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प्रथम पुरुष

भगवतीशरण मिश्र

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :383
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1678
आईएसबीएन :81-7315-105-9

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प्रस्तुत है श्रीकृष्ण के जीवन पर आधारित उपन्यास...

Pratham Purush

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पहला सूरज और पवनपुत्र जैसे बहुचर्चित ऐतिहासिक
एवं पौराणिक उपन्यासों के पश्चात् श्रीकृष्ण पर आधारित यह बृहत्काय कृति उनके जीवन के पूर्वार्द्ध को अत्यन्त रोचक भाषा और आकर्षक शैली में प्रस्तुत करती है। सिद्धहस्त लेखक ने श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़े चमत्कारों की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करते हुए आज के जीवन में उसकी प्रासंगिकता को अत्यन्त सफलतापूर्वक रेखांकित किया है।
उपन्यासकार की अवधारणा है कि भगवान् पैदा नहीं होता, बनता है। व्यक्ति अपने कृत्यों, आचरणों एवं रचित्र के बल पर शनैः-शनैः मनुष्यत्व से देवत्व, और देवत्व से ईश्वरत्व की ओर अग्रसर होता है।

आधुनिक काल में, जहाँ जीवन-मूल्य विघटनकारी तत्त्वों के आखेट हो रहे हैं, मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना ही इस आदर्शोन्मुख उपन्यास का लक्ष्य है, जिसमें लेखक को पर्याप्त फल मिला है। भाषा की प्रांजलता एवं कथा की अबाध गतिशीलता, ग्रन्थ को पठनीय बनाती है।

यह पुस्तक


यद्यपि इस पुस्तक का लेखन प्रायः चार वर्षों में समाप्त हुआ क्योंकि 1987 में ही ‘पवन पुत्र’ प्रकाशित हो गया था और उसके लेखन की समाप्ति के साथ ही ‘प्रथम पुरुष’ में हाथ लगा दिया था। तथापि इस उपन्यास के लेखन में मात्र चार वर्ष लगे, ऐसा कहना उचित होता। इसका कारण यह है कि कृष्ण के जीवन-चरित्र से सम्बन्धित पुस्तकों, विशेषकर श्रीमदभागवत, महाभारत तथा गीता से मेरा सम्बन्ध बाल्यकाल से ही रहा। स्कूल के दिनों में जब संस्कृत पूरी तरह समझ में नहीं आती थी तब भी मैं ग्रन्थों के संस्कृत-श्लोकों का हिन्दी–टीका के साथ अध्ययन करता था और उनके अनुवाद के साथ ही उनका अध्ययन सम्भव रहा क्योंकि श्रीमदभागवत की संस्कृत अन्य ग्रंन्थों की अपेक्षा कठिन है। कहा भी जाता गया है कि विद्वानों की परीक्षा श्रीमदभागवत में ही होती है-

विद्यावताम् भागवते परीक्षा।

कहने का तात्पर्य यह है कि कृष्ण-चरित्र बाल्यकाल से ही मेरे मन में बैठा था और कृष्ण के व्यक्तित्व के प्रति एक विशेष आकर्षण बहुत पूर्व मेरे मन-मस्तिष्क में जड़ जमा चुका था। इसी के फलस्वुरूप कृष्ण से सम्बन्धित जो कुछ मिला, मैं पढ़ता गया।
इस पुस्तक के लेखक के पूर्व कृष्ण-सम्बन्धी ग्रन्थों का विशेष रूप से अध्ययन करना पड़ा। कृष्ण-चरित्र मुख्यतः छः ग्रन्थों में प्राप्त होता है-ब्रह्मपुराण, विष्णु- पुराण, महाभारत पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, हरिवंश पुराण और श्रीकृष्ण-कथा विस्तार से मिलती है।
इन पुराणों में ब्रह्मपुराण और विष्णुपुराण में कथा प्रायः एक-सी है, हरिवंश पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण तथा श्रीमदभागवत की कथा कुछ हद तक मिलती-जुलती है।

पुराणों की कथाओं में भिन्नता होने के कारण किसी एक पुराण पर इस उपन्यास को आधृत करना था। ऐसी स्थिति में, मुझे इन सारे ग्रंथों के अध्याय के पश्चात बहुत हद तक अपना स्वतन्त्र विचार निर्धारित करने को बाध्य होना पड़ा।
पुराण और इतिहास में यद्यपि अन्तर नहीं है क्योंकि पुराणों का आधार भी इतिहास ही होता है किन्तु पुराणकारों की यह विशेषता होती है कि वे अति-शयोक्तियों और रूपकों का सहारा लेकर ऐतिहासिक  गाथा को सामान्य जन के मध्य लोकप्रिय बनाने का प्रयास करते हैं। साथ ही जो पुराण जिस व्यक्ति-विशेष से सम्बन्धित होता है, उसी को वह सर्वोंपरि मानता है और उसे ईश्वर तक पहुँचाने का प्रयास करता है।

ऐसी स्थिति में अगर पुराणों को अतिशयोक्तियों और अनावश्यकों रूपकों से मुक्त कर दिया जाए तो पौराणिक आख्यान भी इतिहास की प्रामाणिकता प्राप्त कर सकते है और पौराणिक उपन्यास भी ऐतिहासिक उपन्यास की श्रेणी में आ सकते हैं।
 मैं यह कहने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा कि मैंने इस उपन्यास को पौराणिक कम और ऐतिहासिक अधिक बनाने का प्रयास किया है। दूसरे शब्दों में मैं इसे पौराणिक उपन्यास कहने के बदले ऐतिहासिक उपन्यास कहना अधिक पसन्द करूँगा।

मेरे उपयुक्त कथन का कुछ आधार है। कृष्ण और उनके समय के अन्य व्यक्तियों की ऐतिहासिकता पर प्रश्न-चिह्न लगाना आसान नहीं। उनके काल में मगध में जरासंध का राज्य रहा। राजगृह में जरासंध की राजधानी थी जिसके प्रमाण आज भी वहाँ कई रूपों में मिलते हैं। अगर जरासंघ की ऐतिहासिकता असंदिग्ध है तो कृष्ण की ऐतिहासिकता को संदिग्ध करने में हमें कोई अधिकार नहीं। सारे विद्वान ने महाभारत-युद्ध की ऐतिहासिकता को स्वीकारा है और माना है कि वह आज से प्रायः पाँच हजार वर्ष पूर्व लड़ा गया।

आगे चलकर पुराणों ने विशेषकर श्रीमदभागवत ने कृष्ण-चरित्र को अति-शयोक्तियों चमत्कारों और रूपकों में भर दिया। इसके फलस्वरूप कृष्ण मनुष्य न रहकर ईश्वर बन आए। भागवतकार ने स्पष्ट कहा है कि अन्य सारे अवतार तो अंशावतार मात्र थे, कृष्ण स्वयं भगवान थे-

कृष्णस्तु भगवान स्वयम्।

मैंने इस पुस्तक में कृष्ण को भगवान के रूप में न देखकर मनुष्य के रूप में देखने का प्रयास किया है।, यह बात और है कि यह मनुष्य शनैः-शनै मनुष्यत्व को लाँघता हुआ देवत्व और अंततः ईश्वरत्व को प्राप्त कर लेता है। इस पुस्तक के प्रणयन के समय मेरा दृष्टिकोण स्पष्टकोण स्पष्टतः यह रहा है कि भगवान पैदा नहीं होता बल्कि बनता है। राम को भी भगवान मानें तो राम भगवान के रूप में पैदा नहीं हुए थे अपितु उनके कर्तव्यों-उनकी वीरता, उनके शौर्य, उनका त्याग और उनके दैवी गुणों ने धीरे-धीरे भगवान बनाया। आज जो लोग बुद्ध, महावीर जैन तथा ईसा (क्राइस्ट) को भी धीरे-धीरे भगवान मानने लगे हैं। भगवतकार ने भी बुद्ध को ईश्वर का अवतार माना है। ये सारे ऐतिहासिक पुरुष हैं और मनुष्य से भगवान बने हैं न भगवान बनकर ही पैदा हुए।  

इसी तथ्य को मैंने इस पुस्तक के लिखने के समय सतत् ध्यानगत रखा है। यही कारण है कि मैंने कृष्ण-चरित्र से जुड़े चमत्कारों को ग्रहण करने में संकोच किया है और हर घटना को जिस पुराणकारों ने चमत्कार के रूप में लिया है, मैंने प्राकृतिक अथवा वैज्ञानिक रूप देने का प्रयास किया है। यही कारण है  कि मेरे कृष्ण के एक साधारण शिशु के रूप में पैदा होते ही कारागार के कपाट स्वयं नहीं खुल जाते और न ही भाद्रपद की उफनती यमुना केवल कृष्ण-चरणों का स्पर्श प्राप्त कर कृष्ण को मार्ग दे देती है। इसी रूप में अन्य बातों को भी लिया जा सकता है। द्रौपदी के चीर–हरण की बात को भी उस अतिरंजना से मुक्त रखा है, जिससे उसे पुराणकारों अथवा अन्य भक्त-कवियों ने युक्त किया है।
इस संदर्भ में और कुछ कहने की आवश्यकता है। निश्चय ही कृष्ण-चरित्र के साथ बहुत अन्याय हुआ है विशेषकर कुछेक पुराणों एवं श्रृंगारिक कवियों द्वारा राधा का नाम कृष्ण के साथ जोड़कर ऐसी-ऐसी कामुक रचनाओं का प्रणयन हुआ है कि बहुतों को कृष्ण को भगवान क्या एक शिष्ट मनुष्य कहने में भी शर्म आती है। निश्चित ही ऐसे लेखकों ने या तो अपनी दमित वासनाओं को ऐसे लेखन के द्वारा उजागर किया है अथवा राधा-कृष्ण की लीला का सहारा लेकर आश्रम-दाताओं-राजाओं, सामन्तों-के मनोरंजन अथवा उनकी काम भावना को संतृप्त करने का प्रयास किया है।

मेरा उपर्युक्त आरोप निराधार नहीं है। श्रीमदभागवत कृष्ण-चरित्र का प्रामाणिक और एक तरह से अद्यतन ग्रन्थ माना जाता है। यद्यपि मेरे विचार से ब्रह्मवैवर्त पुराण की रचना भागवत की रचना के पश्चात् हुई, फिर भी श्रीमद्भागवत को कृष्ण के सन्दर्भ में जो प्रतिष्ठा प्राप्त हुई वह किसी अन्य ग्रन्थ को उपलब्ध नहीं हो सकी। पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस भागवत में राधा का एक बार भी उल्लेख नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में राधा-कृष्ण की केलि-क्रीड़ाओं, प्रणय-प्रसंगों आदि का वर्णन कृष्ण-चरित्र के साथ अन्याय नहीं तो और क्या है  ?

बात यहीं तक सीमित रहती है तो कोई बात नहीं थी। कहने वाले राधा को परकीया भी कह गए और प्रत्यक्षतः वह श्रीकृष्ण पर परस्त्री-गमन का आरोप लगाने से भी नहीं चूके। ढ़ूँढनेवाले ने अपनी कल्पना  का कमाल दिखाया और राधा के पति का नाम ढूँढ़ निकाला। बँगला के एक उपन्यासकार ने तो जी भरकर इस परकीया से कृष्ण की केलि कराई। अब वह किसी पौराणिक अथवा ऐतिहासिक तथ्य को उद्घाटित कर रहा था या अपनी दमित-वासनाओं और कुण्ठाओं को खुल खेलने का अवसर दे रहा था, यह तो पाठक ही कहेंगे। श्रृंगारिक कवियों ने जो कमाल  किया उसे कहने की आवश्यकता नहीं, किंतु राधा-कृष्ण को ढ़ाल बनाकर इस खेल को खेलने का अपराध उन्होंने किया, उसका उदाहरण अन्यत्र ढूँढे़ नहीं मिलता है।

पुराणों में ब्रह्मवैवर्त पुराणों में राधा का उल्लेख अवश्य आया है परन्तु भक्ति-प्रधान होने के कारण इस ग्रन्थ में राधा को कृष्ण की सहचरी होने के साथ-साथ सीता, पार्वती अथवा लक्ष्मी की तरह एक पूजनीय नारी के रूप में ही प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। कृष्ण इस ग्रन्थ में राधा की ‘साध्वि’ संबोधन प्रद�

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