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दर्द की हँसी

रामदरश मिश्र

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1658
आईएसबीएन :81-7315-523-2

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प्रस्तुत है दर्द की हँसी

DARD KI HANSI

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रख्यात साहित्यकार डॉ. रामदरश मिश्र ने नाटक के अतिरिक्त प्रायः सभी प्रमुख विधाओं में लिखा है। कविता से अपनी यात्रा शुरू कर आज तक शिद्दत से उसके साथ चलनेवाले मिश्र जी ने कथा (कहानी और उपन्यास) के क्षेत्र में भी विपुल साहित्य की रचना की है और कविता की तरह कथा भी उनकी प्रमुख विधा बन गई है। इसके अतिरिक्त इन्होंने बहुत से निबंध, यात्रा-वृत्तांत एवं संस्मरण भी लिखे हैं और इन विधाओं के क्षेत्र में भी अपनी प्रभावशाली पहचान बनाई है। इनकी आत्मकथा ‘सहचर  है समया’ का अपना विशेष रंग और सौंदर्य है। उसकी गणना हिंदी की विशिष्ट आत्मकथाओं में होती है। आलोचना के क्षेत्र में भी इन्होंने काफी कुछ महत्त्वपूर्ण दिया है। भले ही ये अपने आलोचक की छवि को विशेष महत्त्व नहीं देते हों।

मिश्रजी की लगभग समग्र रचनाएँ चौदह खंडों में प्रकाशित हुई हैं। जाहिर है कि पाठकों को मिश्रजी के समूचे साहित्य से गुजरना सरल प्रतीत नहीं होता होगा। इसलिए यह आवश्यक समझा गया कि उनके समस्त सर्जनात्मक लेखन में से कुछ विशिष्ट रचनाओं का चयन करके पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए, ताकि पाठक थोड़े में एक साथ मिश्रजी की रचनात्मक यात्रा का साक्षात्कार कर सकें। उन्हें इनकी रचनात्मक व्याप्ति का अनुभव तो हो ही, विशिष्टाओं तथा उपलब्धियों की प्रतीति भी हो।

अतः अलग-अलग दो संकलनों ‘दर्द की हँसी’ तथा नदी बहती है’ में उनकी कुछ चुनी हुई रचनाएँ प्रस्तुत की जा रही हैं। हाँ, उनमें उपन्यास-अंश नहीं है। उपन्यास पूरे पढ़े जाने चाहिए।

यह संकलन


रामदरश मिश्र हिंदी के उन लेखकों में हैं जिन्होंने साहित्य की कई विधाओं में समान अधिकार से महत्त्वपूर्ण लेखन किया है। मिश्रजी की लेखन-यात्रा की शुरुआत कविता से हुई और वह अभी भी शिद्दत के साथ चल रही है। मिश्रजी ने कविता के साथ साथ काफी कहानियाँ लिखीं, ग्यारह उपन्यास लिखे, ‘सहचर है समय’ नामक आत्मकथा लिखी। व्यक्ति-व्यंजक निबंध, व्यक्तियों और यात्राओं के संस्मरण लिखे। लगभग दस आलोचना पुस्तकें लिखीं। इन सभी विधाओं में उनकी गहरी पैठ लक्षित होती है। एक बात सहज ही रेखांकित की जा सकती है कि उनकी सभी प्रकार की सर्जनात्मक रचनाओं में उनके कवि और गाँव की मिट्टी की उपस्थिति है, जो उन्हें विशेष रंग देती है।

मिश्रजी ने कई विधाओं में तो लेखन किया ही है, उन विधाओं में भी उनके कई-कई रंग दिखाई पड़ते हैं। कविता की शुरुआत वर्णिक-मात्रिक छंदों से हुई। कुछ दूर चलने के बाद गीत उनका प्रमुख काव्य रूप हो गया। गीतों में शुरू में छायावादी प्रभाव दिखाई पड़ता है, बाद में नई कविता के दौर में लोक-संपृक्ति के सघन दबाव ने उनके गीतों को नई दिशा दी। सन् 1952 के आस पास मिश्रजी का रुझान मार्क्सवादी दर्शन की ओर हुआ और यही समय नई कविता के आने का है। अतः मिश्रजी नई कविता की उस धारा से जुड़े जो परिवेशगत यथार्थ एवं सामाजिक विचारधारा से जुड़ी हुई थी। इस दौर में गीतों को भी नई वस्तु और रुप मिला। वे भी नई कविता के अंतर्गत ही परिभाषित किए गए। मिश्रजी ने बावन के बाद जो गीत लिखे, उन्हें उनके पूर्ववर्ती गीतों से स्पष्ट ही अलगाया जा सकता है। मिश्रजी ने छायावादी गीतों के दौर में मुक्त छंद की भी कई कविताएँ (‘मनाएँ क्या दिवाली हम’, ‘पर विद्रोही कब सुनता है’ आदि) लिखीं। नई कविता के दौर में गीत के साथ-साथ मुक्त छंद की कविताएँ लिखने की प्रवृत्ति बढ़ती गई। शुरू में मुक्त छंद की कविताओं में लय है, प्रवाह है, किंतु धीरे धीरे लय हटती गई और मुक्त छंद का वह रुप निखरने लगा, जो इन दिनों चलन में है। इसे गद्य भी कहा जा सकता है। गीत से गीतेतर कविता में आए हुए जब अनेक कवियों ने गीत लिखना छोड़ दिया और उन्हें गीत लिखने में शर्मिंदगी महसूस होने लगी तब मिश्रजी न केवल भावात्मक रूप से गीत से जुड़े रहे, बल्कि गाहे-बगाहे गीत लिखते भी रहे। बाद में तो गजल लेखन से भी जुड़े और गजलों के उनके दो संग्रह आए। मिश्रजी ने बहुत-छोटी-छोटी मारक कविताएँ भी लिखीं और लंबी कविताएँ भी।

मिश्रजी किसी ‘वाद’ कि झंडे के नीचे नहीं आए, किंतु सदा समय के साथ चलते रहे। इसलिए उनके तथ्य और शिल्प, दोनों में सहज ही समय अपना प्रभाव छोड़ता लक्षित होता है। उनके एक संग्रह की कविताओं से दूसरे संग्रह की कविताओं के अलगाव को और साथ ही साथ मूलभूत निरंतरता को भी) देखा जा सकता है। किसी वाद से ग्रस्त न रहने के कारण मिश्रजी ने अपने को जीवन के सामने खुला छोड़ दिया। इसलिए बिना किसी वर्जना के वे जीवन के विविध विषयों को प्रगतिशील दृष्टि से रचना की वस्तु बनाते रहे। वस्तु अपने आप अपने अनुकूल शिल्प के नए आयाम ग्रहण करती रही। प्रयोग के लिए प्रयोग करना मिश्रजी की प्रकृति को रास नहीं आता।

मिश्रजी कविता के साथ चलते हुए छठे दशक में धीरे धीरे कहानी से भी जुड़े और सातवें दशक में तो उससे सघन भाव से जुड़ गए, फिर निरंतर उसके साथ चलते रहे। कहानी के संबंध में भी वही सबकुछ कहा जा सकता है, जो कविता के बारे में कहा गया है। सन् 1961 में उनक पहला उपन्यास ‘पानी के प्राचीर’ आया। उपन्यास-यात्रा भी जब एक बार शुरू हो गई तो अबाध गति से चलती रही और उन्होंने हिंदी साहित्य को ग्यारह उपन्यास दिए, जिनमें चार तो बड़े उपन्यास हैं शेष लघु उपन्यास। उपन्यासों के संसार की व्याप्ति गाँव से लेकर उन शहरों तक है जिन्हें उन्होंने अपने शैक्षणिक जीवन-यात्रा के दौरान जिया है। उनके विभिन्न उपन्यासों में सरंचनागत विविधता दिखाई पड़ती है, वस्तुगत विविधता तो है ही।
इन तीनों विधाओं से प्रमुख रूप से जुड़े हुए मिश्रजी ने समय-समय पर व्यक्ति-व्यंजक निबंध भी लिखे, जो संख्या में बहुत न होने के बादवजूद अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराते हैं। उन्होंने अनेक छोटे-बड़े साहित्यकारों तथा अन्य व्यक्तियों पर प्रभावशाली संस्मरण लिखे हैं, जो उनकी तीन पुस्तकों में प्रकाशित हुए हैं। मिश्रजी यायावर नहीं रहे, किंतु जब भी उन्हें देश-विदेश में जाना पड़ा तब उन्होंने यात्राओं को लेखनीबद्ध करने का प्रयत्न किया और अनेक प्रभावशाली यात्रा संस्मरण पाठकों को प्रदान किए। पाँच खंड़ों में विभाजित उनकी आत्मकथा ‘सहचर है समय’ हिंदी की विशिष्ट आत्मकथाओं में परिगणित होती है। इसमें उन्होंने अपने माध्यम से जैसे एक लंबे समय की कथा कही है।

मिश्रजी अपने को आलोचक नहीं मानते, किंतु इस क्षेत्र में भी उन्होंने कम महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं किया। हिंदी आलोचना पर तो उनका शोध प्रबंध ही है। इसके अतिरिक्त आधुनिक हिंदी कविता, हिंदी उपन्यास, हिंदी कहानी पर उनकी पुस्तकें हैं, जो पाठकों और विद्वानों के बीच काफी समादृत हुई हैं।
 
इस प्रकार मिश्रजी की रचनाओं की दुनिया विधा, वस्तु और शिल्प, सभी दृष्टियों से बहुत वैविध्यपूर्ण तथा प्रभावशाली है। इस रचनाओं की कुछ मूलभूत विशेषताएँ हैं, जो इनके वैविध्य के बावजूद इन्हें एक विशेष व्यक्तित्व प्रदान करती हैं। सबसे पहली और प्रमुख बात यह है कि मिश्रजी का साहित्य उनकी अपनी जमीन (यानी कि उनके गाँव) पर खड़ा है। मिश्रजी ने न केवल गाँव पर ढेर सारी कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास और निबंध लिखे हैं, वरन शहर पर लिखते समय भी गाँव किसी-न-किसी रूप में आता-जाता रहा है। उनकी रचनाओं में गाँव एक दृष्टि बनकर भी आया है। अपनी जमीन से गहरे जुड़े मिश्रजी को हमेशा लगता रहा है कि वही कहो जो तुमने जीकर पाया है। यानी जो तुममें तथा तुम्हारे गाँव या शहर में तुम्हारे आस-पास जीवंत रूप में उपस्थित है उसी को अपनी रचना-वस्तु बनाओ और वस्तु की निर्मित में उसी में व्याप्त उपादानों का प्रयोग करो। इसलिए मिश्रजी की रचनाओं में गहरी विश्वसनीयता है और वे परम संप्रेष्य हैं।

मिश्रजी के विपुल साहित्य का स्तर एक सा नहीं है। कुछ अति विशिष्ट रचनाएँ हैं, कुछ विशिष्ट, कुछ सामान्य। वे लेखकों में से नहीं हैं जो शिखर-से शिखर पर कूदना चाहते हैं। वे तो यथार्थ की प्रेरणा से लिखते रहनेवाले लेखक हैं। कौन रचना विशिष्ट बन रही है, कौन सामान्य; इसकी चिंता वे नहीं करते। वे जो लिखते रहते हैं उसमें से कई विशिष्ट बन जाती हैं, कई सामान्य रह जाती हैं। वैसे किसी भी लेखक की सारी रचनाओं का स्तर एक सा नहीं होता, किंतु सामान्य रचनाएँ भी जीवन के स्वर से जुड़ी होने के कारण अपना महत्त्व रखती हैं। वे लेखक के अनुभवों के विस्तार और वैविध्य की गवाही देती हैं। फिर भी किसी लेखक के साहित्य के स्तर की पहचान उसकी विशिष्ट रचनाओं के आधार पर ही होती है, इसीलिए बार-बार विशिष्ट रचनाओं का चयन कर उन्हें एक साथ प्रकाशित करना होता है।

मैं यहाँ मिश्रजी की कुछ उन रचनाओं का संकलन प्रस्तुत कर रही हूँ, जो मेरी दृष्टि में तो विशिष्ट हैं ही, दूसरों की दृष्टि में भी स्थान बना चुकी हैं। पृष्ट सीमा के कारण अनेक विशिष्ट रचनाएँ संकलन में स्थान पाने से वंचित रह गई हैं। मैंने उनकी रचना-यात्रा के सभी चरणों से तिथि-क्रम से विशिष्ट रचनाओं का चुनाव किया है, ताकि उनकी विकास-गति की भी पहचान हो सके। आशा है कि इस संकलन के माध्यम से पाठकों को मिश्रजी के प्रभावशाली लेखन से एक साथ गुजरने का अवसर प्राप्त होगा।
20 अप्रैल, 2004

-स्मिता मिश्र

एक इंटरव्यू उर्फ कहानी तीन शुतुरमुर्गों की


काँकरिया झील की कृत्रिम पहाड़ी पर बैठा था कि सामने से तीन शुतुरमुर्ग झूमते हुए निकल गए। उनकी धवल पाँखें श्वेत खादी के कुरते की तरह रह-रहकर फड़क उठती थीं। मुझे आश्चर्य हुआ कि ये शुतुरमुर्ग यहाँ बगीचे में कैसे झूम रहे हैं, ये या तो जंगलों में होते हैं या चिड़ियाघरों में। हाँ, याद आया, एक को पहचानता हूँ। यह बीचवाला कुबड़ा शुतुरमुर्ग, जो अभी थोड़ा भचकता हुआ गुजरा है, इसे अहमदाबाद में चिड़ियाघर में देखा है। यह स्वभाव से बड़ा तेज है। कहते हैं कि एक बार कुछ लड़के चिड़ियाघर में गए थे और उसे घूर-घूरकर देखने लगे थे, तो यह क्रोध में उन लड़कों को गाली दे बैठा था। एक शरारती लड़के ने गुस्से में खींचकर पत्थर मारा और इसकी कूबड़ में घाव हो गया। दूसरे दो शुतुरमुर्ग को नहीं पहचानता। शायद चिड़ियाघर में नए-नए आए हों या इस कुबड़े शुतुरमुर्ग के रिश्तेदार हों या दूसरे चिड़ियाघरों से किसी विशेष उद्देश्य से लाए गए हों। इनमें से एक शुतुरमुर्ग कुछ अधिक लंबा और पतला था, लगता था कि लंबी बीमारी के बाद अभी-अभी उठकर आया है। दूसरा कुछ छोटा-मगर अधिक गठा हुआ था। उसकी आँखों में एक स्थिरता और कसाव था। जैसे कोई बदमाशी करने पर तुला हो।

तीनों शुतुरमुर्ग एकांत में जाकर दूब पर पसरकर बैठ गए। मुझे कौतूहल था, जाकर पीछे की झाड़ी में खड़ा हो गया। मेरे कान आश्चर्य से खड़े हो गए, जब मैंने सुना कि लंबा बीमार सा लगनेवाला शुतुरमुर्ग निरालाजी की कविता गुनगुना रहा है-

‘‘है चेतन का आभास
जिसे, देखा भी उसने कभी किसी को दास ?
नहीं चाहिए ज्ञान
जिसे, वह समझा कभी प्रकाश ?’’

आव देखा न ताव, छोटा शुतुरमुर्ग बोल उठा-‘‘ निराला तो ठीक, लेकिन सबसे बड़े सत्यदर्शी कबीर थे-

        ‘‘चढ़िए हाथी ज्ञान कौ सहज दुलीचा डारि।
        स्वान रूप संसार है भूँकन दे झख मारि।।’’

तीसरे से नहीं रहा गया, उसका कूबड़ आवेश में फरफराने लगा। बोला, सारे साहित्यकार झूठ लिखते हैं, लोगों को असत्य बातें सिखाते हैं, सत्य बात तो गांधी कह गया है, उसके सत्य के मंत्र का जाप करो तुम लोग, ताकि उद्धार हो।’’
मैं तो घबरा गया। क्या मैं किसी मायालोक में पहुँच गया हूँ या ये शुतुरमुर्ग के रूप में कोई अवतारी पुरुष हैं ? ये तीनों निराला, कबीर और गांधी को लेकर झगड़ने लगे कि इनमें से सबसे अच्छा सत्यदर्शी कौन है। तीनों सहमत नहीं हो पा रहे थे कि कुबड़े शुतुरमुर्ग ने क्रोध से डाँटा, ‘‘अभी घंटे भर बाद इंटरव्यू होनेवाला है और काम की बात छोड़कर बकवास कर रहे हैं।’’ शेष दोनों शुतुरमुर्ग चुप होकर अपनी गलती महसूस करने लगे-‘‘हाँ-हाँ, गुरुदेव ! हम लोग तो इस बात पर विचार करने के लिए एक एकांत में मिले थे कि बगुलाभगत को कैसे जिताया जाए।’’ कुबड़ा शुतुरमुर्ग क्रोध में तपड़ा-‘‘तुम लोग रहे बेवकूफ के बेवकूफ। अरे, उसे बगुलाभगत मत कहो, शीलभद्र हंस कहो।’’ दोनों ने फिर अपनी गलती महसूस की और पंजे उठाकर कान पकड़े।

‘‘देखो’’, कुबड़ा शुतुरमुर्ग बोल रहा था, ‘‘चाहे जैसी भी परिस्थिति हो, शीलभद्र हंस को जिताना है। हम लोग तीन हैं और चेयरमैन कागराज को लेकर चार। वोटिंग लेंगे हम लोग। आप लोगों की सारी विद्या-बुद्धि की सफलता इस बात में है कि सत्यव्रत हंस को बगुला और बगुलाभगत को शीलभद्र हंस सिद्ध कर दें। आप लोग पूछने के लिए पहले से सवाल सोच लें।’’
‘‘कौन-कौन से सवाल पूछने होंगे, गुरुदेव ?’’

‘‘अरे, इतना पढ़-लिखकर भी तुम लोग निकम्मे ही रहे। दुनिया में बेहूदे सवालों की क्या कमी ? कुछ भी पूछो और उस हंस के बच्चे को लताड़कर छोड़ो।’’

‘‘एवमस्तु गुरुदेव, एवमस्तु !’’ दोनों शुतुरमुर्ग भय और आतंक से झुक गए। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था, लेकिन उत्सुकतावश इन तीनों के पीछे चलता-चलता बगीचे के उस हिस्से में पहुँचा जहाँ कोई इंटरव्यू होनेवाला था। दिन डूब चुका था। रंग-बिरंगे ट्यूब लाइटों का ऐसा मोहक जाल फैला हुआ था कि चेहरे को असली रूप में पहचानना मुश्किल हो रहा था। खास करके उम्मीदवारों और एक्सपर्टों के ऊपर विशेष प्रकार के रंगीन फोकस की व्यवस्था थी। कुबड़ा शुतुरमुर्ग राजकुमार-सा लगने लगा। बीमार शुतुरमुर्ग के चेहरे पर रंगीन आभा तैरने लगी और कसी हुई आँखों वाले शुतुरमुर्ग के मुखमंडल पर तरलता खेलने लगी। तीनों एक रंगमंच पर बैठे थे। इन तीनों के बाद बीच की कुरसी पर एक कौवा बैठा था। उसकी ओर श्वेत हंस शालीनता से विराजमान था।

काफी लोग जमा थे वहाँ। पूछने पर मालूम हुआ कि सरकार ने विशेष नियम बना दिया है कि मानसरोवर में एक निश्चित तादात से अधिक हंस न रखे जाएँ, क्योंकि वहाँ के हंस आपस में लड़ते हैं, वहाँ की शोभा का स्तर गिरता है। मानसरोवर की शोभा का स्तर ‘मेनटेन’ करने के लिए सरकार ने कुछ हंसों को छोड़कर शेष को वहाँ से मैदानों की ओर खदेड़ दिया है कि जाओ, जो भी पाओ, खाने का अभ्यास करो। बेचारे हंस अपने देश जाने के लिए तड़पते हैं, मगर सरकारी सेंसर उन्हें जाने नहीं देता; क्योंकि वहाँ मानसरोवर में खाने-पीने और विशिष्ट पदों की व्यवस्था है। कोई हंस मरा है तो एक वेकेंसी हुई है, उस वेकेंसी को भरने के लिए यह इंटरव्यू हो रहा है।’’

‘‘अद्भुत ! हंसों का इंटरव्यू कौआ और शुतुरमुर्ग ले रहे हैं !’’ मैं विस्मय से बुदबुदाया।
‘‘इसमें क्या अद्भुत है साहब, कोई नई बात हो तो अद्भुत लगे। सरकार की यह नीति है कि कौए और शुतुरमुर्ग या कोई अन्य जाति के पक्षी हंसों का इंटरव्यू लेंगे, तो पक्षपात नहीं करेंगे।’’ पास के एक सज्जन बोले।
‘‘लेकिन यह न्याय कैसे करेंगे ?’’
‘‘अरे तो न्याय-अन्याय देखने कौन आया है साहब, हम तो तमाशा देखने आए हैं, आप भी तमाशा देखिए।’’

‘‘शायद आप ठीक कहते हैं।’’ इस भाव से देखकर मैं चुप रह गया। पास के सज्जन बोल रहे थे, ‘‘जो कौए महोदय हैं, वे सरकार द्वारा मनोनीत किए गए हैं, ये अपनी समदर्शिता के लिए प्रसिद्ध हैं। ये तीन शुतुरमुर्ग विभिन्न चिड़ियाघरों से आए हैं, इन्हें यहाँ की स्थानीय सरकार ने चुना है और वे जो हंस महोदय बैठे हैं, वे मानसरोवर के हंसों की ओर से प्रतिनिधि बनाकर भेजे गए हैं। उम्मीदवार के रूप में तरह तरह के पक्षी हंस के लिबास में आए हैं। देखिए क्या होता है ?’’
‘‘इन्हें हंसों की क्या पहचान ?’’
‘‘यही तो तमाशा है न ?’’
नाम पुकारे जाने लगे, इंटरव्यू होने लगा। उम्मीदवार आने-जाने लगे। पास के सज्जन बोले, ‘‘देखिए, असली मजा तो अब आएगा। वास्तविक संघर्ष तो उस हंस और हंस की पोशाक पहने उस अहिंसावादी से दिखनेवाले बगुले में है। सब जानते हैं कि यह बगुला है, मगर देखिए, कैसे सच्चा हंस सिद्ध होता है।’’
‘‘सत्यव्रतजी और शीलभद्रजी !’’ पुकार हुई। दोनों एक साथ रंगमंच की ओर गए। उन्हें पास-पास बैठा दिया गया।

कौए ने पूछा-‘‘आप हंस हैं न !’’
‘‘जी !’’
‘‘सत्यव्रत नाम है आपका !’’
‘‘जी !’’
‘‘अच्छा तो आप भी हंस हैं ?’’
‘‘जी हाँ, जी हाँ !’’
‘‘शीलभद्र नाम है आपका ?’’
‘‘जी हाँ, जी हाँ।’’
लोग हँसने लगे। कौए ने आँख नचाकर नोट किया, फिर शुतुरमुर्गों से कहा। ‘‘पूछिए आप लोग।’’
कसी हुई आँखोंवाले शुतुरमुर्ग ने बहुत ही निस्पंद, पर दृढ़ आवाज में पूछा, ‘‘सत्यव्रतजी, क्या प्रमाण है कि आप हंस हैं ?’’
‘‘अजी, अब मैं इसका क्या प्रमाण दूँ ? साक्षात् हंस हूँ, हंस-कुल में पैदा हुआ हूँ, मेरे पिता श्री हंस थे, मेरी माता हंसी थी।’’
‘‘मगर इसका क्या प्रमाण कि आप हंस के बेटे हैं ?’’ लोग हँसने लगे। मगर हंस खीझ गया-‘‘साहब, यह तो बड़ा बेतुका प्रश्न है। यह सवाल आपसे पूछा जाए या इन मनुष्यों से पूछा जाए, तो वे या आप क्या प्रमाण देंगे अपने बाप की संतान होने का !’’

शुतुरमुर्ग निरुद्वेग भाव से बोला, ‘‘आपको प्रश्न के बदले में प्रश्न करने का कोई अधिकार नहीं है। प्रमाण दे सकते हैं तो दीजिए। सरकारी काम बिना प्रमाण के नहीं होते।’’
‘‘मैं स्वयं प्रमाण हूँ। हंस को पहचानने की शक्ति हो, तो पहचानिए।’’
शुतुरमुर्ग ने काग महोदय की ओर मुखातिब होकर कहा, ‘‘महोदय नोट कीजिए, ये प्रमाण नहीं दे सके।’’
काग महोदय ने आँख नचाकर नोट किया।
शुतुरमुर्ग ने फिर शीलभद्र से पूछा, ‘‘साहब, आप प्रमाण दीजिए हंस होने को।’’ शीलभद्र थोड़ा सा मुसकराया और अपने थैले में से एक सरकारी डॉक्टर का सर्टिफिकेट पेश कर दिया। उसमें लिखा था-‘मैं प्रमाणित करता हूँ कि शीलभद्र हंस का बेटा है। यह डिलीवरी मैंने ही कराई थी।’

शुतुरमुर्ग की आँखें हँसी से खिल उठीं, ‘‘इसे कहते हैं प्रमाण ! काग महोदय, नोट कीजिए।’’
अब लंबे शुतुरमुर्ग ने पूछना शुरू किया, ‘‘अच्छा सत्यव्रतजी, आपकी जाति तो चिड़ियों में सबसे अधिक ज्ञानी मानी जाती है, वैसे शुतुरमुर्ग और कौए भी किसी से कम अक्लमंद नहीं होते; लेकिन सरस्वती मैया ने आप लोगों पर विशेष कृपा की है। सरस्वती को वाणी कहा जाता है, यानी सारी बोलियों की स्वामिनी वे ही हैं और आप लोगों को उनका वाहन होने के कारण सारे जीव-जंतुओं की वाणी में परिचित होना चाहिए। खास करके पक्षियों की बोलियों का ज्ञान तो आपको होना ही चाहिए। आप बताइए कि बगुला कैसे बोलता है ?’’

हंस चकित था। उसे कोई जवाब नहीं सूझा। परेशान होकर बोला, ‘‘साहब, हम असली पक्षी केवल अपनी बोली बोलते हैं। दूसरों की बोली या तो कुछ गुलाम पक्षी बोलते हैं या दूसरों को ठगनेवाले आदमी। कहिए तो अपनी बोली बोलूँ, मुझे नकली बोली बोलना नहीं आता।’’
‘‘आपकी बात सही नहीं है, सत्यव्रतजी ! कुछ ऐसे अक्लमंद पक्षी भी होते हैं, जो दूसरों की बोली बोल लेते हैं, इससे उनकी अपने आस-पास के समाज के प्रति जागरूकता मालूम पड़ती है। आप बोल सकते हैं, शीलभद्रजी, बगुले की बोली ?’’
आव देखा न ताव, शीलभद्र, ‘टेंखूँ-टेंखूँ’ चिल्लाने लगा।
‘‘बस, बस, ’’ शुतुरमुर्ग चिल्लाया-‘‘नोट कीजिए, काग महोदयजी।’’
अब कुबड़े शुतुरमुर्ग की बारी आई, बोला, ‘‘कहिए सत्यव्रतजी, आप तो सरोवर में ही रहते हैं, रहते हैं न !’’
 


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