नई पुस्तकें >> उत्सव का पुष्प नहीं हूँ उत्सव का पुष्प नहीं हूँअनुराधा सिंह
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अनुराधा की कविताएं अर्द्धनिमीलित आंखों की तरह धीरे-धीरे खुलती है। भीतर का अर्जित प्रकाश बाहर की चकाचौंध से सहज तादात्म्य नहीं बना पा रहा हो तो ऑंखें या कविताएं धीरे-धीरे ही खुलती हैं। आपबीती और जगवीती की विडम्बना कवि को अपने भीतर के गहनतम एकान्त में डुबकी लगवा देती है, उसके बाद जब कवि बाहर आती है, तब गहरे पानियों में समाधिस्थ ही बैठे रह गये नानकदेव की तरह ‘कोई और होकर। दुबारा यहाँ लीटना, जहाँ से धक्के खाकर गये थे, इतना आसान नहीं होता, फिर भी लीटना तो पड़ता है-बस दृष्टि बदल जाती है।
अनुराधा के यहाँ स्टेशन के वेटिंग रूम में गुड़ी-मुड़ी होकर सदियों से सोयी स्त्री ऐसी ही आत्मस्थ स्त्री है- ‘थोड़ा मारा रोय, बहुत मारा सोय’ की कहावत चरितार्थ करती स्त्री। उसकी नींद ही उसकी नानक वाली डुबकी है।
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