नाटक-एकाँकी >> जलता हुआ रथ जलता हुआ रथस्वदेश दीपक
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भगवान किस-किसकी सुनें। सारे संसार में मारकाट मची है। अपनी ताकत से अन्धा हो चुका इन्सान भगवान बन गया है। इतना घमण्डी। अब जीने-मरने के फैसले इन्सान करता है। इतनी सारी भाषाएँ हैं उसके पास। फिर भी नहीं समझते एक-दूसरे की बात। ताकत और हथियार सबसे पहले भाषा का खून करते हैं। फिर इन्सान का। मुन्ना जी। जीना तो इसे पड़ेगा इस अन्याय की दुनिया में। लेकिन मत डर तू। भगवान ने इन्सान को बहुत ताकतवर बनाया है। जिस दिन आदमी के अन्दर प्रकाश आ जाये सिंहासन पलट देता है, माथों से मुकुट उतार मिट्टी में मिला देता है। कहते हैं दुनिया में सात अजूबे हैं। सेवन वन्डर्ज ऑफ़ द वर्ल्ड। बेवकूफ़। आठ अजूबे। आठवाँ अजूबा है इन्सान। भगवान का पहरेदार। संसार की रक्षा करने वाला योद्धा पहरेदार… पता नहीं क्या हो गया इस योद्धा को। सोया है। लम्बी नींद सोया है। लेकिन जागेगा ज़रूर। अन्याय देखेगा और उतर आयेगा उसकी आँखों में खून।
– इसी पुस्तक से
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