कहानी संग्रह >> नदी बहती है नदी बहती हैरामदरश मिश्र
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लेखक की कुछ विशिष्ट रचनाओं का संचयन
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रख्यात साहित्यकार डॉ. रामदरश मिश्र ने नाटक के अतिरिक्त प्रायः सभी
प्रमुख विधाओं में लिखा है। कविता से अपनी यात्रा शुरू कर आज तक शिद्दत से
उसके साथ चलने वाले मिश्रजी ने कथा (कहानी और उपन्यास) के क्षेत्र में भी
विपुल साहित्य की रचना की है और कविता की तरह कथा भी उनकी प्रमुख विधा बन
गई है। इसके अतिरिक्त इन्होंने बहुत से निबंध, यात्रा-वृत्तांत एवं
संस्मरण भी लिखे हैं और इन विधाओं के क्षेत्र में भी अपनी प्रभावशाली
पहचान बनाई है। इनकी आत्मकथा ‘सहचर है समय’ का अपना
विशेष रंग
और सौंदर्य है। उसकी गणना हिंदी की विशिष्ट आत्मकथाओं में होती है। आलोचना
के क्षेत्र में भी इन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण दिया है। भले ही ये अपने
आलोचक की छवि को विशेष महत्त्व नहीं देते हों।
मिश्रजी की लगभग समग्र रचनाएँ चौदह खंडों में प्रकाशित हुई हैं। जाहिर है कि पाठकों को मिश्रजी के समूचे साहित्य से गुजरना सरल प्रतीत नहीं होता होगा।
इसलिए यह आवश्यक समझा गया कि उनके समस्त सृजनात्मक लेखन में से कुछ विशिष्ट रचनाओं का चयन करके पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए, ताकि पाठक थोड़े़ में एक साथ मिश्रजी की रचनात्मक यात्रा का साक्षात्कार कर सकें। इन्हें इनकी रचनात्मक व्याप्ति का अनुभव तो हो ही, विशिष्टताओं तथा उपलब्धियों की प्रतीति भी हो।
अतः अलग-अलग दो संकलनों ‘दर्द की हँसी’ तथा ‘नदी बहती है’ में उनकी कुछ चुनी हुई रचनाएँ प्रस्तुत की जा रही हैं। हाँ, इनमें उपन्यास-अंश नहीं है। उपन्यास पूरे पढ़े़ जाने चाहिए।
मिश्रजी की लगभग समग्र रचनाएँ चौदह खंडों में प्रकाशित हुई हैं। जाहिर है कि पाठकों को मिश्रजी के समूचे साहित्य से गुजरना सरल प्रतीत नहीं होता होगा।
इसलिए यह आवश्यक समझा गया कि उनके समस्त सृजनात्मक लेखन में से कुछ विशिष्ट रचनाओं का चयन करके पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए, ताकि पाठक थोड़े़ में एक साथ मिश्रजी की रचनात्मक यात्रा का साक्षात्कार कर सकें। इन्हें इनकी रचनात्मक व्याप्ति का अनुभव तो हो ही, विशिष्टताओं तथा उपलब्धियों की प्रतीति भी हो।
अतः अलग-अलग दो संकलनों ‘दर्द की हँसी’ तथा ‘नदी बहती है’ में उनकी कुछ चुनी हुई रचनाएँ प्रस्तुत की जा रही हैं। हाँ, इनमें उपन्यास-अंश नहीं है। उपन्यास पूरे पढ़े़ जाने चाहिए।
यात्रा-वृत्त
क्याँगजू
उस दिन हम कहीं घूमने नहीं जा सके। ली अपने चाचा और पत्नी के साथ बाजार
गए-कुछ खाने-पीने की चीजों की व्यवस्था करने। हम सोकर उठे तो
सोचा-बैठे-बैठे क्या करें, चलो आस-पास कहीं घूम आते हैं। होटल थोड़ी ऊँचाई
पर था। उसके एक ओर पहाड़ियाँ थीं, दूसरी ओर क्याँगजू का समतल विस्तार।
हमने घुमावदार चौड़ी सड़क के बजाय होटल की दूसरी बगल की पेड़ों की छाँह
भरी पतली गली से बाहर की ओर चलना शुरू किया। उस होटल के नीचे कोई गेस्ट
हाउस था, अतः जिस गली से हम गुजर रहे थे वह बहुत रोमांटिक लग रही थी। घास,
पेड़ और बगल में नीचे की ओर गेस्ट हाउस का छोटा सा चिड़ि़याघर। चिड़ि़याघर
के कुछ पशु-पक्षियों के साथ तरह-तरह के पेड़। हलके-हलके बादल छाए थे, ठंडी
हवा बह रही थी और मोर पिऊ-पिऊ पिहक उठता था। हम गली से निकलकर चौड़ी सड़क
पर आ गए। उस सड़क ने ले जाकर हमें एक दोराहे पर छोड़ दिया। एक रास्ता बाईं
ओर, एक किलेनुमा मकान की ओर जा रहा था, दूसरा क्याँगजू के उन दृश्यों की
ओर, जिनसे होकर हम इस होटल तक आए थे।
वातावरण सुनसान था। इक्का-दुक्का लोग होटल की ओर जाते थे और उधर से आते थे। जो भी गुजरता हमें गौर से निहारता। टैक्सीवाले भी जाते-जाते थम जाते। लगता था कि ये लोग हमें भटका हुआ परदेशी समझकर सहायता के लिए ठमक जाते थे, किंतु जब हम कुछ नहीं बोलते थे तो चले जाते थे। फिलहाल हमारे पाँव उस किलेनुमा मकान की ओर चल पड़े। रास्ता सुनसान था और कुछ जंगली या गँवई किस्म का था। हमें अच्छा लग रहा था इस तरह चलना। उस रास्ते के दाईं ओर एक बड़ा सा मैदान था, जिसमें बीच-बीच में पेड़ खड़े़ थे। हम धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे, लेकिन भूगोल के प्रति सावधान थे। यदि दूर निकल गए तो भटक जाएँगे। कोई हमारी भाषा भी नहीं समझेगा, और संयोग से हमें अपने होटल का नाम भी याद नहीं था। अब लग रहा है, याद कर लेना चाहिए था। शुद्ध कोरियाई भाषा के नाम याद भी तो नहीं होते थे; किंतु इसका नाम अंग्रेजी में भी था-ग्रेस होटल।
हम शाम के धुँधलके में कुछ दूर तक गए, दो-एक व्यक्तियों ने हमें देखा। भटकने के भय से हम वहाँ से फिर धीरे-धीरे ग्रेस होटल के पास के दोराहे पर लौट आए। एक बार सोचा कि होटल लौट चलें, लेकिन वे मनोरम दृश्य बुला रहे थे, जिन्हें होटल आते समय देखा था। इसलिए पाँव होटल की ओर जाने के स्थान पर दूसरी ओर की सड़क पर चल पड़े़। थोड़ी दूर पर एक प्रशस्त सुंदर चौराहा था, चारों ओर फूल खिले थे। मिट्टी के कुछ स्तूपों पर पुष्पित लताएँ लिपटकर उन्हें एक विशाल फूल के रूप में परिणत कर रही थीं। इस देश में यहाँ-से-वहाँ तक फूलों का विस्तार देखा। ये फूल खुले रूप में सड़कों के किनारे हँस-विहँस रहे थे, उनकी रखवाली में न कोई आदमी था, न बाड़। फिर भी ये सुरक्षित थे। कोई आदमी इन्हें तोड़ता नहीं था। याद आता था अपना देश, जहाँ किसी के मकान के अहाते में घुसकर वहाँ खिले फूलों को लोग (और विशेषतया बच्चे) तोड़ लेते हैं। बगीचों की तो बात ही क्या ? चौराहे से बाएँ मुड़कर हम पुल की ओर चले। पुल के पार बच्चों के खेलने-कूदने की रंगीन दुनिया बनी थी। वह दुनिया हमें खींच रही थी बाईं ओर वही खुला मैदान था जिसकी चर्चा अभी कर चुका हूँ। उसके किनारे के पैदल पथ से हम पुल की ओर सरक रहे थे। आते-जाते लोग हमें निहार रहे थे। पुल पर जाकर खड़े हो गए। नीचे पानी का संगीत था, ऊपर बादलों का विस्तार और हलका-हलका गर्जन। आगे उस पार बच्चों का मनोहारी क्रीड़ा-संसार। पानी आने की आशंका थी, फिर भी उस पार तक जाकर थोड़ा समीप से क्रीड़ा-जगत् को देखा, फिर उस, वातावरण से मुक्ति न चाहते हुए भी होटल की ओर लौट आए।
कमरे में आराम कर रहे थे कि ली दल-बल सहित आ गए। उन्होंने श्रीमतीजी से कहा, ‘‘आप रोटी बना लीजिए।’’ कहाँ ?’’ उन्होंने पूछा। ‘‘होटल के बाहर की सड़क पर। हम लोग अपने लिए तो खाने की चीजें लाए हैं, बस आप थोड़ी सब्जी और रोटी बना लीजिए। हमने होटल वालों से पूछ लिया है और कुछ आवश्यक चीजें वहाँ से ले ली हैं।’’
हम लोग-यानी ली, उनके चाचा और पत्नी के साथ उसी गली में गए जिससे होकर बाहर गए थे। ली ने हमारी यात्रा से पूर्व लिख दिया था कि पाँच किलो आटा लेते आइएगा। ली ने वह आटा साथ रख लिया था और उसके साथ घी, स्टोव, बरतन, चम्मच, तश्तरी आदि भी रख लिये थे। हर यात्रा से पूर्व वे थर्मस में हमारे लिए चाय भर लेते थे। यह चाय चौबीस घंटे तक गरम रहती थी। अतः स्टोव जलाया गया। ठंडी हवा बह रही थी। स्टोव को जलाने और उसके जलते रहने के लिए बड़ी कोशिश करनी पड़ी। आखिर रोटी बन ही गई और आलू-टमाटर की सब्जी भी। फिर कल के लिए चाय बनाकर थर्मस में भरी गई। इसे कहते हैं ‘जंगल में मंगल’! लेकिन हमारे इस मंगल के लिए ली और उसके परिवारीजन, जो चिंता और श्रम कर रहे थे वह दुर्लभ नहीं तो विरल अवश्य था।
कमरा अच्छा था, लेकिन यहाँ लोग प्रायः नीचे ही सोते हैं। यहाँ फर्श पर लिनोलियम बिछा होता है, इसलिए बहुत चिकना होता है और ठंडा़ तथा पहाड़ी़ प्रदेश होने के कारण कीड़े़-मकोड़ों का वह प्रकोप नहीं होता जो गरम मुल्कों में होता है। हम दूसरी मंजिल पर थे। पानी बरसने लगा था। हमने शीशा खोल दिया था इसलिए एक ओर से तो हवा आ रही थी, किंतु उसके निकलने के लिए कोई जगह नहीं थी। अतः बारिश के बावजूद हम घुटन महसूस कर रहे थे। हमारी नजर टेबल फैन पर गई। चलो अच्छा हुआ। यहाँ के घरों में पंखे शायद ही होते हैं। जहाँ मकान-शीत-ताप नियंत्रित हैं वहाँ तो ठीक, किंतु जहाँ नहीं हैं वहाँ भी पंखे नहीं दिखाई पड़ते और लोग प्रायः कमरे बंद करके सोते हैं। हम लोग तो कमरे की सारी खिड़कियाँ खोलकर पंखे के नीचे सोने के अभ्यस्त हैं।
यहाँ पंखा मिल गया तो राहत महसूस हुई। कमरे में ठंडक थी और हम रजाई भी ओढ़े़ हुए थे, लेकिन पंखा चला रखा था। उसके बिना घुटन होने लगती थी। सबकुछ ठीक चल रहा था, लेकिन रात को कुछ घुटन सी होने लगी। मैंने रजाई उतारकर रख दी, लेकिन बिना रजाई के भी सोना कठिन लगने लगा। कहाँ क्या गड़बड़ है समझ में नहीं आ रहा था। नींद टूट गई थी और मैं घंटों रजाई ओढ़ने और उतार फेंकने के क्रम से गुजरता रहा। पत्नी की नींद मुझसे कहीं अच्छी है। देखा वे सो रही थीं। किसी तरह रात बीती। सुबह को ली ने बताया, ‘‘बारिश के कारण उत्पन्न ठंड़क कम करने के लिए होटलवालों ने रात को फर्श गरम कर दिया था।’’ ‘‘धत्तेरे की !’’ मैं बोला। ‘‘क्यों, ठीक से नींद नहीं आ रही थी ?’’ ‘‘कैसे आएगी, जब पीठ के नीचे ज्वालामुखी बिछा दिया जाएगा।’’ हम सभी हँसे।
हमें सवेरे क्याँगजू दर्शन के लिए निकलना था। पानी बरस रहा था। श्री मिन्हा ली ने हमारे लिए दो नए छाते भी रख लिये थे और अब उनके इस्तेमाल की बारी आई। ली ने मेरे लिए एक गरम कोट तथा पत्नी के लिए गरम शॉल रख ली थी। इनके इस्तेमाल का भी समय आ गया था। बारिश के कारण बाहर हवा में खूब ठंडक भर गई थी। सबसे पहले हम कुछ किलोमीटर दूर गुफा स्थित बुद्ध मंदिर की ओर चले। कितनी सुंदर सड़क-कभी खुले में फैल जाती थी, कभी वन्य-परिवेश में धँसती हुई चारों ओर की हरियालियों से लद जाती थी। वन्य-परिवेश की निःशब्दता में बादल का गर्जन और बिजली की कड़क एक भयावह शोर भर देती थी। कुछ देर में हम बुद्ध मंदिर के पास पहुँच गए, लेकिन शायद अभी नहीं। यहाँ से टिकट लेकर अभी और आगे जाना है पैदल। ली के चाचा तो वहीं रुक गए, किंतु हम चारों छाता ताने हुए मंदिर की ओर चले। यह एक पतली सड़क थी, जो बुद्ध मंदिर की ओर जा रही थी। उनके एक ओर खड़ा पहाड़ था, दूसरी ओर गहरी खाइयाँ थीं।
सुरक्षा के लिए खाई की ओर एक फुट ऊँची दीवार बना दी गई थी। पानी खूब बरस रहा था, हम ठंड से काँप रहे थे और रास्ता बढ़ता ही जा रहा था। स्कूल के बच्चे भी आए हुए थे और हमें देखते हुए मुस्करा रहे थे, आपस में कुछ कह रहे थे-शायद यही कि ये लोग इंडिया से आए हैं। जहाँ के शाक्य मुनि थे और जहाँ उनके अनेक सुंदर मंदिर हैं। इंडिया में औरतें साड़ी पहनती हैं। ली ने बताया कि ‘‘हाँ, बच्चे यही सब कह रहे हैं। स्कूल में भारत के संबंध में यह सब पढ़ते हैं न।’’ बच्चे भीगते-भागते कीचड़ भरे रास्ते में उछलते-कूदते बुद्ध मंदिर की ओर भागे जा रहे थे। लगभग एक किलोमीटर के बाद बुद्ध मंदिर आया। मंदिर की विशेषता यह थी कि यह गुफा में था। शायद गुफा के पत्थरों को काटकर ही मूर्तियाँ बनाई गई थीं। बुद्ध प्रतिमा से पहले कुछ और प्रतिमाएँ थीं, जिनमें से कुछ भयंकर थीं-यानी दानवीय। कुछ देर ठहरकर हम उसी रास्ते वापस हो रहे थे। बच्चे उसी तरह बारिश में भीगते उछलते-कूदते लौट रहे थे और हम सँभल-सँभलकर छतरी में अपने को समेटते हुए धीरे-धीरे लौट रहे थे। वहाँ आ गए जहाँ से पैदल चले थे। वहाँ भी एक बुद्ध मंदिर था, उसे भी देखने लगे। पानी कुछ थम गया था। यह मंदिर एक प्रशस्त खुले आँगन में बना था। उस आँगन में हम थोड़ी देर बैठे और ली हमारी फोटो लेते रहे। फोटो तो वे हर जगह लेते रहे। बच्चे-बच्चियाँ बहुत अपनेपन के साथ हमें देख रहे थे। वे शाक्य मुनि के मंदिर में अपने साथ भारतीयों को देखकर शायद और भी आनंदित हो रहे थे।
एक लड़की तो ज्यादा ही प्रसन्न थी। गुफा मंदिर में जाते समय रास्ते में मिली थी। उसने अन्येहस्मिका (नमस्ते) कहा था और स्वतः स्फूर्जित होकर बताने लगी थी, ‘‘मैं बहुत अच्छी लड़की हूँ, पढ़ने में तेज भी हूँ। अपनी क्लास में मॉनीटर हूँ। आपके देश के बारे में पढ़ा़ है। आपको देखते ही जान गई कि आप लोग भारतीय हैं।’’ फिर वह नमस्ते करके आगे बढ़ गई थी। ‘अन्येहस्मिका’ हमने चौंककर देखा। ‘‘मैं वहीं लड़की हूँ जो गुफा मंदिर में जाते समय मिली थी।’’ वह मुस्करा रही थी। हम भी हँसने लगे। मैंने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा, ‘‘खुश रहो बेटे, तुम वास्तव में नन्हीं मसीहा हो और विभिन्न देशों के बीच मानवीय तथा सांस्कृतिक राजदूत।’’ मेरे कथन का अनुवाद सुनकर वह बहुत भावुक हो आई और अपनी दोस्तों के साथ दूर जाते हुए बार-बार मुड़कर हमें देखती रही।
वहाँ से हम लोग राजाओं की समाधियाँ देखने गए। पानी फिर बरसने लगा था और हम टिकट लेकर एक समाधि की ओर बढ़े़। टिकट-स्थल और समाधि के बीच खुला स्वच्छ मैदान था, जिसमें बजरी बिछी थी और यहाँ-वहाँ चीड़ जैसे पेड़ खड़े थे, जिनके बीच से बड़ी प्यारी पतली सी सड़क समाधि की ओर जा रही थी। उस सड़क पर छतरियाँ ताने हुए स्कूल के अनंत बच्चे....। हम जहां कहीं गए परिवेश बहुत मोहक और स्वच्छ लगा। इस मैदान में ही एक ओर एक बड़ा सा पोखर था, जिसमें लाल कमल खिले हुए थे। पोखर में तीरस्थ पेड़ों की मनोरम परछाइयाँ काँप रही थीं और तट पर छोटे-छोटे शिलाखंड खूबसूरती से जड़े गए थे। हम समाधि के पास पहुँचे। इस समाधि को करीने से आधा काटकर उसके बीच में एक बड़ा सा कक्ष बनाया गया था। नमूने के तौर पर समाधि का इतना हिस्सा काटकर देखने का प्रयत्न किया गया था कि इन सारी राज-समाधियों के भीतर क्या-क्या है ? और पाया गया कि जिसकी समाधि है उसकी अपनी सारी वस्तुएँ उसके साथ समाधि में दफना दी जाती थीं। इस समाधि में अनेक कीमती जेवर, शस्त्र, बरतन-भाँड़े आदि मिले, जिन्हें इसी कक्ष में प्रदर्शित किया गया था। समाधि देखकर हम दोपहर तक होटल लौट गए।
अपराह्न में हम फिर सैर के लिए निकले। हमें पता नहीं होता था कि हमें कहाँ ले जाया जा रहा है। हम तो बस अनुसरण कर रहे थे। इस बार हमने अपने को एक विशाल झील के किनारे पाया। इस झील को हम कल से ही देख रहे थे। कल शाम को जिस पुल पर गए थे वह इसी झील की एक धारा के ऊपर बना था। उस पुल पर खड़े होकर हम इस विशाल झील को हसरत भरी निगाह से देखते रहे थे। हमारी दृष्टि इस झील में खोई हुई उसके रहस्यमय उस तट तक चली गई थी जहाँ पता नहीं क्या होगा ! आज उसी झील के तट पर खड़े थे। ‘‘झील में सैर करना है ?’’ ली ने कहा और टिकट लेकर हम अंदर हो लिये। एक बतखनुमा स्वचालित नाव झील में तैरती हुई आ रही थी। ज्ञात हुआ इसी में चढ़ना है। नाव आई। हम उसमें जा बैठे। हम नाव के खुले हिस्से में बैठना ज्यादा पसंद करते, किंतु ठंडक बढ़ गई थी और झील के ऊपर तो बहुत ठंडी हवा बह रही थी, अतः अंदर बैठे। भीतरी भाग खूब सजा हुआ था। यहाँ जहाँ कहीं जाइए, जिस किसी माध्यम से जाइए सफाई और सजावट दिखाई पड़ती थी।
नाव खुली। वह झील को चीरती हुई दूसरे तट की ओर चली और उस तट के पास से होकर आगे बढ़ने लगी। वह ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती थी झील बड़ी होती जाती थी। यह झील गोलाकार होकर भी गोलाकार नहीं थी, जगह-जगह गोलाई को तोड़कर एक विशाल नदी की तरह एक ओर की भूमि को निगलती काफी दूर तक निकल गई होती थी। इसके चारों ओर तरह-तरह के हरे-भरे और लताओं का जंगल था, एक ओर जंगलों के पार पहाड़ था। जगह-जगह छोटे-छोटे घाट थे, जहाँ नावें दिखाई पड़ रही थीं। लगता था कि इन जंगलों में या जंगलों के पार कुछ बस्तियाँ हैं। हवा के बहने से झील में काफी बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही थीं। झील निश्चित ही बहुत गहरी होगी तभी तो उसके बीच में एक छोटा सा जहाज भी खड़ा था। झील के चारों ओर की परिक्रमा कराकर नाव लौट आई।
वहाँ से हम लोग एक बाजार में पहुँचे। चाचा को भूख लग आई थी। अब वे खाने-पीने की कोई दुकान खोजते फिर रहे थे। इसी क्रम में एक बूढ़े सज्जन दिखाई पड़े। चाचा ने बताया कि ये बूढ़े सज्जन इस पारंपरिक शहर के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति लग रहे हैं और इनकी वेशभूषा भी एकदम पारंपरिक है। उन्होंने यहाँ की यादगार के लिए हमें उनके साथ फोटो खिंचवाने के लिए कहा। उन्होंने उस बुजुर्गवार से निवेदन किया तो वे एकदम तैयार हो गए।
रात को खा-पीकर लेटे तो अनुभव कर रहे थे कि आज के दिन की सारी छवियाँ हमारे भीतर भर आई हैं और हम स्वयं अनेक दृश्यमय हो गए हैं। पानी बरस रहा था। शीशा खोल दिया था। पंखा भी चला रखा था। और चूँकि एकदम सवेरे यात्रा आरंभ करनी थी, इसलिए जल्दी सो जाना चाहते थे; लेकिन मन में एक खटका लगा हुआ था कि होटलवाले अभी फर्श गरम कर देंगे। तब ?
वातावरण सुनसान था। इक्का-दुक्का लोग होटल की ओर जाते थे और उधर से आते थे। जो भी गुजरता हमें गौर से निहारता। टैक्सीवाले भी जाते-जाते थम जाते। लगता था कि ये लोग हमें भटका हुआ परदेशी समझकर सहायता के लिए ठमक जाते थे, किंतु जब हम कुछ नहीं बोलते थे तो चले जाते थे। फिलहाल हमारे पाँव उस किलेनुमा मकान की ओर चल पड़े। रास्ता सुनसान था और कुछ जंगली या गँवई किस्म का था। हमें अच्छा लग रहा था इस तरह चलना। उस रास्ते के दाईं ओर एक बड़ा सा मैदान था, जिसमें बीच-बीच में पेड़ खड़े़ थे। हम धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे, लेकिन भूगोल के प्रति सावधान थे। यदि दूर निकल गए तो भटक जाएँगे। कोई हमारी भाषा भी नहीं समझेगा, और संयोग से हमें अपने होटल का नाम भी याद नहीं था। अब लग रहा है, याद कर लेना चाहिए था। शुद्ध कोरियाई भाषा के नाम याद भी तो नहीं होते थे; किंतु इसका नाम अंग्रेजी में भी था-ग्रेस होटल।
हम शाम के धुँधलके में कुछ दूर तक गए, दो-एक व्यक्तियों ने हमें देखा। भटकने के भय से हम वहाँ से फिर धीरे-धीरे ग्रेस होटल के पास के दोराहे पर लौट आए। एक बार सोचा कि होटल लौट चलें, लेकिन वे मनोरम दृश्य बुला रहे थे, जिन्हें होटल आते समय देखा था। इसलिए पाँव होटल की ओर जाने के स्थान पर दूसरी ओर की सड़क पर चल पड़े़। थोड़ी दूर पर एक प्रशस्त सुंदर चौराहा था, चारों ओर फूल खिले थे। मिट्टी के कुछ स्तूपों पर पुष्पित लताएँ लिपटकर उन्हें एक विशाल फूल के रूप में परिणत कर रही थीं। इस देश में यहाँ-से-वहाँ तक फूलों का विस्तार देखा। ये फूल खुले रूप में सड़कों के किनारे हँस-विहँस रहे थे, उनकी रखवाली में न कोई आदमी था, न बाड़। फिर भी ये सुरक्षित थे। कोई आदमी इन्हें तोड़ता नहीं था। याद आता था अपना देश, जहाँ किसी के मकान के अहाते में घुसकर वहाँ खिले फूलों को लोग (और विशेषतया बच्चे) तोड़ लेते हैं। बगीचों की तो बात ही क्या ? चौराहे से बाएँ मुड़कर हम पुल की ओर चले। पुल के पार बच्चों के खेलने-कूदने की रंगीन दुनिया बनी थी। वह दुनिया हमें खींच रही थी बाईं ओर वही खुला मैदान था जिसकी चर्चा अभी कर चुका हूँ। उसके किनारे के पैदल पथ से हम पुल की ओर सरक रहे थे। आते-जाते लोग हमें निहार रहे थे। पुल पर जाकर खड़े हो गए। नीचे पानी का संगीत था, ऊपर बादलों का विस्तार और हलका-हलका गर्जन। आगे उस पार बच्चों का मनोहारी क्रीड़ा-संसार। पानी आने की आशंका थी, फिर भी उस पार तक जाकर थोड़ा समीप से क्रीड़ा-जगत् को देखा, फिर उस, वातावरण से मुक्ति न चाहते हुए भी होटल की ओर लौट आए।
कमरे में आराम कर रहे थे कि ली दल-बल सहित आ गए। उन्होंने श्रीमतीजी से कहा, ‘‘आप रोटी बना लीजिए।’’ कहाँ ?’’ उन्होंने पूछा। ‘‘होटल के बाहर की सड़क पर। हम लोग अपने लिए तो खाने की चीजें लाए हैं, बस आप थोड़ी सब्जी और रोटी बना लीजिए। हमने होटल वालों से पूछ लिया है और कुछ आवश्यक चीजें वहाँ से ले ली हैं।’’
हम लोग-यानी ली, उनके चाचा और पत्नी के साथ उसी गली में गए जिससे होकर बाहर गए थे। ली ने हमारी यात्रा से पूर्व लिख दिया था कि पाँच किलो आटा लेते आइएगा। ली ने वह आटा साथ रख लिया था और उसके साथ घी, स्टोव, बरतन, चम्मच, तश्तरी आदि भी रख लिये थे। हर यात्रा से पूर्व वे थर्मस में हमारे लिए चाय भर लेते थे। यह चाय चौबीस घंटे तक गरम रहती थी। अतः स्टोव जलाया गया। ठंडी हवा बह रही थी। स्टोव को जलाने और उसके जलते रहने के लिए बड़ी कोशिश करनी पड़ी। आखिर रोटी बन ही गई और आलू-टमाटर की सब्जी भी। फिर कल के लिए चाय बनाकर थर्मस में भरी गई। इसे कहते हैं ‘जंगल में मंगल’! लेकिन हमारे इस मंगल के लिए ली और उसके परिवारीजन, जो चिंता और श्रम कर रहे थे वह दुर्लभ नहीं तो विरल अवश्य था।
कमरा अच्छा था, लेकिन यहाँ लोग प्रायः नीचे ही सोते हैं। यहाँ फर्श पर लिनोलियम बिछा होता है, इसलिए बहुत चिकना होता है और ठंडा़ तथा पहाड़ी़ प्रदेश होने के कारण कीड़े़-मकोड़ों का वह प्रकोप नहीं होता जो गरम मुल्कों में होता है। हम दूसरी मंजिल पर थे। पानी बरसने लगा था। हमने शीशा खोल दिया था इसलिए एक ओर से तो हवा आ रही थी, किंतु उसके निकलने के लिए कोई जगह नहीं थी। अतः बारिश के बावजूद हम घुटन महसूस कर रहे थे। हमारी नजर टेबल फैन पर गई। चलो अच्छा हुआ। यहाँ के घरों में पंखे शायद ही होते हैं। जहाँ मकान-शीत-ताप नियंत्रित हैं वहाँ तो ठीक, किंतु जहाँ नहीं हैं वहाँ भी पंखे नहीं दिखाई पड़ते और लोग प्रायः कमरे बंद करके सोते हैं। हम लोग तो कमरे की सारी खिड़कियाँ खोलकर पंखे के नीचे सोने के अभ्यस्त हैं।
यहाँ पंखा मिल गया तो राहत महसूस हुई। कमरे में ठंडक थी और हम रजाई भी ओढ़े़ हुए थे, लेकिन पंखा चला रखा था। उसके बिना घुटन होने लगती थी। सबकुछ ठीक चल रहा था, लेकिन रात को कुछ घुटन सी होने लगी। मैंने रजाई उतारकर रख दी, लेकिन बिना रजाई के भी सोना कठिन लगने लगा। कहाँ क्या गड़बड़ है समझ में नहीं आ रहा था। नींद टूट गई थी और मैं घंटों रजाई ओढ़ने और उतार फेंकने के क्रम से गुजरता रहा। पत्नी की नींद मुझसे कहीं अच्छी है। देखा वे सो रही थीं। किसी तरह रात बीती। सुबह को ली ने बताया, ‘‘बारिश के कारण उत्पन्न ठंड़क कम करने के लिए होटलवालों ने रात को फर्श गरम कर दिया था।’’ ‘‘धत्तेरे की !’’ मैं बोला। ‘‘क्यों, ठीक से नींद नहीं आ रही थी ?’’ ‘‘कैसे आएगी, जब पीठ के नीचे ज्वालामुखी बिछा दिया जाएगा।’’ हम सभी हँसे।
हमें सवेरे क्याँगजू दर्शन के लिए निकलना था। पानी बरस रहा था। श्री मिन्हा ली ने हमारे लिए दो नए छाते भी रख लिये थे और अब उनके इस्तेमाल की बारी आई। ली ने मेरे लिए एक गरम कोट तथा पत्नी के लिए गरम शॉल रख ली थी। इनके इस्तेमाल का भी समय आ गया था। बारिश के कारण बाहर हवा में खूब ठंडक भर गई थी। सबसे पहले हम कुछ किलोमीटर दूर गुफा स्थित बुद्ध मंदिर की ओर चले। कितनी सुंदर सड़क-कभी खुले में फैल जाती थी, कभी वन्य-परिवेश में धँसती हुई चारों ओर की हरियालियों से लद जाती थी। वन्य-परिवेश की निःशब्दता में बादल का गर्जन और बिजली की कड़क एक भयावह शोर भर देती थी। कुछ देर में हम बुद्ध मंदिर के पास पहुँच गए, लेकिन शायद अभी नहीं। यहाँ से टिकट लेकर अभी और आगे जाना है पैदल। ली के चाचा तो वहीं रुक गए, किंतु हम चारों छाता ताने हुए मंदिर की ओर चले। यह एक पतली सड़क थी, जो बुद्ध मंदिर की ओर जा रही थी। उनके एक ओर खड़ा पहाड़ था, दूसरी ओर गहरी खाइयाँ थीं।
सुरक्षा के लिए खाई की ओर एक फुट ऊँची दीवार बना दी गई थी। पानी खूब बरस रहा था, हम ठंड से काँप रहे थे और रास्ता बढ़ता ही जा रहा था। स्कूल के बच्चे भी आए हुए थे और हमें देखते हुए मुस्करा रहे थे, आपस में कुछ कह रहे थे-शायद यही कि ये लोग इंडिया से आए हैं। जहाँ के शाक्य मुनि थे और जहाँ उनके अनेक सुंदर मंदिर हैं। इंडिया में औरतें साड़ी पहनती हैं। ली ने बताया कि ‘‘हाँ, बच्चे यही सब कह रहे हैं। स्कूल में भारत के संबंध में यह सब पढ़ते हैं न।’’ बच्चे भीगते-भागते कीचड़ भरे रास्ते में उछलते-कूदते बुद्ध मंदिर की ओर भागे जा रहे थे। लगभग एक किलोमीटर के बाद बुद्ध मंदिर आया। मंदिर की विशेषता यह थी कि यह गुफा में था। शायद गुफा के पत्थरों को काटकर ही मूर्तियाँ बनाई गई थीं। बुद्ध प्रतिमा से पहले कुछ और प्रतिमाएँ थीं, जिनमें से कुछ भयंकर थीं-यानी दानवीय। कुछ देर ठहरकर हम उसी रास्ते वापस हो रहे थे। बच्चे उसी तरह बारिश में भीगते उछलते-कूदते लौट रहे थे और हम सँभल-सँभलकर छतरी में अपने को समेटते हुए धीरे-धीरे लौट रहे थे। वहाँ आ गए जहाँ से पैदल चले थे। वहाँ भी एक बुद्ध मंदिर था, उसे भी देखने लगे। पानी कुछ थम गया था। यह मंदिर एक प्रशस्त खुले आँगन में बना था। उस आँगन में हम थोड़ी देर बैठे और ली हमारी फोटो लेते रहे। फोटो तो वे हर जगह लेते रहे। बच्चे-बच्चियाँ बहुत अपनेपन के साथ हमें देख रहे थे। वे शाक्य मुनि के मंदिर में अपने साथ भारतीयों को देखकर शायद और भी आनंदित हो रहे थे।
एक लड़की तो ज्यादा ही प्रसन्न थी। गुफा मंदिर में जाते समय रास्ते में मिली थी। उसने अन्येहस्मिका (नमस्ते) कहा था और स्वतः स्फूर्जित होकर बताने लगी थी, ‘‘मैं बहुत अच्छी लड़की हूँ, पढ़ने में तेज भी हूँ। अपनी क्लास में मॉनीटर हूँ। आपके देश के बारे में पढ़ा़ है। आपको देखते ही जान गई कि आप लोग भारतीय हैं।’’ फिर वह नमस्ते करके आगे बढ़ गई थी। ‘अन्येहस्मिका’ हमने चौंककर देखा। ‘‘मैं वहीं लड़की हूँ जो गुफा मंदिर में जाते समय मिली थी।’’ वह मुस्करा रही थी। हम भी हँसने लगे। मैंने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा, ‘‘खुश रहो बेटे, तुम वास्तव में नन्हीं मसीहा हो और विभिन्न देशों के बीच मानवीय तथा सांस्कृतिक राजदूत।’’ मेरे कथन का अनुवाद सुनकर वह बहुत भावुक हो आई और अपनी दोस्तों के साथ दूर जाते हुए बार-बार मुड़कर हमें देखती रही।
वहाँ से हम लोग राजाओं की समाधियाँ देखने गए। पानी फिर बरसने लगा था और हम टिकट लेकर एक समाधि की ओर बढ़े़। टिकट-स्थल और समाधि के बीच खुला स्वच्छ मैदान था, जिसमें बजरी बिछी थी और यहाँ-वहाँ चीड़ जैसे पेड़ खड़े थे, जिनके बीच से बड़ी प्यारी पतली सी सड़क समाधि की ओर जा रही थी। उस सड़क पर छतरियाँ ताने हुए स्कूल के अनंत बच्चे....। हम जहां कहीं गए परिवेश बहुत मोहक और स्वच्छ लगा। इस मैदान में ही एक ओर एक बड़ा सा पोखर था, जिसमें लाल कमल खिले हुए थे। पोखर में तीरस्थ पेड़ों की मनोरम परछाइयाँ काँप रही थीं और तट पर छोटे-छोटे शिलाखंड खूबसूरती से जड़े गए थे। हम समाधि के पास पहुँचे। इस समाधि को करीने से आधा काटकर उसके बीच में एक बड़ा सा कक्ष बनाया गया था। नमूने के तौर पर समाधि का इतना हिस्सा काटकर देखने का प्रयत्न किया गया था कि इन सारी राज-समाधियों के भीतर क्या-क्या है ? और पाया गया कि जिसकी समाधि है उसकी अपनी सारी वस्तुएँ उसके साथ समाधि में दफना दी जाती थीं। इस समाधि में अनेक कीमती जेवर, शस्त्र, बरतन-भाँड़े आदि मिले, जिन्हें इसी कक्ष में प्रदर्शित किया गया था। समाधि देखकर हम दोपहर तक होटल लौट गए।
अपराह्न में हम फिर सैर के लिए निकले। हमें पता नहीं होता था कि हमें कहाँ ले जाया जा रहा है। हम तो बस अनुसरण कर रहे थे। इस बार हमने अपने को एक विशाल झील के किनारे पाया। इस झील को हम कल से ही देख रहे थे। कल शाम को जिस पुल पर गए थे वह इसी झील की एक धारा के ऊपर बना था। उस पुल पर खड़े होकर हम इस विशाल झील को हसरत भरी निगाह से देखते रहे थे। हमारी दृष्टि इस झील में खोई हुई उसके रहस्यमय उस तट तक चली गई थी जहाँ पता नहीं क्या होगा ! आज उसी झील के तट पर खड़े थे। ‘‘झील में सैर करना है ?’’ ली ने कहा और टिकट लेकर हम अंदर हो लिये। एक बतखनुमा स्वचालित नाव झील में तैरती हुई आ रही थी। ज्ञात हुआ इसी में चढ़ना है। नाव आई। हम उसमें जा बैठे। हम नाव के खुले हिस्से में बैठना ज्यादा पसंद करते, किंतु ठंडक बढ़ गई थी और झील के ऊपर तो बहुत ठंडी हवा बह रही थी, अतः अंदर बैठे। भीतरी भाग खूब सजा हुआ था। यहाँ जहाँ कहीं जाइए, जिस किसी माध्यम से जाइए सफाई और सजावट दिखाई पड़ती थी।
नाव खुली। वह झील को चीरती हुई दूसरे तट की ओर चली और उस तट के पास से होकर आगे बढ़ने लगी। वह ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती थी झील बड़ी होती जाती थी। यह झील गोलाकार होकर भी गोलाकार नहीं थी, जगह-जगह गोलाई को तोड़कर एक विशाल नदी की तरह एक ओर की भूमि को निगलती काफी दूर तक निकल गई होती थी। इसके चारों ओर तरह-तरह के हरे-भरे और लताओं का जंगल था, एक ओर जंगलों के पार पहाड़ था। जगह-जगह छोटे-छोटे घाट थे, जहाँ नावें दिखाई पड़ रही थीं। लगता था कि इन जंगलों में या जंगलों के पार कुछ बस्तियाँ हैं। हवा के बहने से झील में काफी बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही थीं। झील निश्चित ही बहुत गहरी होगी तभी तो उसके बीच में एक छोटा सा जहाज भी खड़ा था। झील के चारों ओर की परिक्रमा कराकर नाव लौट आई।
वहाँ से हम लोग एक बाजार में पहुँचे। चाचा को भूख लग आई थी। अब वे खाने-पीने की कोई दुकान खोजते फिर रहे थे। इसी क्रम में एक बूढ़े सज्जन दिखाई पड़े। चाचा ने बताया कि ये बूढ़े सज्जन इस पारंपरिक शहर के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति लग रहे हैं और इनकी वेशभूषा भी एकदम पारंपरिक है। उन्होंने यहाँ की यादगार के लिए हमें उनके साथ फोटो खिंचवाने के लिए कहा। उन्होंने उस बुजुर्गवार से निवेदन किया तो वे एकदम तैयार हो गए।
रात को खा-पीकर लेटे तो अनुभव कर रहे थे कि आज के दिन की सारी छवियाँ हमारे भीतर भर आई हैं और हम स्वयं अनेक दृश्यमय हो गए हैं। पानी बरस रहा था। शीशा खोल दिया था। पंखा भी चला रखा था। और चूँकि एकदम सवेरे यात्रा आरंभ करनी थी, इसलिए जल्दी सो जाना चाहते थे; लेकिन मन में एक खटका लगा हुआ था कि होटलवाले अभी फर्श गरम कर देंगे। तब ?
(1992)
पड़ोस की खुशबू
काफी दिनों से नेपाल जाने का कार्यक्रम बना रहा था। एक बार यह तय हुआ कि
दिल्ली से गोरखपुर जाएँगे, वहाँ से कार से काठमांडू के लिए चल देंगे।
परंतु सोचते-सोचते दो-तीन साल गुजर गए। यों कई बार वहाँ साहित्यिक आयोजन
भी हुए और वहाँ भाग लेनेवालों में मेरे नाम की सुगबुगाहट भी मुझे सुनाई
पड़ी; किंतु महाबली लोगों ने इसे धकियाकर बाहर कर दिया और अपने नाम का
झंडा गाड़ दिया। वैसे काठमांडू इतना दूर तो नहीं कि वहाँ जाने के लिए किसी
का मुहताज होना पड़े। वहाँ घूमने के लिए अपने पैसे से जाया जा सकता है
किंतु उस आदत को क्या कहिए जो बन गई है और जिसके तहत मैं अपने आप और अकेले
कहीं निकल नहीं पाता।
अब जब भारतीय स्वाधीनता की स्वर्ण जयंती पर आयोजित कवि सम्मेलन के लिए वी.पी. कोइराला नेपाल-भारत प्रतिष्ठान की ओर से निमंत्रण मिला तो बहुत अच्छा लगा। वैसे विदेश यात्राओं का योग बनने पर मैं कभी उत्साहित नहीं हुआ। हर बार मैं बाहर से खींचा गया और यहाँ से ठेलकर भेजा गया; किंतु नेपाल यात्रा के योग से मैं बहुत उत्साहित हुआ। कारण यह था कि वह विदेश है भी और नहीं भी। कुल सवा-डेढ़ घंटे की यात्रा घरेलू यात्रा जैसी है, बल्कि उससे भी छोटी है और यह विदेश यात्रा की तमाम औपचारिकताओं से मुक्त होगी। फिर यह कि पड़ोसी नेपाल को देखने का संचित स्वप्न साकार होने जा रहा है और यात्रा भी साहित्यिक है तथा इसके लिए अपनी ओर से कुछ नहीं करना है, सारी व्यवस्था सरकार की होगी।
काठमांडू में भारतीय दूतावास में प्रथम सचिव श्री अखिलेश मिश्र के फोन आते रहे। उन्होंने कुछ लोगों के पते भी पूछे। मैंने कल्पना की कि अखिलेशजी में साहित्य और संस्कृति के गहरे संस्कार हैं और उसमें उनकी पैठ है। काठमांडू जाने पर उनके संपर्क में आया तो कल्पना गहरी प्रतीति बन गई। बहरहाल, इस यात्रा से पहले एक ऐसा प्रसंग आया जिससे यात्रा रुक सकती थी। वह प्रसंग था आँख के ऑपरेशन का। 4 अप्रैल को मेरी आँख में स्थित मोतियाबिंद के ऑपरेशन की तिथि तय थी एम्स में। मैं इसे स्थगित नहीं करना चाहता था, यात्रा भले ही स्थगित हो जाए। ऑपरेशन हुआ। 24 अप्रैल को काठमांडू के लिए प्रस्थान करना था। ऑपरेशन के पाँच-छह दिन बाद डॉक्टर से यात्रा के संबंध में पूछा तो उन्होंने सहर्ष अनुमति दे दी।
एजेंट का फोन आया कि मेरा टिकट हो गया है। उधर, भाई सुधाकर पांडेय का फोन आया कि वे चल रहे हैं सपत्नीक। उन्हीं से ज्ञात हुआ कि दिल्ली और दिल्ली के बाहर से कौन-कौन लोग काठमांडू जा रहे हैं। मेरा भी मन था कि पत्नी को साथ ले जाऊँ, लेकिन सरकारी यात्रा है, सोचकर मन संकुचित हो रहा था; किंतु सुधाकरजी ने मुझे प्रेरित किया कि ‘‘नहीं, पत्नी को भी साथ ले चलिए। यदि सरकारी अतिथ्य मिलने में कोई औपचारिक कठिनाई होगी तो ये दोनों श्रीमतियाँ मेरे किसी मित्र के यहाँ रह जाएँगी।’’ एजेंट से कहकर मैंने पत्नी के टिकट की भी व्यवस्था कर ली। सबकुछ निश्चित हो गया, किंतु मेरी आँख में जलन बढ़ने लगी और मुझे घबराहट होने लगी कि कहीं यात्रा न स्थगित करनी पड़े। डॉक्टर सप्ताह में दो दिन मिलते हैं, इसलिए उन्हें दिखाने का भी समय नहीं था और 24 अप्रैल आ गया। कोई बात नहीं, पत्नी साथ थीं और दवा डाल ही रहा था, फिर यात्रा भी तो छोटी है। मित्रों ने यह भी कहा कि नेपाल का मौसम ठंडा होगा, वहाँ आँख को आराम मिलेगा।
शाम को पड़ोस की टैक्सी से इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा पहुँचे। हमें छोड़ने हमारी बेटी स्मिता, पोती स्वाती और पोता उत्सव भी गया था। हम एयरपोर्ट के बाहर खड़े़ होकर बात कर रहे थे कि सोम ठाकुर भी आ गए। कुछ फोटो ग्राफ्स खींचे गए। कुछ देर बाद स्मिता, स्वाती और उत्तू को टा-टा बोलकर हम अंदर आ गए और औपचारिकताएँ पूरी करने में जुट गए। धीरे-धीरे और लोग भी जुटते गए-कन्हैया लाल नंदन, हिमांशु जोशी, अशोक चक्रधर, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा, सपत्नीक सुधाकर पांडे, इंदु जैन, अर्चना वर्मा, ज्योत्स्ना मिलन।
कुछ मिलाकर लगा कि ठीक-ठाक लोग ही आमंत्रित किए गए हैं। ऐसे लोग जिनसे हिंदी की समकालीन कविता का प्रतिनिधित्व होता है। कवियों के चरित्र भी विविध थे, किंतु काफी लोग ऐसे थे जो हँसी-मजाक, गपशप से वातावरण की सजीवता बनाए हुए थे और दो एक गुमसुम तथा आत्मलीन लोगों को भी उसमें लपेट ले रहे थे।
लगभग डेढ़ घंटे बाद हमारा जहाज काठमांडू पहुँचा। हमारे स्वागत के लिए अखिलेशजी तथा अन्य कई विशिष्ट लोग उपस्थित थे। वे पहले हमें स्वागत कक्ष में ले गए, बातें हुईं, फिर हम लोग ‘यार्क एंड यती’ होटल ले जाए गए। अखिलेशजी ने रास्ते में ही बताया था कि काठमांडू के सबसे अच्छे होटल में हमारे ठहरने की व्यवस्था है।
होटल में पहुँचते-पहुँचते 11 बज गए थे। वैसे तो होटल बहुत बंद जगह में था, किंतु वह अपने आप में बहुत प्रशस्त था। उसके आगे बड़े होटल सा लंबा-चौड़ा खुला लान नहीं था, लान था परंतु छोटा। उसके पिछले भाग की दुनिया बड़ी थी और सौंदर्य-वैविध्य से भरी-पूरी। होटल अपने आपमें भी काफी बड़ा था-बहुमंजिली इमारत में स्थित। हर मंजिल पर तमाम कमरों को जोड़ते बलखाते स्वप्निल गलियारे। कमरे भी खूब सज्जित और आरामदेह। हम ज्यों ही अपने कमरे में लेटे कि घंटी बजी। अब साढ़े ग्यारह बजे रात को किसे आफत आ गई कि घंटी बजा रहा है। झल्लाहट के साथ द्वार खोला तो देखा-होटल का परिचारक था। उसने कमरे में घुसते कहा, ‘‘माफ कीजिएगा, सर, मुझे भेजा गया है आपको यह लिफाफा देने के लिए।’’
वह चला गया तो लिफाफा खोला, उसमें नौ हजार रुपए थे। अखिलेशजी की इस तत्परता पर मन रीझ गया। झल्लाहट प्रसन्नता में बदल गई। सोचा, यह काम तो कल भी हो सकता था, किंतु नहीं, जो काम होना है उसे हो जाना चाहिए। पैसे के मामले में तो लोगों को प्रायः बिलंब करते, काँखते-कूँखते देखा है; किंतु यहाँ तो जैसे पैसा हमारे आने की प्रतीक्षा कर रहा हो। मैं पूरी यात्रा में अखिलेशजी की कार्य त्वरा की लय का अनुभव करता रहा और उनकी इस चिंता की प्रतीति कि हमारे अतिथियों को किसी प्रकार की असुविधा न हो और वे अधिक-से-अधिक सुख-संतोष लेकर जाएँ।
सुबह नाश्ते के पश्चात् हमें पशुपतिनाथ के दर्शन को जाना था। ठीक समय पर गाड़ी आ गई। हम तो तैयार थे और नीचे आ गए। कुछ और भी आ गए, कुछ की प्रतीक्षा थी। यह यात्रा भर चलता रहा। यानी व्यवस्था पक्ष लगातार अपने द्वारा दिए गए समय के साथ था, कुछ अतिथि भी इसमें पूरा सहयोग दे रहे थे और कुछ लोग स्वभावतः ही समय की तत्परता को मुँह चिढ़ा रहे थे। हम लोग पशुपतिनाथ के दर्शन को चले। मंदिर से कुछ दूर गाड़ी रोककर हमें दो तीन किस्तों में वहाँ ले जाया गया। हमारे साथ अखिलेशजी थे, अतः वहाँ हमें अति सम्मानित अतिथि की सुविधा मिली। इस विश्व-प्रसिद्ध हिंदू मंदिर में आकर हम बहुत रोमांचित अनुभव कर रहे थे, किंतु इसके पीछे बहती बागमती नदी देखकर मन खिन्न हो उठा। नदी क्या थी-गंदगी से भरा नाला लग रही थी। क्या यहां की हिंदू सरकार को इस विश्व-प्रसिद्ध हिंदू मंदिर के परिवेश की सफाई की चिंता बिलकुल नहीं है।
पत्नी बार-बार पूछ रही थी कि इस नदी की सफाई कर इसके तटों पर और आस-पास एक स्वच्छ और सुंदर परिवेश की रचना नहीं की जा सकती ? पत्नी तो मंदिरों में आस्था रखती है और मंदिर में जाकर देवता की उपस्थिति के बोध से उनकी धार्मिक आस्था को तृप्ति प्राप्त हो सकती है; किंतु उनकी धार्मिक आस्था के साथ-साथ उनमें सौंदर्य-बोध संपन्न मन भी है, जो बार-बार यह प्रश्न कर रहा था और हर जगह करता है। किंतु मेरे मन में तो मंदिर या धार्मिक स्थलों के प्रति कोई धार्मिक लगाव ही अनुभव नहीं होता, वह तो यहाँ भी सौंदर्य-बोध लेकर जाता है। और उसे अधिक सघन कर लौटना चाहता है।
अब जब भारतीय स्वाधीनता की स्वर्ण जयंती पर आयोजित कवि सम्मेलन के लिए वी.पी. कोइराला नेपाल-भारत प्रतिष्ठान की ओर से निमंत्रण मिला तो बहुत अच्छा लगा। वैसे विदेश यात्राओं का योग बनने पर मैं कभी उत्साहित नहीं हुआ। हर बार मैं बाहर से खींचा गया और यहाँ से ठेलकर भेजा गया; किंतु नेपाल यात्रा के योग से मैं बहुत उत्साहित हुआ। कारण यह था कि वह विदेश है भी और नहीं भी। कुल सवा-डेढ़ घंटे की यात्रा घरेलू यात्रा जैसी है, बल्कि उससे भी छोटी है और यह विदेश यात्रा की तमाम औपचारिकताओं से मुक्त होगी। फिर यह कि पड़ोसी नेपाल को देखने का संचित स्वप्न साकार होने जा रहा है और यात्रा भी साहित्यिक है तथा इसके लिए अपनी ओर से कुछ नहीं करना है, सारी व्यवस्था सरकार की होगी।
काठमांडू में भारतीय दूतावास में प्रथम सचिव श्री अखिलेश मिश्र के फोन आते रहे। उन्होंने कुछ लोगों के पते भी पूछे। मैंने कल्पना की कि अखिलेशजी में साहित्य और संस्कृति के गहरे संस्कार हैं और उसमें उनकी पैठ है। काठमांडू जाने पर उनके संपर्क में आया तो कल्पना गहरी प्रतीति बन गई। बहरहाल, इस यात्रा से पहले एक ऐसा प्रसंग आया जिससे यात्रा रुक सकती थी। वह प्रसंग था आँख के ऑपरेशन का। 4 अप्रैल को मेरी आँख में स्थित मोतियाबिंद के ऑपरेशन की तिथि तय थी एम्स में। मैं इसे स्थगित नहीं करना चाहता था, यात्रा भले ही स्थगित हो जाए। ऑपरेशन हुआ। 24 अप्रैल को काठमांडू के लिए प्रस्थान करना था। ऑपरेशन के पाँच-छह दिन बाद डॉक्टर से यात्रा के संबंध में पूछा तो उन्होंने सहर्ष अनुमति दे दी।
एजेंट का फोन आया कि मेरा टिकट हो गया है। उधर, भाई सुधाकर पांडेय का फोन आया कि वे चल रहे हैं सपत्नीक। उन्हीं से ज्ञात हुआ कि दिल्ली और दिल्ली के बाहर से कौन-कौन लोग काठमांडू जा रहे हैं। मेरा भी मन था कि पत्नी को साथ ले जाऊँ, लेकिन सरकारी यात्रा है, सोचकर मन संकुचित हो रहा था; किंतु सुधाकरजी ने मुझे प्रेरित किया कि ‘‘नहीं, पत्नी को भी साथ ले चलिए। यदि सरकारी अतिथ्य मिलने में कोई औपचारिक कठिनाई होगी तो ये दोनों श्रीमतियाँ मेरे किसी मित्र के यहाँ रह जाएँगी।’’ एजेंट से कहकर मैंने पत्नी के टिकट की भी व्यवस्था कर ली। सबकुछ निश्चित हो गया, किंतु मेरी आँख में जलन बढ़ने लगी और मुझे घबराहट होने लगी कि कहीं यात्रा न स्थगित करनी पड़े। डॉक्टर सप्ताह में दो दिन मिलते हैं, इसलिए उन्हें दिखाने का भी समय नहीं था और 24 अप्रैल आ गया। कोई बात नहीं, पत्नी साथ थीं और दवा डाल ही रहा था, फिर यात्रा भी तो छोटी है। मित्रों ने यह भी कहा कि नेपाल का मौसम ठंडा होगा, वहाँ आँख को आराम मिलेगा।
शाम को पड़ोस की टैक्सी से इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा पहुँचे। हमें छोड़ने हमारी बेटी स्मिता, पोती स्वाती और पोता उत्सव भी गया था। हम एयरपोर्ट के बाहर खड़े़ होकर बात कर रहे थे कि सोम ठाकुर भी आ गए। कुछ फोटो ग्राफ्स खींचे गए। कुछ देर बाद स्मिता, स्वाती और उत्तू को टा-टा बोलकर हम अंदर आ गए और औपचारिकताएँ पूरी करने में जुट गए। धीरे-धीरे और लोग भी जुटते गए-कन्हैया लाल नंदन, हिमांशु जोशी, अशोक चक्रधर, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा, सपत्नीक सुधाकर पांडे, इंदु जैन, अर्चना वर्मा, ज्योत्स्ना मिलन।
कुछ मिलाकर लगा कि ठीक-ठाक लोग ही आमंत्रित किए गए हैं। ऐसे लोग जिनसे हिंदी की समकालीन कविता का प्रतिनिधित्व होता है। कवियों के चरित्र भी विविध थे, किंतु काफी लोग ऐसे थे जो हँसी-मजाक, गपशप से वातावरण की सजीवता बनाए हुए थे और दो एक गुमसुम तथा आत्मलीन लोगों को भी उसमें लपेट ले रहे थे।
लगभग डेढ़ घंटे बाद हमारा जहाज काठमांडू पहुँचा। हमारे स्वागत के लिए अखिलेशजी तथा अन्य कई विशिष्ट लोग उपस्थित थे। वे पहले हमें स्वागत कक्ष में ले गए, बातें हुईं, फिर हम लोग ‘यार्क एंड यती’ होटल ले जाए गए। अखिलेशजी ने रास्ते में ही बताया था कि काठमांडू के सबसे अच्छे होटल में हमारे ठहरने की व्यवस्था है।
होटल में पहुँचते-पहुँचते 11 बज गए थे। वैसे तो होटल बहुत बंद जगह में था, किंतु वह अपने आप में बहुत प्रशस्त था। उसके आगे बड़े होटल सा लंबा-चौड़ा खुला लान नहीं था, लान था परंतु छोटा। उसके पिछले भाग की दुनिया बड़ी थी और सौंदर्य-वैविध्य से भरी-पूरी। होटल अपने आपमें भी काफी बड़ा था-बहुमंजिली इमारत में स्थित। हर मंजिल पर तमाम कमरों को जोड़ते बलखाते स्वप्निल गलियारे। कमरे भी खूब सज्जित और आरामदेह। हम ज्यों ही अपने कमरे में लेटे कि घंटी बजी। अब साढ़े ग्यारह बजे रात को किसे आफत आ गई कि घंटी बजा रहा है। झल्लाहट के साथ द्वार खोला तो देखा-होटल का परिचारक था। उसने कमरे में घुसते कहा, ‘‘माफ कीजिएगा, सर, मुझे भेजा गया है आपको यह लिफाफा देने के लिए।’’
वह चला गया तो लिफाफा खोला, उसमें नौ हजार रुपए थे। अखिलेशजी की इस तत्परता पर मन रीझ गया। झल्लाहट प्रसन्नता में बदल गई। सोचा, यह काम तो कल भी हो सकता था, किंतु नहीं, जो काम होना है उसे हो जाना चाहिए। पैसे के मामले में तो लोगों को प्रायः बिलंब करते, काँखते-कूँखते देखा है; किंतु यहाँ तो जैसे पैसा हमारे आने की प्रतीक्षा कर रहा हो। मैं पूरी यात्रा में अखिलेशजी की कार्य त्वरा की लय का अनुभव करता रहा और उनकी इस चिंता की प्रतीति कि हमारे अतिथियों को किसी प्रकार की असुविधा न हो और वे अधिक-से-अधिक सुख-संतोष लेकर जाएँ।
सुबह नाश्ते के पश्चात् हमें पशुपतिनाथ के दर्शन को जाना था। ठीक समय पर गाड़ी आ गई। हम तो तैयार थे और नीचे आ गए। कुछ और भी आ गए, कुछ की प्रतीक्षा थी। यह यात्रा भर चलता रहा। यानी व्यवस्था पक्ष लगातार अपने द्वारा दिए गए समय के साथ था, कुछ अतिथि भी इसमें पूरा सहयोग दे रहे थे और कुछ लोग स्वभावतः ही समय की तत्परता को मुँह चिढ़ा रहे थे। हम लोग पशुपतिनाथ के दर्शन को चले। मंदिर से कुछ दूर गाड़ी रोककर हमें दो तीन किस्तों में वहाँ ले जाया गया। हमारे साथ अखिलेशजी थे, अतः वहाँ हमें अति सम्मानित अतिथि की सुविधा मिली। इस विश्व-प्रसिद्ध हिंदू मंदिर में आकर हम बहुत रोमांचित अनुभव कर रहे थे, किंतु इसके पीछे बहती बागमती नदी देखकर मन खिन्न हो उठा। नदी क्या थी-गंदगी से भरा नाला लग रही थी। क्या यहां की हिंदू सरकार को इस विश्व-प्रसिद्ध हिंदू मंदिर के परिवेश की सफाई की चिंता बिलकुल नहीं है।
पत्नी बार-बार पूछ रही थी कि इस नदी की सफाई कर इसके तटों पर और आस-पास एक स्वच्छ और सुंदर परिवेश की रचना नहीं की जा सकती ? पत्नी तो मंदिरों में आस्था रखती है और मंदिर में जाकर देवता की उपस्थिति के बोध से उनकी धार्मिक आस्था को तृप्ति प्राप्त हो सकती है; किंतु उनकी धार्मिक आस्था के साथ-साथ उनमें सौंदर्य-बोध संपन्न मन भी है, जो बार-बार यह प्रश्न कर रहा था और हर जगह करता है। किंतु मेरे मन में तो मंदिर या धार्मिक स्थलों के प्रति कोई धार्मिक लगाव ही अनुभव नहीं होता, वह तो यहाँ भी सौंदर्य-बोध लेकर जाता है। और उसे अधिक सघन कर लौटना चाहता है।
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