धर्म एवं दर्शन >> श्रीमद्भगवद्गीता : तात्त्विक भाव श्रीमद्भगवद्गीता : तात्त्विक भावयू.पी. सिंह
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श्रीमद्भगवद्गीता में अभिहित कर्म एवं इसके फल के रहस्य को यथार्थ रूप से समझकर तथा तदनुसार जीवन दर्शन को अंगीकार करके अपने वर्णधर्म के अनुसार करने योग्य कर्मों को ईश्वर को अर्पण करके निष्काम भाव से चित्त की शुद्धि हेतु यज्ञरूप से करते हुए गीतोक्त कर्म, ज्ञान व भक्ति योगमार्ग में से अपने-अपने स्वभाव के अनुसार आधाररूप से किसी एक योगमार्ग के अभ्यास में लगे रहकर ईश्वर का स्मरण व ध्यान करके किसी भी देश, काल, धर्म, सम्प्रदाय अथवा लिंग का मनुष्य परम तत्त्व से योग (ऐक्य) स्थापित करके इस जीवन को आनन्दमय बनाते हुए परम पुरुषार्थ रूपी मोक्ष की प्राप्ति करके जन्म-मरण रूपी बन्धन से मुक्त हो सकता है।
अभ्यास के उपर्युक्त क्रम में कर्म तथा कर्मफल में अनासक्ति का भाव, जगत के सुख-दुःखादि द्वंदों में समभाव, सभी जीवों में परमात्मा रूप से स्थित ‘आत्मा’ के एकत्व का भाव, सतत् आनन्ददायक परम सत्ता में प्रेम का भाव तथा उच्चतम आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु आवश्यक अन्यान्य मानवीय कल्याणकारी मूलभूत भावों व गुणों का अन्तःकरण में प्रादुर्भाव ईश्वर की अहैतुकी कृपा से सहज ही हो जाता है। इस प्रकार से प्राप्त लौकिक तथा पारलौकिक दिव्यता के प्रत्यक्ष अनुभव की अभिव्यक्ति सम्पूर्णता से वाणी द्वारा व्यक्त करना कठिन है।
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