए तुम्हें बस की ओर बढ़ता दिखाई देगा—उलझे हुए सफेद बाल, धनुष की तरह झुकी पीठ, पिचके हुए गाल, फटी धोती और मैला कुर्ता पहने...तुम अगर बस की खिड़की के पास की सीट पर बैठे होगे, तो आसानी से उसे पहचान सकते हो—उसके ओठों से निरंतर एक आवाज फूट रही होगी—‘ठंडा पानी, ठंडा पानी।’ जैसे ही बूढ़ा मनफूल तुम्हारी तरफ आये, तुम उससे कहना कि इस गांव से दूर शहर में रहनेवाले तुम्हारे एक दोस्त गिरिराज ने तुम्हें अभिवादन कहा है।’

मेरा मित्र और भी अधिक आश्चर्य से मेरी ओर देखने लगता है। उसे इस बात पर अचम्भा है कि मनफूल जैसे फटेहाल आदमी से मेरी मित्रता कैसे हो सकती है ? रिश्तों के इस वर्गीकरण का अनुभव करके मैं भीतर-ही-भीतर रो उठता हूँ और सोचता हूँ कि लोग अपनेपन और मित्रता के संबंधों को सामाजिक स्तर की तराजू पर रखकर तोलने लगे हैं। आखिर ऐसा क्यों है कि एक सम्पन्न व्यक्ति की मित्रता किसी निर्धन व्यक्ति से नहीं हो सकती और यदि होती है तो लोग उस पर विश्वास क्यों नहीं करते हैं ? वह कौन था जिसने मानव-समाज को विभिन्न वर्गों और श्रेणियों में विभाजित कर दिया है ? यह कैसे सम्भव हुआ कि आदमी की पहचान उसके पद और सम्पत्ति के माध्यम से की जाने लगी ?

कल्पनाओं के पंख मुझे दूर अतीत में ले जाते हैं। मेरा मित्र बस में सवार होकर यात्रा पर निकल चुका है। यह मिनट-दो-मिनट के लिए मीरापुर के छोटे से बस अड्डे पर रुकेगी, जहाँ मनफूल धनुष की तरह अपनी दोहरी कमर लिये दूर-से आये यात्रियों की प्यास बुझा रहा होगा। मुझे विश्वास है, मेरा मित्र मीरापुर के बस अड्डे पर पहुँचकर मनफूल से नहीं मिलेगा। वर्गों में विभाजित उसकी मानसिकता ने जो रूप धारण कर लिया है, वह मेरे साधन सम्पन्न और उच्छ-शिक्षा प्राप्त मित्र को मनफूल जैसे निम्न श्रेणी के व्यक्ति की ओर आकर्षित ही नहीं होने देगी। इच्छा होती है, यदि एक क्षण के लिए यह मानसिकता परंपराओं के चंगुल में फँसे मेरे इस मित्र का साथ छोड़ दे, तो वह भी इस रहस्य से परिचित हो सकता है कि वर्तमान व्यवस्था ने आदमी और उसके भविष्य को कितना अविश्वसनीय बना दिया है।

मनफूल का जीवन फिर मेरी कल्पना में उभर आया है।
मुझे याद आता है कि वह एक खाते-पीते और सुखी घराने में पैदा हुआ था।
लेकिन उसका अपराध यह था कि वह सतमासा था। यह अपराध उसका था। या उसकी माँ का था या फिर विधाता ने ही उसके साथ क्रूर मजाक किया था ? यह बात तो स्वयं मनफूल भी नहीं जानता, वह तो सारी घटनाओं का दोष भाग्य की रेखाओं को देकर निश्चिंत हो गया है।

मैं मनफूल के इतिहास और अतीत की गहराइयों में उतर जाता हूँ। मनफूल पानी से भरी बाल्टी और गिलास लिये अब भी मीरापुर के बस अड्डे पर यात्रियों की प्यास बुझाकर अपनी जीविका अर्जित कर रहा है और मैं हजारों-लाखों वर्ष पहले पैदा हुए उस आदमी से भेंट करने चला आया हूँ, जिसने अत्यन्त सीधे और साधारण ढंग से अपने जीवन का आरम्भ किया था।
उसके पास केवल एक ही पूँजी थी, श्रम की पूँजी। तब वह केवल अपनी श्रम की शक्ति पर जीवित था। समूहों में रहता था, सब लोग मिल-जुलकर काम करते और सामूहिक रूप से जितना कुछ अर्जित करते, मिल-बाँटकर खा लेते। तब मानव-जाति में न कोई वर्ग था और न श्रेणी। समान अधिकारों वाले सारे ही मानव किसी भी तरह ऊँचे-नीच और भेद-भाव के बिना मिल-जुलकर रहते थे—गुफाओं में और जंगलों में।

ठीक-ठीक गिनकर बताना सम्भव नहीं, लेकिन हजारों वर्ष आदमी इस व्यवस्था से जुड़ा रहा ! काश ! मनफूल तब पैदा हुआ होता, जब आदमी की सामाजिक व्यवस्था इतनी जटिल नहीं थी, जितनी अब है। लेकिन नियति तो मनफूल को उस स्थानपर लाकर पटक देना चाहती थी, जहाँ एक ओर सत्ता का केन्द्र है, दूसरी ओर वह स्वयं और बीच में दफ्तर का बाबू। मनफूल इस स्थान पर अकेला खड़ा है और एक-एक करके सारे सहारे उससे छिन गए हैं।
क्षण-भर के लिए मनफूल की छवि मेरे मस्तिष्क में उभरती है और फिर कल्पना में अदिकाल के उस मानव का चेहरा चमक उठता है, जिसे मैं अभी-अभी अतीत की यात्रा करते हुए जंगलो और गुफाओं में छोड़ आया था।
तब समूहों में आदमी निश्चितं था। वर्तमान सामाजिक जीवन की जटिल-ताओं और शोषण से मुक्त ! तब सत्ता किसी एक वर्ग के हाथ में केन्द्रित नहीं हुई थी।

धीरे-धीरे यह मानव-समूह कबीलों में परिवर्तित हो गए। कबीलों ने सरदारों और मुखियाओं की नींव डाली। तब तक आदमी इस रहस्य से परिचित हो चुका था कि वह अपने ही जैसे लोगों के श्रम का शोषण कर अपने लिए सुख-सुविधाएँ और सत्ता के साधन अर्जित कर सकता है...
इतिहास मुझे ले आया है, विकास के उस मोड़ पर जहाँ सामाजिक साधनों पर अपनी शक्ति और बल से अधिकार जमाने वाले तत्व सरदारों और मुखियाओं की अवस्था से निकल राजा-महाराजाओं का रूप धारण कर चुके हैं।
आदमी और आदमी के बीच इतना लम्बा फ़ासला है, इतना बड़ा फ़ासला कि उसे लाँघना मुश्किल हो गया है।
मनफूल अभी पैदा नहीं हुआ है। उसे इस मंच पर आने में अभी कुछ देर लगेगी। आप चाहें तो अभी कुछ समय और उसकी प्रतीक्षा कर सकते हैं—पहले राजा और प्रजा के बीच का लम्बा फ़ासला भर जाने दें।

यह फ़ासला कौन भर सकता है ? सामन्त सोचता है और देखते-ही-देखते एक और वर्ग पैदा हो जाता है, व्यवस्था को चुस्त और दरुस्त करने के लिए। इसमें कितने ही छोटे-बड़े जागीरदार हैं, मध्यमवर्गीय भू-स्वामी हैं। कानून और व्यवस्था को बनाए रखने वाली संस्थाएँ हैं, सत्ता की रक्षा करने वाले प्रहरी हैं, कर उगाहने वाले कारिन्दे हैं, अपने द्वारा और अपने हित में बनाये गए कानूनों के अंतर्गत न्याय बांटने वाले न्यायलय हैं, राजस्व का हिसाब-किताब रखने और व्यवस्था को नियंत्रित करने वाले कार्यालय हैं—राजा और प्रजा के बीच यह वह वर्ग है जो केवल इसलिए अस्तित्व में लाया गया है ताकि बिचौलिये की भूमिका निभाते हुए लाखों-करोडों लोगों के शोषण में सामन्तशाही की सहायता कर सके। इसका रिश्ता सामान्य आदमी से नहीं है। यह उन साधन-सम्पन्न और शक्तिशाली सामंतों की संतान है जिसने आदमी के सामूहिक जीवन को वर्गों और श्रेणियों में बाँटने का षड़्यंत्र रचा था। बीच का यह वर्ग धीरे-धीरे अपनी जड़ें और गहरी कर रहा है, स्थापित कर रहा है—और आखिर सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था का ऐसा अनिवार्य अंग बन गया है जिसके अभाव में न राजा का रथ आगे खिसकता है और न प्रजा की खंडित गाड़ी।

लेकिन मनफूल के पैदा होने में अब भी कुछ देर है। आप कृपया कुछ देर और उसकी प्रतीक्षा कीजिए।
हजारों वर्षों की दासता के मारे लोग हुंकार भरकर उठ खड़े हुए हैं। उनके चेहरे क्रोध और क्रांति की आग से लाल हैं। आस्तीनें खिंची हुईं और भुजाएँ नंगी तलवारों की भाँति लपक रही हैं।
लगता है लोग सामन्ती और साम्राज्यवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए जान की बाजी लगाकर अपने-अपने घरों से निकल आए हैं। हर तरफ शोर है, इन्कलाब की गूँज है, गोलियाँ चल रही हैं, लोग मर रहे हैं, लेकिन अपनी आजादी और अधिकार माँगने वाले हताश नहीं हैं, निराश नहीं हैं, वे आगे बढ़ रहे हैं, आगे बढ़ रहे हैं और मैं देख रहा हूँ कि सामन्तों के पाँवों के नीचे से जमीन खिसकने लगी है—वे भाग निकले हैं, चले गए हैं-अब राजा नहीं हैं, प्रजा है और उसका राज है। लेकिन...

लेकिन राजा और प्रजा के बीच यह वर्ग अब भी जीवित है, जो जनता का शोषण और सामन्तवादी व्यवस्था की रक्षा करता आया है। इस लम्बे संघर्ष में उसके अस्तित्व पर कुछ भी आँच नहीं आयी है। वह ज्यों-का-त्यों है। वह तब भी सत्ता का रखवाला था, अब भी सत्ता का रखवाला है। यह वह समय है, जब इतिहास अपने विकास के लोकतान्त्रिक मोड़ पर खड़ा है।
ठीक यही वह समय है, जब मीरापुर के एक मध्यमवर्गीय परिवार में मनफूल पैदा हुआ है....

लेकिन उसका अपराध यह है कि वह सतमासा क्यों पैदा हुआ ? पूरी अवधि में पैदा होता तो कार्यालयों, न्यायालयों की चक्की में पिसकर उस स्थान पर न आ जाता, जहाँ वह अपनी जीविका जुटाने के लिए पानी का एक-एक गिलास पानी बेचने पर विवश है।
मेरा मित्र मीरापुर के बस अड्डे पर कब पहुँचेगा ? शायद अब पहुँचने वाला हो, पर मुझे विश्वास है कि वह मनफूल से नहीं मिलेगा। मेरा सन्देश उस तक नहीं पहुँचाएगा, क्योंकि उसके और मनफूल के बीच में जो दीवार है, वह अभी नहीं गिरी है। ऊँच-नीच की दीवार।

लेकिन मैं जो उसका मित्र हूँ, उसे भूल नहीं पाऊँगा—मैं यह भी नहीं भूल पाऊँगा कि अपने विनाश की जो कहानी उसने मुझे सुनाई थी, अंश-अंश करके उसने कार्यालय व्यवस्था के कई-एक पहलुओं को मेरे सामने नंगा कर दिया था।
उस दिन बहुत अधिक ठंड थी और आसमान पर बादल छाये थे। मैं कई वर्ष पहले गाँव छोड़कर शहर आ गया था और अध्यापनकार्य में व्यस्त था। हलकी रिमझिम थी और कलाई की घड़ी आठ बजने की सूचना दे रही थी। नजर उठाकर देखता हूँ तो भीगे कपड़ों में थर-थर काँपता मनफूल मेरे सामने खड़ा था...
सर्दी से बचाव के लिए उसके पास समुचित कपड़े नहीं थे। मैंने उसे आदर से बिठाया और ओढ़ने के लिए कम्बल दे दिया। वह शरम और झिझक के साथ मुझसे कहता है, मुझे पाँच सौ रुपये उधार चाहिए।
मैं अचम्भे के सागर में डूब गया हूँ।

पचास बीघे जमीन का मालिक मुझसे कर्ज माँगने आया है ? क्यों ? आखिर क्यों ?
मनफूल मुझसे कहता है, पाँच साल से जमीन के मुकदमे में उलझा हूँ। जो कुछ था, सब बिक गया, अब पाई-पाई को मोहताज हो गया हूँ, लेकिन मुकदमा तो लड़ना ही है, अन्त तक तो पहुँचाना ही है, उसे...
मैं पूछता हूँ, कैसा मुकदमा, किस बात का मुकदमा ?
वह कहता है, मुकदमा ? मुकदमा यह साबित करने के लिए कि मैं अपने बाप की वैद्य संतान हूँ। सतमासा पैदा होने में मेरा या मेरी माँ का दोष नहीं था, भाग्य की विडम्बना थी...
बात उलझ गई है, लेकिन मैं उससे कुरेद-कुरेदकर पूछता हूँ....

बस तो शायद मीरापुर से गुजरकर कहीं और आगे पहुँच चुकी होगी। मेरा मित्र मनफूल से मिले बिना, उस तक मेरा सन्देश पहुँचाए बिना आगे बढ़ गया होगा, लेकिन मेरी स्मृति पटल पर मनफूल का अतीत परछाइयाँ बन कर उभर रहा है।
मनफूल की माँ आनंदी विधवा होने के तुरन्त बाद गाँव के एक सम्पन्न व्यक्ति कुँवर बहादुर के घर बैठ गई। वह सुंदर है, स्वस्थ है, आकर्षक है। सुख-सुविधा के सब साधन हैं। दो बालक पहली पत्नी के हैं। आनन्दी अभी निःसंतान है।
कहानी का दुःखद और पीड़ाजनक अध्याय तब शुरू हुआ जब पुनर्विवाह के बाद सात ही महीने में आनंदी ने एक पुत्र को जन्म दे दिया, मनफूल को। और कुँवर बहादुर यह सोचकर संदेह की आग में सुलग उठा कि यह बेटा उसका नहीं, आनंदी के पहले पति का ही हो सकता है।

मनफूल चुप है, लेकिन मैं इस कहानी की अगली घटनाओं की स्वयं ही कल्पना कर सकता हूँ।
मैं सोच सकता हूँ कि एक निराधार संदेह के कारण उस निरीह महिला को कितना प्रताड़ित किया गया होगा, जिसका नाम आनंदी था। उसने सौगंध ली होगी, अपनी सत्यता का विश्वास दिलाया होगा ऐसी अनेक घटनाएँ दोहराई होंगी, जब महिलाओं ने सतमासे और अठमासे बच्चों के जन्म दिया है।
लेकिन कुँवर बहादुर का मन नहीं पसीजा होगा। उसके भीतर से संदेह की कालिमा नहीं धुली होगी। आदमी कितनी जल्दी ईर्ष्या का शिकार हो जाता है। सोचता हूँ तो मुझे पुरुष जाति के चरित्र पर क्रोध आता है। संदेह, जिसका कोई आधार नहीं है, जिसका कोई प्रमाण नहीं है, किस तरह एक हँसते-खेलते, सुखी परिवार का जीवन नरक में डाल देता है। अनेक घटनाएँ मेरी स्मृति में जाग उठी हैं—लेकिन मैं उन्हें दोहराता नहीं हूँ। मेरे सामने मनफूल है, जो मुझे बताता है कि माँ अपने जीवन की अंतिम साँसों तक शंकालु पति को यह विश्वास दिलाने का प्रयास करती रही कि मैं उसी का बेटा हूँ, किसी और का नहीं। लेकिन कुँवर बहादुर के मन से संदेहों का आवरण नहीं उठा—उसने मरने से पहले वसीयत की—

‘मैं अपनी सम्पूर्ण चल व अचल सम्पत्ति अपने दो बेटों के नाम हस्तांतरित करता हूं। तीसरा बेटा मनफूल मेरा नहीं है, वह अपनी मां आनंदी के पेट से तब पैदा हुआ, जब उसके पूर्व पति का निधन तो हो गया था, लेकिन वह गर्भ से थी। जब तक आनंदी जीवित रही, सम्पत्ति में हिस्सा बांटने के लिए मुझे यह विश्वास दिलाने का प्रयास करती रही कि मनफूल मेरा ही बेटा है, लेकिन इस दावे के लिए वह कोई प्रमाण नहीं दे सकी—’
वसीयत को पंजीकृत नहीं कराया गया था। वह बिना स्टाम्प वाले एक सादा कागज पर थी। मनफूल मुझे बताता है। वह कहता है कि छोटे से कागज पर लिखे ये शब्द, मुझे और मेरी माँ को बार-बार अपमानित कर रहे हैं—मैं क्रोध और अपमान की आग में जलता रहा, जलता रहा—और फिर मेरे पाँव शहर की ओर उठ गए। उस वकील के घर की तरफ जो माल दीवानी के मामलों में दक्ष समझा जाता था....
मनफूल के दुःखद जीवन की कहानी यहीं से शुरू होती है।

मैं नहीं जानता, मीरापुर के बस अड्डे पर प्यासे यात्रियों को पानी पिलाते हुए कभी उसे अपना अतीत याद आता होगा या नहीं। उसकी स्मृति में वह दिन उभरते होंगे या नहीं, जब वह डेढ़ सौ बीघे जमीन के स्वामी परिवार का एक सदस्य था और नहीं जानता था कि नियति उसे असहाय सड़क पर ला पटकने के क्षण की प्रतीक्षा कर रही है।
वकील के द्वार से कार्यालय तक और कार्यालय में निर्जीव मूर्तियों की तरह सजे हुए एक बाबू से दूसरे बाबू तक न जाने कितने वर्षों तक उसने चक्कर काटे हैं। मनफूल बताता है कि वकील ने पहली भेंट में उसे आश्वासन दिया था कि यह वसीयतनामा अवैद्य है, इसका कोई कानूनी महत्त्व नहीं है, एक ही पेशी से रद्द हो जाएगा। और अदालत उसे अपने बाप की सम्पत्ति में बराबर का हिस्सेदार घोषित करेगी।
मैं कल्पना कर सकता हूँ, उस क्षण की, जब मनफूल ने अपनी कुल जमापूँजी का एक भाग, भविष्य के सुन्दर सपने सँजोते हुए कानून के ज्ञाता अपने वकील के चरणों में रख दिया होगा।

मस्तिष्क पर जोर देता हूँ तो मुझे याद आता है कि यह लगभग पच्चीस वर्ष पहले की बात है, चौथाई शताब्दी पूर्व की ? पच्चीस वर्ष पहले मनफूल ने कहा था कि उसके द्वारा दी गई याचिका पर उसके दोनों भाइयों ने अदालत में आपत्ति-पत्र दाखिल कर दिया है।
देर तक मैं यह सोचकर दुखी होता रहा कि अधिकार की न्यायोचित माँग किस प्रकार मुकदमेबाजी में परिवर्तित हो गई है ?
मुझे याद है, जब भी महीने-दो महीने बाद मनफूल अदालत में अपने मुकदमे की पेशी पर आता, मुझसे जरूर मिलता और उन तमाम घटनाओं का वर्णन करता, जो उसके साथ घटी होतीं। वह बताता कि किस प्रकार उसे हर पेशी पर चपरासी से लेकर छोटे बाबू, बड़े बाबू और पेशकार तक बिना कोई काम लिए घूस देनी पड़ती है। किस तरह कार्यालयों में बैठे हुए कर्मचारी कदम-कदम पर उसकी जेबें टटोलने के लिए झपट पड़ते हैं ? किस तरह गाँव के पटवारी ने सम्पत्ति का विवरण देने के लिए उससे दो रुपये के स्थान पर दो सौ रुपये हड़प लिए हैं। मुझे लगता है जैसे वह कार्यालय व्यवस्था से ऊब रहा है, थक रहा है। उसे विश्वास नहीं कि अंत में जीत किसकी होगी ?
एक दिन आया तो बोला, निचली अदालत से मुकदमे का निर्णय मेरे पक्ष में हुआ था। लेकिन भाइयों ने सत्र न्यायालय में अपील दायर कर दी।

यह बात भी अब लगभग बीस वर्ष पुरानी हो गई। मनफूल तब युवक था, अब बूढ़ा हो चला है, उसके बाल खिचड़ी हो गए हैं। न्यायालयों और कार्यालयों को जाने वाली सड़क पर सफर करते-करते अब उसने बुढ़ापे की तरफ अपनी यात्रा शुरू कर दी है—मुझे नहीं मालूम कि इस कभी न होने वाले चक्र में उसके भाइयों पर क्या बीत रही है—लेकिन मनफूल मुझे बताता था कि हर साल कृषि-भूमि का एक भाग मुकदमेबाजी की भेंट चढ़ जाता है। वह जमीन खा रहे हैं, मैं ऋण खा रहा हूँ, लेकिन मुर्दे और मुकदमे को कफन तो देना ही पड़ता है ?
मैं समझता हूँ कि मनफूल ! तुम आपस में बैठकर समझौता क्यों नहीं कर लेते ? वह कहता, मैं तैयार हूँ, लेकिन दूसरा पक्ष माने तब ना...।
सोचता हूँ तो याद आता है कि सत्र न्यायलय में यह मुकदमा दस वर्ष तक चला था। दोनों पक्ष ऋण के बोझ तले दब गए। घर की कील-कील तक बिक गई...

पाँच साल पहले का दिन फिर स्मृति में उभर आया है। बहुत ठंडी और रक्त जमा देने वाली सुबह है। मेरी कलाई पर बँधी घड़ी ने आठ बजने का संकेत दिया है। अचानक देखता हूँ कि मनफूल मेरे सामने आ खड़ा है। उसके शरीर पर आवश्यकता-भर कपड़े नहीं हैं, मैं अपना कम्बल उसकी तरफ बढ़ाता हूँ—
उसे पाँच सौ रुपये की फिर आवश्यकता है। जिसकी आशा लेकर वह मुझ तक आया है—
वह कहता है, हजार की व्यवस्था मैंने कर ली है, पाँच सौ और चाहिए। हाई कोर्ट में अपील जो करनी है मुझे—
मैंने पाँच सौ के नोट उसकी तरफ बढ़ा दिए हैं, लेकिन देखता हूँ, उसकी आँखों में आँसू हैं, वह रो रहा है—आँखों का पानी उसके चेहरे पर पड़ी झुर्रियों से होता हुआ कम्बल पर टपक गया है।
ये आँसू क्या कहते हैं, इनकी भाषा वह नहीं समझता, मैं समझता हूँ।

कार्यालयों से लेकर न्यायालयों तक की इस यात्रा ने उसे दिया ही क्या है, शायद आँसुओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं।
मुझे मालूम है कि सम्पत्ति के अधिकार का यह मुकदमा पिछले पाँच साल से इलाहाबाद की ऊँची अदालत में लम्बित पड़ा है और पाँच-दस साल और लम्बित पड़ा रहेगा। पाँच साल पहले उसने मुझसे कहा था कि वह अपने भाइयों के विरुद्ध एक और मुकदमा दायर कर रहा था। जिसमें वह अदालत से कहेगा कि विवादित भूमि को बेचने का अधिकार उसके भाइयों को नहीं था। यह भूमि अवैद्य रूप से बेची गई है, जिसके समस्त बैनामों को निरस्त किया जाना चाहिए...
यानी एक मुकदमे के बाद एक और मुकदमा। लेकिन अब इस लड़ाई में झोंकने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं रहा है—वह तो पूर्ण रूप से निर्धन और असहाय हो चुका है।

सोचता हूँ मेरा मित्र अब मीरापुर से बहुत आगे जा चुका होगा, काश वह जान पाता कि कार्यालय-व्यवस्था ने उस साधन-सम्पन्न व्यक्ति को सड़क पर कैसे पहुँचा दिया, जहाँ उसके हाथ में ठंडे पानी की बाल्टी है और हाथ में दूर-दूर से आये यात्रियों की प्यास बुझाने के लिए शीशे का एक गिलास। काश वह जान पाता कि आदमी ने अपने विकास की लम्बी यात्रा में जब सामन्तशाही का जुआ उतारकर फेंका था, तब बीच का वह सेतू खंडित होने से रह गया था, जो बाबू संस्कृति के स्वार्थ और सत्ता के पक्ष के अस्तित्व की रक्षा करने के लिए बनाया गया था और जिस पर चलने वाले बाबू अपने आर्थिक अभावों से टूटकर ऐसा आचरण करने पर विविश हो रहे हैं, जिसमें नैतिकता नहीं है, मानवता नहीं है—?
मनफूल ! मैं तुम्हें एक बार फिर शत-शत प्रणाम करता हूँ, क्योंकि तुम वर्तमान व्यवस्था के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय हो और समर्पित करता हूँ तुम्हारा जीवन, कलम के धनी उन महापुरुषों को, जो तुम्हारी जैसी घटनाओं से तेल-बाती लेकर ज्ञान की ज्योति जला रहे हैं।


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