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तमाशा

स्वदेश दीपक

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2024
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 16955
आईएसबीएन :9789357756495

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सूरज चारों तरफ बड़ी देर से तीखी और गर्म किरणों की बर्छियाँ और किरचें बरसा रहा है। छोटे लड़के के गले में पड़ी ढोल की रस्सी पसीने से भीग गयी है और उसके गले में, गर्दन में ख़ारिश कर रही है। उसके गाल पिचके हुए हैं और बारीक मशीन से कटे सिर के छोटे-छोटे बाल काँटों की तरह सीधे खड़े हैं। सूरज की निर्दय गर्मी ने उसे पीट डाला है, छील डाला है। पिछले कई मिनटों से उसने ढोल पर थाप नहीं दी है। बाप किसी जंगली सूअर की तरह गर्दन को थोड़ा-सा टेढ़ा करता है और तीखी आवाज़ में कहता है- “ढोल तेरा बाप बजायेगा क्या ?”

बड़ी मशीनी हरकत से लड़का दोनों हाथों से ढोल को पीटना शुरू कर देता है। सेनापति सूरज इस छोटे-से नगाड़े की आवाज़ को सुनकर थोड़ा और ऊपर उठ जाता है। आक्रमण की मुद्रा में लड़के के बिल्कुल चेहरे के सामने तेज़, चमकदार और गरम-गरम तलवार लपलपाने लगता है। सामने नीम का एक बड़ा-सा पेड़ है। इसके आसपास कुछ रेहड़ियों वाले हैं, कुछ खोखे हैं और चन्द पक्की दुकानें। बाप के कदम इस ओर बढ़ते देखकर लड़के की पतली लकड़ियों जैसी टाँगें आख़िरी हल्ला मारती हैं और वह छोटी-सी दौड़ लगाकर बाप के आगे निकल जाता है। पेड़ के नीचे पहुँचते ही वह गले में पड़ा ढोल उतार देता है और पेड़ के तने के साथ पीठ लगाकर तेज़ी के साथ फेफड़ों में हवा भरने लग पड़ता है। पीछे आ रहे बच्चों और लड़कों का झुण्ड अब उसके आसपास घेरा डालकर खड़ा है, लेकिन वह किसी की ओर भी आँख उठाकर नहीं देखता। यह तो उनकी ज़िन्दगी में रोज़ ही होता है। आने वाले तमाशे के सारे-के-सारे दृश्य और इनके कटे हुए टुकड़े लड़के के दिलो-दिमाग़ में पहले से ही मौजूद हैं। इसलिए दूसरे लड़कों की तरह न ही उसे इस तमाशे के प्रति कोई उत्सुकता है और न ही इसमें कोई रस मिलता है। अब वह अपने होंठों पर बार-बार ज़बान फेर रहा है। इधर-उधर किसी डरे हुए चूहे की तरह गर्दन मोड़कर देखता है, कहीं कोई नल अथवा पम्प दिखायी नहीं देता। बाप की तरफ देखता है। वह बड़ी-सी गठरी को खोल रहा है, तमाशे का साजो-सामान जो बाहर निकालना है।

– तमाशा‘ कहानी से

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