लोगों की राय

कहानी संग्रह >> देखन में छोटे लगैं

देखन में छोटे लगैं

मृदुला सिन्हा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1659
आईएसबीएन :81-7315-303-5

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

342 पाठक हैं

प्रस्तुत है लघुकथा संग्रह...

dekhan mein chhote lagain Mradula Sinha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सागर में एक बूँद,समग्र भाषा के संग्रहीत में एक शब्द,भोजन में नमक। समग्र साहित्य में नमक की भूमिका अदा करेंगी ये लघुकथाएँ। इन लघुकथाओं में भरपूर सामर्थ्य है आपको रुलाने,गुदगुदाने हँसाने और रोमांचित करने का। अधिकांश कथाएँ आपकी स्मृति में स्थायी स्थान बनाने के लिए आपके सम्मुख उपस्थित है। लोक-जीवन में प्रचलित दो चार कथाएं भी है सिर्फ भोजन में नमक के बराबर।

लघुकथन


बचपन में पिता जी के जाने कितनी कहानियाँ सुनाई थीं। वे पंचतंत्र, रामायण, महाभारत की कहानियों के साथ-साथ लोककथाएँ भी सुनाया करते। उनमें से एक कथा मेरे जीवन का संबल बनी। एक राजा अपनी तीन बेटियों से बारी-बारी पूछता, वे उसे कितना प्यार करती हैं ? बड़ी ने सारी दुनिया के रत्न-जवाहरातों से बढ़कर पिता को प्यार करने की बात बताई। दूसरी ने कहा कि वह नदी, नाले, पहाड़ सारे वन-उपवन की पत्तियों की जितनी संख्या होगी उतने गुना प्यार करती है पिता को। राजा बड़ा प्रसन्न हुआ। अब छोटी की बारी थी। उसे राजा दोनों बेटियों से ज्यादा प्यार करता था। उसने कहा, ‘‘पिताजी, मैं आपको नमक से भी बढ़कर प्यार करती हूँ।’’
राजा को गहरा धक्का लगा। स्वाभाविक था। बेटी की धृष्टता और अज्ञानता पर क्रोध भी आया। उसे देश निकाला देने का ऐलान हुआ। अगली सुबह उसका दंड शुरू होना था। सायंकाल उसने रसोइए से विनती की-‘आज पिताजी का भोजन मैं बनाऊँगी।’

रसोइया जानता था कि इसका परिणाम बड़ा बुरा होगा। परंतु वह नन्ही को भी बहुत प्यार करता था और उसके देशनिकाले की खबर से उसे बहुत दुःखी किया था। रसोइए ने अपनी जान हथेली पर लेकर वैसा ही किया जैसा नन्ही चाहती थी।
राजा भोजन करते हुए चिल्लाया। रसोइए को तलब किया गया। उसके साथ नन्ही भी आई। उसने कहा, ‘‘इन्हें कोई सजा न दें। आज भोजन मैंने बनाया है। इसमें बस नमक नहीं डाला।’ राजा की समझ में बात आ गई। उसने अपनी आँखें खोलने और ज्ञान देने के लिए बेटी को गले लगाया। अपने बाद उसीको उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा की।
सागर में एक बूँद। समग्र भाषा के संगृहीत कोश में एक शब्द, भोजन में नमक। समग्र साहित्य में नमक की भूमिका अदा करेंगी ये लघुकथाएँ। परंतु एक चुटकी ही हुआ तो क्या, है तो नमक।

आज जिसे सुनो वह समय की कमी की शिकायत करता है। पढ़ने-लिखने, मिलने-जुलने-यहाँ तक कि अपने से बात करने का भी समय नहीं है। ऐसे समयाभाव के युग में उपन्यास और बड़ी कहानियाँ लिखने के समय की कमी मेरे लिए है तो पढ़ने के लिए आपके लिए भी।
इसलिए छोटी-छोटी कहानियाँ लिख डाली हैं। आगे चलकर कहीं आपको इन्हीं कथाओं का विस्तृत रूप देखने-पढ़ने का अवसर मिले तो अन्यथा मत लीजिए; क्योंकि समय-समय की बात है। मुझे मालूम है कि इन लघुकथाओं का एक-एक कथानक अपना बोनसाई रूप त्यागने को मेरे अंदर छटपटा रहा है। कहानियाँ ही क्यों, इनमें तो उपन्यास का आकार लेने की भरपूर संभावनाएँ हैं। समय मिलने पर अवश्य इनको विस्तृत रंग-रूप दिया जा सकता है। नहीं भई दिया तो क्या, इनमें भरपूर सामर्थ्य है आपको रुलाने, गुदगुदाने हँसाने और रोमांचित करने का। अधिकांश कथाएँ आपकी स्मृति में स्थायी स्थान बनाने के लिए आपके सम्मुख उपस्थित हैं। लोक-जीवन में प्रचलित दो-चार कथाएँ भी हैं; सिर्फ भोजन में नमक के बराबर।

पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इन लघुओं को आपका स्नेह, सहयोग व सराहना मिली है। और भी अनेक कथानक आकार पाने के लिए मेरे मानस पर मचल रहे हैं। उन्हें फिर कभी। अभी इतने ही-आपके एकांत के क्षणों में पढ़ने, सोचने, विचारने और व्यवहार के लिए। मैंने थोड़ा लिखा तो क्या, आप इसे बड़ा समझकर पढ़िए और बड़े दिनों तक याद रखिए; मात्र लघु समझकर परे मत करिए।

रहिमन देखि बड़ेन को लघु न दीजिए डारि।
जहाँ काम आवै सुई कहा करै तरवारि।।

-मृदुला सिन्हा

मंत्री और आदमी


आज अंतिम बार मंत्री महोदय को स्टेशन पर उतारकर शिवसूरत रो पड़ा। आँखें आँसुओं से भर गई थीं, इसलिए गाड़ी स्टार्ट करना मुश्किल हो रहा था। पीछे खड़ी गाड़ी ने हॉर्न दिया। शिवसूरत ने गाड़ी स्टार्ट तो कर ली, परंतु स्टेशन के गेट पर आकर पुनः एक ओर खड़ी कर ली। पीछे भी सरकारी गाड़ी थी। जातिगत भाव और सहानुभूति में उस ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी। रूमाल से आँसू पोंछते शिवसूरत के पास आकर पूछने लगा-
‘‘क्या हुआ ? रो क्यों रहे हो ?’’
‘‘तुम्हें पता है न, यह सरकार गिर गई। नई बन गई।’’

‘‘हाँ-हाँ, यह किसे नहीं पता। पर तू क्यों रो रहा है ? तू कौन सा मंत्री बना था जो गद्दी से उतर गया !’’
शिवसूरत सिसकता हुआ ही बोला, ‘‘मैं तो मिनिस्टर साहब को आज अंतिम बार स्टेशन छोड़ने आया था।’’
तो क्या हुआ ! कल दूसरे मंत्री को पहली बार चढ़ा लेना। उन्हें भी अंतिम बार उतार देना। यह सिलसिला तो चलता रहेगा। तुम्हारी नौकरी पक्की, तुम्हारी गाड़ी पक्की। ये मंत्री-संत्री तो आते-जाते रहेंगे।’’

शिवसूरत की सिसकियाँ तेज हो गईं-‘‘यार, समझने की कोशिश कर। यह मंत्री नहीं था। जब कभी स्टेशन या एयरपोर्ट लेने जाता था पहले मेरे बच्चे का हाल-चाल पूछता था, बाद में अपने बच्चों का। सर्दी आई नहीं कि मेरे और बच्चों के गरम कपड़े हैं कि नहीं, पूछताछ करता; खरीदकर भिजवाता था। गरमी चढ़ते ही मेरे कमरे में कूलर लगा कि नहीं, पूछता। मेरे चौका-चूल्हे तक की बातें पूछता था। मेरी बीमारी में तो मेरे कमरे में आकर बैठ गया। यार, ऐसा मंत्री तो देखा ही नहीं। इससे पहले जितने मंत्री आए, गाड़ी में ऐसे बैठते थे मानो गाड़ी मैं नहीं, मशीन चला रही हो। ऐसा यह पहला मंत्री थी।’’
सुनकर दूसरे ड्राइवर की भी आँखें भर आईं-‘‘अब समझा, तू मंत्री के लिए नहीं, उस आदमी के लिए रो रहा है। रो ले। जी भरकर रो ले, सौभाग्य से मंत्री में आदमी मिल गया तुझे।

भीख का दान


वह बुढ़िया भी शिविर के सामने जमा भीड़ का हिस्सा बन गई। राहत कार्य में जुटे स्वयंसेवकगण भीड़ को व्यवस्थित करने में जुटे थे। भीषण बाढ़ से पीड़ित उस इलाके के लोगों के लिए राहत कार्य के लिए लगाए गए उस शिविर में दान देने और लेनेवालों का ताँता लगा था। निश्चितरूपेण देनेवालों से लेनेवालों की संख्या कई गुना अधिक थी।
स्वयंसेवकगण एकत्रित लोगों को बड़ी मुश्किल से कपड़ा, चावल और आटा बाँटकर थोड़ी देर के लिए सुस्ताने बैठे थे। तभी एक ओर खड़ी वह बुढ़िया उनके पास आ गई। उनमें से एक स्वयंसेवक ने उसे पहचान लिया। राहत समग्री बाँटते समय धक्का-मुक्की तथा अव्यवस्था को सँभालने में कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी। थका बैठा था। उस बुढ़िया को देखकर झल्लाया- ‘‘अरी बुढ़िया, यहाँ कहाँ आ गई ! यहाँ भीख कौन देगा ! हम तो दान माँग-माँगकर ला रहे हैं। बाढ़-पीड़ित लोगों को दान कर रहे हैं। जा-जा, यहाँ भीख नहीं मिलनेवाली।’’

वहीं बैठे उसके दूसरे स्वयंसेवक साथी की समझ में यह बात आ गई कि सामने खड़ी बुढ़िया भीख माँगनेवाली है। उसने उसकी समझ के लिए भाषा बदलकर कहा, ‘‘हम भी इन दिनों भीख ही माँग रहे हैं। यहाँ तुम्हें भीख नहीं मिलेगी।’’
वह बुढ़िया दो-चार कदम आगे बढ़कर उनके अधिक नजदीक आ गई। जब तक वे स्वयंसेवक उस पर झल्लाएँ, वह अपने आँचल से कुछ निकालते हुए बोली, ‘‘आज मैं भीख माँगने नहीं आई हूँ। आज मुझे जो कुछ मिला उससे इतनी ही मिठाई खरीद पाई हूँ। ये दो मिठाई मैं दान करना चाहती हूँ। आप लोग इसे ले लो। दान देनेवाली खाद्य सामग्री में मिला दो।’’
बुढ़िया हाथ में मिठाई लिये खड़ी थी। सभी स्वयंसेवक हतप्रभ रह गए। उन्हें अपनी संख्या में एक और स्वयंसेविका की वृद्धि होने का एहसास हुआ, जिसका कद उन सबसे ऊपर लग रहा था। उनके सामने खड़ी बुढ़िया भीख में मिली राशि का दान कर अति संतुष्ट हुई और आगे बढ़ गई माँगनेवाली हथेली पर बदली हुई भूमिका के रसास्वादन में डूबती-उतारती हुई।

दिनचर्या


लाड़ली की नींद खुल गई थी। आँखें बंद किए-किए उसके मन में उठा विचार कब और कितने समय में संकल्प बन गया, उसे पता भी न चला। उसने जोड़-घटाव कर लिये। उसके हिसाब से उसकी दिनचर्या का अधिकांश या सारा समय दूसरों के लिए जाता था। शरीर तो घर और बाहर की सेवा में लगा ही रहता था। मन भी दूसरों की क्रिया-प्रतिक्रिया से खुश या नाखुश रहता था। उसने संकल्प किया-‘मन को तो अपने लिए ही बचाकर रखूँगी।

इसीलिए जब सासजी ने प्रातः देर से जागने पर नाराजगी व्यक्त की, अनसुनी करती लाड़ली अपने को काम में लगाए रही। नाश्ते की मेज पर पति और बच्चे भी मनपसंद नाश्ता नहीं मिलने के कारण खीज उठे थे। उनकी खीज से लाड़ली ने अपने मन को बचाए रखा। दिन भर आते रहे धोबी, महरी, सब्जीवाले और दूधवालों से उसने आज कोई खिच-खिच नहीं की। सासजी की टोका-टाकी से भी उसका मन अलग रहा। दिनचर्या में आनेवाले उन सभी को लाड़ली के इस अप्रत्याशित व्यवहार पर आश्चर्य हो रहा था। और लाड़ली को अपने मन को इनसे बचाए रखने पर आनंद आ रहा था। निश्चय ही मन की तटस्थता की स्थिति से उसे सुकून मिला था।

चार बजे पति ने दफ्तर से ही फोन किया-‘‘शाम को दो मित्रों का खाना है।’’ सदा की भाँति लाड़ली की झल्लाहट और गुस्से की आवाज फोन पर न सुनकर उसके पति के आश्चर्य की सीमा न रही।
बड़ी तन्मयता से लाड़ली ने भोजन पकाया। दिन भर कार्य में लगी रहने के बाद भी उसका शरीर थका नहीं था। उसने अंदाज लगाया-‘‘यह शांत मन का करिश्मा है। अब दूसरों के व्यवहार से नाहक परेशान न होकर अपने मन को अलग ही रखूँगी।’’

भोजन करते हुए लोगों ने लाड़ली की बड़ी प्रशंसा की। भोजनोपरांत रमेश भी आज लाड़ली की सराहना किए बगैर नहीं रह सका। लाड़ली का मन अपनी प्रशंसा के शब्दों में, विशेषकर पति की सराहना के बोल में ऊब डूब हो रहा था। अब उसे अपने मन को दूसरों से उबार लेने की ओर से हलका सा भी प्रयत्न नहीं करना पड़ा। वह बार-बार उन शब्दों को याद कर मन को डुबो देने का अथक प्रयास करती रही। रात्रि को बिछावन पर पड़े-पड़े उसने अपनी दिनचर्या और संकल्प की समीक्षा की। और दिन भर में दूसरों की क्रिया-प्रतिक्रिया से अपने मन को बचाए रखने की अपनी सफलता पर वह फूली न समा रही थी।

जागृति


बड़े शहर में प्रदर्शन, भाषण के बाद नेताजी ने गाँव-गाँव जाकर जन-जागरण करने की शपथ ली। उस गाँव में सायंकाल नेताजी का गरमागरम भाषण हुआ। आसपास के गाँवों से उबल आए स्त्री-पुरुषों ने देश, काल एवं परिस्थितियों से एकजुट होकर जूझने का संकल्प दुहराया। वर्ग, वर्ण एवं व्यक्ति समानता की दुहाई दी गई। देश भर में स्त्री-पुरुषों पर हो रहे अत्याचार का विश्लेषण किया गया।

भाषण से लौटते हुए रास्ते में ही गाँव के दो वर्गों में तनाव हो गया। बात ‘डिबेट’ से उठी तो डंडे पर रुकी। रातोरात दोनों टोलों में एक-दूसरे से जूझने की तैयारी शुरू हो गई। एक टोले के सभी पुरुष अँधेरे में बैठे खुसुर-फुसुर कर रहे थे। तभी लंबा घूँघट डाले महिला का दृढ़ सुझाव घुमड़ा-‘‘आप लोग अपनी लाठी सँभाल कहीं और छुप जाओ। इस मुछैल को तो मैं अकेले ही सँभाल लूँगी। जरा इधर टपककर तो देखें। सुबह होते ही हल्ला मचा दूँगी-‘‘बलात्कार किया, बलात्कार किया।’’
सलाह सबको भा गई। वह नवयुवक चुपचाप बैठा था। और जैसे उसे भी ‘लाइन’ मिल गई। ताल ठोंकता उठा-‘‘अरे, मैं अपने टोले में आग ही लगा दूँगा। हरिजन कोटे से फिर घर तो बनेगा ही।’’

नेताजी दूसरे दिन ही उस महिला के साथ दिल्ली लौट आए थे। फिर धरना प्रदर्शन, भाषण।
दरअसल उस इलाके में जागृति आ गई थी।

एटम बम


धीरू और मीनू विद्यालय से लौटते ही अपने पड़ोसियों के घर-घर घूमते रहे। माँ उन्हें ढूँढ़-ढूँढ़कर परेशान हो उठी। शाम को मिले तो एक कोने में बैठे पड़ोस से इकट्ठी की हुई खाली दियासलाई की डिब्बियों से ऊँचे-ऊँचे महल खड़े कर लिये थे। माँ उन्हें देखते ही भड़क उठी। एक पाँव दिया और दोनों गगनचुंबी महल धराशायी हो गए।
दोनों बच्चे एक साथ चिल्लाए-‘‘तुम एटम बम हो ! पापा ठीक ही कहते हैं, एटम बम !’’
पिताश्री भी दौड़े आए। गृहयुद्ध के सिलसिले की शुरुआत देख बच्चों को डपटा-‘‘क्या गंदी बात बोलते हो ! तुम्हारी मैडम यही पढ़ाती हैं-माँ को एटम बम कहना !’’
बच्चे सुबकते हुए गरजे-‘‘मैडम ने आज दियासलाई से यह महल बनाना सिखाया था और कहा था, इसे एटम बम ही गिरा सकेगा। माँ ने एक ही पैर से दोनों महल गिरा दिए। यह एटम बम नहीं तो और क्या हैं ?’’
मम्मी-पापा दोनों की ही हँसी छूट गई। धीरू और मीनू ने रोने की रफ्तार तेज कर दी।

हम दो हमारे पाँच


सर्दियों के दिन थे। हरिरामजी और माधवी अपने लाड़लों को नहला-धुला पाउडर लगाकर बाहर लॉन में उन्हें लाड़-दुलार करते, धूप सेंकते अपनी थकान मिटा रहे थे।
फाटक पर खड़े आगंतुक ने आवाज दी-‘‘कोई है ? कोई है ?’’
अपने आपमें वे इतने मशगूल थे कि सुना ही नहीं। झल्लाकर आगंतुक ने बड़ी जोर से फाटक को झकझोरा। हरिरामजी पीछे मुड़े, सज्जन को ऊपर से नीचे तक घूरकर पहचानने की कोशिश की। अपनी कोशिश में नाकामयाब हरिरामजी सीधे फाटक तक पहुँचे।
आगंतुक ने पूछा, ‘‘हरिरामजी आप ही हैं ?’’
‘‘हाँ, कहिए, आप कहाँ से पधारे हैं ?’’

‘‘मैं कलकत्ता से आया हूँ। आपके नाम एक चिट्ठी है। आपके शहर में मुझे तीन दिनों तक ठहरना है। मैं आपके यहाँ ही....’’
अपने मित्र की चिट्ठी पढ़कर हरिरामजी बोले, ‘‘आइए, अंदर तो आइए। बाहर क्यों खड़े हैं ?’’
उन्होंने फाटक खोल दिया। अब हरिरामजी के आगे-पीछे लटकते, शोर मचाते उनके लाड़ले आगंतुक सज्जन की पहचान करने में प्रयत्नशील थे। हरिरामजी ने तीनों को डपटते हुए आज्ञा दी-‘‘नमस्कार तो करो।’’ उन्होंने दंडवत् की मुद्रा में सिर झुकाकर अभिवादन किया। आगंतुक सज्जन असहज हो रहे थे। हरिरामजी के आग्रह पर सहमते हुए उनके पीछे चल पड़े और वे तीनों उनके आगे-आगे भागते हुए उनसे पहले मेहमानवाले कमरे में पहुँच गए।

फिर तो तीन दिनों तक उठते-बैठते, खाते पीते मेजबान दंपती उनमें ही लगे रहते। आगंतुक सज्जन के मन में मेजबान दंपती के अपनत्व के अतीव उलझाव ने ऊब पैदा कर दी। हरिरामजी को भी उनकी ऊब की गंध लग गई थी।
विदा की घड़ी आ गई। नाश्ते की मेज पर बैठे दंपती अपने मुँह में कुछ डालने के पहले अपने दोनों ओर लटकते नन्हे-मुन्नों को खिलाने-पिलाने में व्यस्त थे। सज्जन ने उस बड़ी कोठी के चारों तरफ नजर फैलाई, जैसे किसीको ढूँढ़ रहे हों और पूछा-‘‘हरिरामजी आपके परिवार में कितने सदस्य हैं ? आप दोनों के सिवा और किसी को देखा नहीं।’’
हरिरामजी टिंकू के मुँह में ब्रेड का टुकड़ा डालते हुए मेहमान की नासमझी पर झल्लाते हुए बोले, ‘‘क्यों, हम दो और हमारे पाँच, कुल सात। और कितने की उम्मीद करते हैं ?’’ आपको केवल हम दो ही कैसे दिखे ?’’
आगंतुक ने पिछले तीन दिनों में कभी उनके सिर गिनने की जरूरत नहीं समझी थी। अभी-अभी आसपास गिनती प्रारंभ कर एक-दो-तीन-चार-पाँच कुत्ते और वे दोनों सचमुच कुल सात प्राणी थे उस घर में।



प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book