उपन्यास >> रात का रिपोर्टर रात का रिपोर्टरनिर्मल वर्मा
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निर्मल वर्मा हिन्दी के उन गिने-चुने साहित्यकारों में से हैं, जिन्हें अपने जीवन-काल में ही अपनी कृतियों को ‘क्लासिक’ बनते देखने का दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त हुआ है। प्रायः सभी आलोचक इस बात पर सहमत हैं कि हिन्दी की वर्तमान कहानी दिशा को एक निर्णायक मोड़ पर देने का उन्हें श्रेय है। वे दिन, लाल टीन की छत और एक चिथड़ा सुख जैसी कालजयी कृतियों के बाद उनका उपन्यास रात का रिपोर्टर सम्भवतः आपातकाल के दिनों को लेकर लिखा गया हिन्दी में पहला उपन्यास है। और, उनके कथा-लेखन में नये मोड़ का सूचक है।
उपन्यास का कथा-नायक रिशी यहाँ एक ऐसे पत्रकार के रूप में सामने है, जिसका आंतरिक संकट उसके बाह्य सामाजिक यथार्थ से उपजा है…हालात ने उसे जैसे अस्वस्थ और शंकालू बना दिया है। उसके चारों ओर अँधेरे का साम्राज्य है और उसका अन्तर्जगत भी उसकी जद में है। ऐसे में यदि वह अपने इर्द-गिर्द के अँधेरे को भी जाँचने परखने की कोशिश करता है, तो स्वंय भी उसकी कसौटी पर होता है।
वस्तुतः यह एक ऐसी कथाकृति है, जो बुद्धिजीवी की चेतना पर पड़ने वाले युगीन दबावों को रेखांकित करती है और उन्हें उसके व्यवहार में घटित होते हुए दिखाता है। इससे गुजरते हुए हम जिस माहौल से गुजरते हैं, वह चाहे हमारे अनुभव से बाहर हो या हम उससे बाहर हों, लेकिन वह हमारी दुनिया की आजादी के बुनियादी सवालों से परे नहीं है।
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