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लोकेश जी के गीतों का संग्रह
लोकेश जी के गीत
• डॉ. शिव ओम अम्बर
शब्द की अविराम साधना का एक पूरा युग जीने वाले लोकेश जी के गीत भावनाओं के असीम आकाश की रात्रिकालीन नीरवता को विभूषित करने वाले ज्योतिष्मन्त स्वर हैं। उनमें एक संवेदनशील चित्त की तरलता, एक वाग्सिद्ध कवि की सरलता और एक समय-सचेत अन्तस् की विह्वलता का त्रिवेणी संगम घटित हआ है। कविवर नीरज की एक अभिनन्द्य अभिव्यक्ति है -
जब गीतकार जन्मा धरती बन गई गोद
हो उठा पवन चंचल झूलना झुलाने को,
भ्रमरों ने दिशि-दिश गूँज बजाई शहनाई
आई सोहागिनी कोयल सोहर गाने को।
करुणा ने चूमा भाल दिया आशीर्वाद
पीड़ा ने शोधी राशि प्रीति ने धरा नाम,
जय हो वाणी के पुत्र घोष कर उठी बीन
अम्बर उतरा आँगन में करने को प्रणाम।
इसी प्रकार सोम जी का अभिमत है -
कहने को तो हम आवारा स्वर हैं
इस वक़्त सुबह के आमन्त्रण पर हैं,
हम ले आये हैं बीज उजाले के
पहचानो सूरज के हस्ताक्षर हैं।
उपर्युक्त पंक्तियाँ संकेतित करती हैं कि एक सच्चे गीतकार के रचना संसार में प्रीति का प्रस्तार, भ्रमरों का गुंजार, करुणा का संस्कार और पीड़ा का पारावार समाहित होता है और वह स्वयं पृथ्वी पर सूर्य का हस्ताक्षर बनकर विचरण करता है।
विवेच्य रचनाकार लोकेश जी उपर्युक्त अभिवचनों की सार्थकता के सफल दृष्टान्त हैं। उनके गीत एक ओर शास्त्रीय मानकों की कसौटी पर स्वर्णरेखा अंकित करते हैं तो दूसरी ओर शाश्वत संवेदना का स्वस्ति-लेख बनकर हमारे सामने उपस्थित होते हैं। कुछ पंक्तियों के उद्धरण उनके अन्तर्व्यक्तित्व से हमारे परिचय को गहरा कर सकेंगे -
1.
ख़ुशबू के आभास न होते
तुम फिर मेरे पास न होते।
2.
सुरभि बिखेरी जबसे तुमने
एकाकी मेरे जीवन में,
महक उठा है कोना-कोना
सूने-सूने घर आँगन में। .........
अवरोधों से रुकी हुई थी
जलधारा गतिमान हुई है,
छुए अनछुए सभी तटों की
एक नई पहचान हुई है।
मुक्त किया है जबसे तुमने
अभिशापित बन्धन से मुझको,
सतरंगी किरनों के रथ पर
भोर खड़ी है अभिनन्दन में। ..........
हमारे परम पवित्र महामृत्युंजय मन्त्र में परमात्मा को प्रणाम करते हुए उसे "सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्" कहकर पुकारा गया है और कामना की गई है कि वह मर्त्य जीवन के पाश से मुक्ति दे किन्तु अमृत प्रीति के धागे से कभी मुक्त न होने दे - "मा अमृतात्"।
भारतीय संस्कृति चेतना और वैदिक मनीषा के संस्पर्श हर संस्कारशील कवि के द्वारा प्रस्तुत बिम्बों के निर्माण में अपनी अदृश्य भूमिका का निर्वाह करते हैं। लोकेश जी के गीतों में यत्र-तत्र प्रकट अर्थगर्भ प्रतीक और बिम्ब उनकी रचनात्मकता की शास्त्रीयता को व्यंजित करते हैं तो उनकी सहज प्रवाहमयी भाषा विराट् जन-मानस के साथ अनायास सहज संवाद के सूत्र जोड़ लेती है। राजनीतिक परिवेश में परिव्याप्त विषाक्तता उन्हें विक्षुब्ध करती है और निर्वाक् भी! वह चुप रहना चाहकर भी आन्तरिक विह्वलता के कारण चुप नहीं रह पाते। इसी प्रसंग में अनायास याद आते हैं दुष्यन्त कुमार -
जी रहे मुझमें करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।
लोकेश जी के गीत भी इसी भाव-भंगिमा के साथ समय के मंच पर अवतरित होते हैं -
जीवन की बिसात उलटी है
राजनीति के पाँसों ने
आँगन-आँगन उठीं दिवारें
दावानल है साँसों में
कैसे बात बनेगी कोई
जब शासन हों छल-बल के। .........
नौनिहाल काँधों को
पर्वत ढोने की दुश्वारी है
होठों पर हैं विष के प्याले
पीने की लाचारी है
सूखी नदी देखकर भी जब
पाँव न ठिठके बादल के।
हमारे समय की यह त्रासदी है कि कभी वतन के लिये शहादत और वतन के लिये मोहब्बत तथा इबादत का पर्याय रही राजनीति आज तिजारत की इबारत में बदल गई है और सर्वत्र कोलाहल के कथानक तथा दावानल के मानक रच रही है। नई पीढ़ी की पीठ पर पर्वतों का बोझ है और जीवन शनैः शनैः विषदंश बनता जा रहा है। हमारा गीतकार बेसुरे मौसम की निःश्वासों को कलात्मकता के साथ अपनी गीति-पंक्तियों में अभिव्यंजित कर सका है। किन्तु एक आस्थावादी चेतना का हस्ताक्षर होने के नाते वह नकारात्मकता के नक्कारख़ाने को अधिक समय के लिये मान्यता देने को तैयार नहीं है अपितु समय के सिंह द्वार पर सकारात्मकता की बन्दनवार बाँधने को प्रतिश्रुत है -
1.
मन को ज़रा बदल के देखो
घर-चौबारे फिर महकेंगे। ......
दिल के रोशनदान खुलें तो
ढाई आखर फिर चहकेंगे।
2.
बाहर नहीं तलाशो कुछ भी,
भीतर सब कुछ मिल जायेगा।
अपने पास ज़रा बैठो तुम
उतरो मन की गहराई में,
मिल जाते प्रश्नों के उत्तर
आसानी से तनहाई में।
होने दो अंकुरित बीज को
फूलों का मौसम छायेगा।
3. आशा के दीप तो जलाओ,
कुछ न कुछ तो प्रकाश होगा।
अपने किरदार को निभाओ,
कुछ न कुछ तो उजास होगा।
श्रीमद्भगवद्गीता में "स्वधर्मे निधनं श्रेयः" का जो मन्त्र दिया गया है उसे "अपने किरदार को निभाओ" में ढालकर तथा कबीर के ढाई आखरों की चर्चा करके और "योगस्थः कुरु कर्माणि" को गीत की पंक्तियों में अनुस्यूत कर लोकेश जी ने सिद्ध किया है कि किस तरह एक कारयित्री प्रतिभा गीत के वक्ष पर अध्यात्म के पीताम्बर को विभूषित कर देती है। उनके दोहे और मुक्तक भी इन विधाओं में उनके अभिव्यंजन की सशक्तता का साक्ष्य देते हैं। संसार की किसी भी वर्णमाला में माँ से बढ़कर कोई शब्द नहीं है। उसका ज़िक्र आते ही कविता अनायास आरती बन जाती है -
काँटों मे खिलती सदा माँ तो एक गुलाब,
सदा लुटाती ख़ुशबुएँ करती नहीं हिसाब।
हार्दिक सम्बन्धों को वैधानिक अनुबन्धों में परिवर्तित होते देखना साहित्य के दर्पण का एक युगीन संत्रास है -
सम्बन्धों में पेंच हैं पेंचों में सम्बन्ध,
रिश्ते अब तो हो गये बस केवल अनुबन्ध।
इस परिवेश में राष्ट्र पर बलिदान होने वाले जवान को सम्मान देने वाले तिरंगे का जयगान कविवर लोकेश की अभिव्यक्ति में क्षितिज पर उभर रहे अरुणिम विहान का अभिधान बन जाता है -
कई आँखें बरसती हैं किसी का दिल तड़पता है
कोई वीरान आँखों की बीनाई में ठहरता है
जब इक सैनिक शहीद होता है अपने देश की ख़ातिर
तिरंगा गर्व से उसके बदन से जा लिपटता है।
लोकेश जी समकालीन गीति-विधान के अरुणाभ अभियान, प्रतिभा के प्रतिष्ठान और कलात्मकता के कीर्तिमान बनकर सहृदयों की चेतना में विराजमान हैं।
- डॉ० शिव ओम अम्बर
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