सामाजिक >> मंगल भवन मंगल भवनविवेकी राय
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गाँव मेरा आराध्य देव है उसी के सूत्र से ‘मंगल भवन’ में मैंने राष्ट्र-देवता को पकड़ने का प्रयास किया है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
गाँव मेरा आराध्य देव है उसी के सूत्र से ‘मंगल भवन’
में
मैंने राष्ट्र-देवता को पकड़ने का प्रयास किया है। ऐसा ही प्रयास सन 1979
में प्रकाशित मेरे ऐतिहासिक उपन्यास ‘श्वेतपत्र’ में
हुआ है
और पाठकों ने उसके देशभक्ति से ओतप्रोत स्वर को बहुत पसंद किया।
इतने पर भी सन् 1979 और 94 में बहुत अंतर है। गिरावट की स्थिति और गति अत्यंत भयाहव है। गाँव से लेकर पूरे देश के मंगल भवनों में आग लगी है। सारे उदात्त जीवन मूल्य धू-धू कर जल रहे हैं। अपने आँसुओं सहित खून-पसीने को झोंककर मेरा लेखक उस आग को बुझाने में जुटा है। संक्षेप में यह प्रस्तुत कृति की भूमिका है।
और अधिक लिखूं भी तो क्या ? जिस राजनीतिजीवी युग में देशभक्ति और राष्ट्रीय भावों को दुर्भाग्यवश जीवन-क्षेत्र से खारिज कर दिया गया है, उस दौर में उनके प्रासंगिक स्वरों को उठाना समय की जबरदस्त माँग होने के साथ-साथ मेरी विवशता रही है।
उक्त तथ्य को रचना के भीतर से गुजरते समय मेरे पाठक महसूस कर सकें, ऐसा प्रयास मेरी ओर से किया गया है। तटस्थ दृष्टि के साथ-साथ प्रयत्न इस बात के लिए भी हुआ है कि अपने यशस्वी राष्ट्र भारत की भावात्मक शौर्यगाथा, जो समांतर चित्रित समकालीन ग्राम्य-जीवन की अंतरंग संघर्ष-कथा के बीच सीधे साहित्यकार की नियति पर चोट करती हुई उभरती है, कहीं से विवादास्पद या यथार्थ-च्युत अथवा प्रचार जैसी न प्रतीत हो।
मेरे इस सृजनात्मक अनुष्ठान में दैनिक ‘आज’ (वाराणसी) ‘वीणा’ (इंदौर), श्री ईश्वरचंद सिन्हा (वाराणसी), डॉ. गोपाल राय (पटना), डॉ. अनिलकुमार आंजनेय (उजियार, बलिया) और श्री शेषनाथ राय एडवोकेट (मुहम्मदाबाद गाजीपुर) से समय-समय पर विविध प्रकार के मूल्यवान सहयोग और आवश्यक परामर्श मिले हैं। उक्त सभी के प्रति मैं हृदय से आभारी हूँ।
इस अवसर पर मैं उन कवियों के प्रति सम्मान और आभार प्रकट करना अपना कर्तव्य समझता हूँ जिनकी कविता-पंक्तियाँ ‘मंगल भवन’ के भीतर एक शौर्य-कथा को मर्मस्पर्शी बनाने के वलिए अनाम प्रयुक्त हुई हैं। यथास्थान इन कवियों के नाम क्रमशः इस रूप में समझे जाने चाहिए—श्यामनारायण पांडेय, कैस बनारसी, मैथलीशरण गुप्त, रामविलास शर्मा, कांतानाथ पांडेय राजहंस, साहिर लुधियानवी, नागार्जुन, श्रीपालसिंह ‘क्षेम’ नरेन्द्र शर्मा, गोपालसिंह नेपाली, रामधारीसिंह ‘दिनकर’, शिवमंगलसिंह ‘सुमन’, रूपनारायण पांडेय, प्रभाकर माचवे, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिवंशराय ‘बच्चन’, दिनकर, नीरज और रामावतार त्यागी।
अन्त में अपने प्रबुद्ध पाठकों और समीक्षकों को सादर स्मरण कर लूँ। यह वास्तव में उनके द्वारा समय-समय पर प्राप्त होता रहता बल और संबल है जो लेखन-यात्रा में बावजूद अगणित बाधाओं के मुझे थकने नहीं देता। भरपूर विश्वास है कि मेरी यह रचना भी भरपूर रुचि के साथ पढ़ी जाएगी।
इतने पर भी सन् 1979 और 94 में बहुत अंतर है। गिरावट की स्थिति और गति अत्यंत भयाहव है। गाँव से लेकर पूरे देश के मंगल भवनों में आग लगी है। सारे उदात्त जीवन मूल्य धू-धू कर जल रहे हैं। अपने आँसुओं सहित खून-पसीने को झोंककर मेरा लेखक उस आग को बुझाने में जुटा है। संक्षेप में यह प्रस्तुत कृति की भूमिका है।
और अधिक लिखूं भी तो क्या ? जिस राजनीतिजीवी युग में देशभक्ति और राष्ट्रीय भावों को दुर्भाग्यवश जीवन-क्षेत्र से खारिज कर दिया गया है, उस दौर में उनके प्रासंगिक स्वरों को उठाना समय की जबरदस्त माँग होने के साथ-साथ मेरी विवशता रही है।
उक्त तथ्य को रचना के भीतर से गुजरते समय मेरे पाठक महसूस कर सकें, ऐसा प्रयास मेरी ओर से किया गया है। तटस्थ दृष्टि के साथ-साथ प्रयत्न इस बात के लिए भी हुआ है कि अपने यशस्वी राष्ट्र भारत की भावात्मक शौर्यगाथा, जो समांतर चित्रित समकालीन ग्राम्य-जीवन की अंतरंग संघर्ष-कथा के बीच सीधे साहित्यकार की नियति पर चोट करती हुई उभरती है, कहीं से विवादास्पद या यथार्थ-च्युत अथवा प्रचार जैसी न प्रतीत हो।
मेरे इस सृजनात्मक अनुष्ठान में दैनिक ‘आज’ (वाराणसी) ‘वीणा’ (इंदौर), श्री ईश्वरचंद सिन्हा (वाराणसी), डॉ. गोपाल राय (पटना), डॉ. अनिलकुमार आंजनेय (उजियार, बलिया) और श्री शेषनाथ राय एडवोकेट (मुहम्मदाबाद गाजीपुर) से समय-समय पर विविध प्रकार के मूल्यवान सहयोग और आवश्यक परामर्श मिले हैं। उक्त सभी के प्रति मैं हृदय से आभारी हूँ।
इस अवसर पर मैं उन कवियों के प्रति सम्मान और आभार प्रकट करना अपना कर्तव्य समझता हूँ जिनकी कविता-पंक्तियाँ ‘मंगल भवन’ के भीतर एक शौर्य-कथा को मर्मस्पर्शी बनाने के वलिए अनाम प्रयुक्त हुई हैं। यथास्थान इन कवियों के नाम क्रमशः इस रूप में समझे जाने चाहिए—श्यामनारायण पांडेय, कैस बनारसी, मैथलीशरण गुप्त, रामविलास शर्मा, कांतानाथ पांडेय राजहंस, साहिर लुधियानवी, नागार्जुन, श्रीपालसिंह ‘क्षेम’ नरेन्द्र शर्मा, गोपालसिंह नेपाली, रामधारीसिंह ‘दिनकर’, शिवमंगलसिंह ‘सुमन’, रूपनारायण पांडेय, प्रभाकर माचवे, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिवंशराय ‘बच्चन’, दिनकर, नीरज और रामावतार त्यागी।
अन्त में अपने प्रबुद्ध पाठकों और समीक्षकों को सादर स्मरण कर लूँ। यह वास्तव में उनके द्वारा समय-समय पर प्राप्त होता रहता बल और संबल है जो लेखन-यात्रा में बावजूद अगणित बाधाओं के मुझे थकने नहीं देता। भरपूर विश्वास है कि मेरी यह रचना भी भरपूर रुचि के साथ पढ़ी जाएगी।
15 अगस्त, 1994
-विवेकीराय
मंगल भवन
अवकाश प्राप्त हुए दो सप्ताह बीत गए। कोई खास फर्क नहीं पड़ा। बस इतना ही
कि मैंने मान लिया, अब मैं अध्यापक नहीं रहा। अब मैं सिर्फ किसान और
साहित्यकार हूँ। थोड़े दिनों बाद शायद साहित्कार भी न रह जाऊँ। तब बच
जाएगा मूलरूप, वही किसानवाला। ठीक ही है, ‘जो कुछ था सोई
भया।’’
लेकिन ऐसा कैसे होगा कि मैं साहित्यकार नहीं रह जाऊँ ? इसमें कोई सर्विसवाला मामला थोड़े है कि उम्र के एक खास बिंदु पर अपने आप रिटायरमेंट आ धमके। साहित्य की सेवा में लगा व्यक्ति धरती से जुड़े आदमी की भांति कभी सेवानिवृत नहीं होता। तब ऊपर वाली आशंका क्यों उठती है ? शायद इसकी वजह यह है कि मेरा रचनाकार थकता जा रहा है। यह इसी प्रकार थकता गया और एक दिन कलम रख देनी पड़ी तो क्या जीते-जी मेरे अध्यापक की भाँति ‘भूतपूर्व’ नहीं हो जाएगा ?
नहीं, ऐसा नहीं होगा। अध्यापक की तरह साहित्यकार भूतपूर्व नहीं होता है। वह सदा सेवारत जीवंत रहता है। मैं भी जीवंत हूँ। थकावटवाली बात सच नहीं है। मैं थका कहाँ हूँ ? थका हुआ आदमी तो हारकर बैठ जाता है। मैं बैठा कहाँ हूँ ? मेरी सक्रियता बनी हुई है। हाँ, समय ने और स्थितियों ने कुछ अधिक बेरहमी से घिस दिया है। लड़ाइयाँ नए-नए मोरचों पर कुछ अधिक ही लड़नी पड़ी हैं। इनके चलते रचनाकार शायद कुछ ठंडा पड़ गया है।
यह तो फिर वह बात हुई। आखिर अंतर क्या है थकने और ठंडा पड़ने में ?
बहस बेकार है। यह मान लूँ कि कुछ थक गया हूँ और ठंडा पड़ गया हूँ तो इससे क्या हो जाता है? थका हुआ आदमी सुस्ताकर फिर अपने मार्ग पर पूर्ववत लग जाता है और ठंडा पड़ा आदमी यदि कहीं से कुछ गरमी पा जाए तो वह पुनः पनपना उठता है।
मेरा रचनाकार लगभग दो वर्ष से सुस्ता रहा है। हाँ, पिछला उपन्यास समाप्त हुए इतना समय बीत गया। अब वह नया उपन्यास शुरु करना चाहता है, कुछ गरमाहट पैदा करनेवाला उपन्यास। यद्यपि साँसों में भरी जमाने की गरमी कम नहीं है और कम नहीं है भ्रष्टाचार, हिंसा और गंदी राजनीति आदि की आँच; परंतु इस उपन्यास में मैं इसे पृष्भूमि नहीं बनाना चाहता। मुझे छूते ही लगता है, मेरा लेखक और ठंडा हो जाएगा। नहीं, फिलहाल मैं ठंडा नहीं होना चाहता हूँ। मेरे उत्साहवर्धन के लिए सावन अच्छे वक्त पर आ गया है।
उम्मीद तो सावन से बहुत थी—आकर वह मन को हरा कर देगा। लेकिन कहाँ हो रहा है मन हरा ? उसकी बंजरता बढ़ती ही जा रही है। बाहर की पड़ती फुहार मन को छू भी नहीं पाती। यदि कहीं से छूती भी है तो गजब हो जाता है। उसका वह रूप ही बदल जाता है। वह दुर्दिन की प्रलयकारी मूसलाधार वर्षा का जल बन कल्पना में उभरती है और मन अकुल हो जाता है। पिछले सप्ताह गाँव गया था तो देखा था कि उत्तरवाले घर की बँडेरी ध्वस्त हो गई है। खपरैलें जहाँ-तहाँ उघड़ गई हैं। तेज पानी लगातार पड़ा तो बैठ जाएगा। फिर तो आज नए सिरे से ऐसे घर को उठाना कितना कठिन है ?
अब मिट्टी का घर यानी कच्चा घर बनाना हिम्मत का काम हो गया है। उसके कारीगर खोजने पर जल्दी मिलते नहीं। वह प्रणाली ही उठती जा रही है। फिर कच्चे और पक्के घर बनाने में खर्च बराबर पड़ रहा है। व्यय में भले कोई अंतर नहीं रह गया, मगर चीज में बहुत अंतर आ गया है। कहां मिट्टी और कहाँ ईंट? कहाँ कच्चा और कहाँ पक्का ?
बन जाने दो तुम तभी विक्रम, कच्चे की जगह पक्का मकान। गिर जाने दो उस जीर्ण-जर्जर-घरौंदे जैसे घर को !
अभिलाषा भीतर कम थोड़े ही है, लेकिन गाँठ के पैसे ? खाली हाथ लड़ाई चले कैसे ?
लड़ने के लिए हरदम तैयार रहना पड़ता है। पैसा एक लड़ाई है। गाँव एक लड़ाई है। उसकी याद और भी भारी लड़ाई है। यह शहर एक लड़ाई है। यहाँ जीना एक लड़ाई है। जिन्दगी को जीते हुए साहित्य लिखना तो सबसे विकट लड़ाई है। वह एक बड़ी और दूर तक चलने वाली लड़ाई है। इसके इर्द-गिर्द अनगिनत छोटे-मोटे मोरचे हैं जिन पर रोज-रोज जूझना है।
ऐसी स्थिति में कहाँ से मिले उत्साह की ऊष्मा ? नहीं, ठंडा पड़ा जाना मेरी नियति नहीं है। मैं अपनी ऊष्मा की वापसी के लिए भीतर नए उपन्यास को पका रहा हूँ ! नहीं, यह पक चुका है। मैं इसके सामने बैठा हूँ, लेकिन हाथ लगाते डर लग रहा है। बहुत तेज आँच है इसमें। कहाँ से इसे उठाऊँ ? कैसे खोलूँ ? डर लगता है। मगर नहीं, यह तो लड़ाई है और इसीलिए मुझे उत्साह नामक स्थायी भाव की तलाश है।
इधर वर्तमान जीवन है, अपना पूरा परिवेश है कि जिसमें बस इसी वस्तु का घोर अभाव हो गया है। इतना उत्साहहीन समय तो कभी सिर से गुजरा नहीं। क्या हो गया युग को जमाने को ? कैसे लकवा मार गया ? विक्रम, कुछ गंभीरता के साथ सोच।
मैं अपने जीवन के सबसे उत्साह भरे उन ऐतिहासिक दिनों को याद कर रहा हूँ जब मैं अपने गाँव से छः सात किलोमीटर दूर, सरसइया इंटर कॉलेज में प्राध्यापक था। शहर के डिग्री कॉलेज में तो बहुत बाद में अर्थात् 1965 में गया। इसके पूर्व जिस दुनिया में था उसमें खेतों के बीच से होती ऊबड़-खाबड़ पगडंडियाँ थीं, जिनसे साइकिल द्वारा रोज आना-जाना था। बरसात –बाढ़ के दिनों में साइकिल तो क्या पैदल के लिए भी मार्ग बहुत बीहड़ हो जाता था। यहाँ ‘था’ लिखने का अर्थ यह नहीं है कि अब उस रास्ते पर पक्की सड़क पट गई है। उस रास्ते की बीहड़ता आज भी ज्यों-कि-त्यों बरकरार है, और अब ऐसा लगा है कि जैसे अनंतकाल तक वह मेरे लेखक को मुँह बिराती रहेगी। सचमुच, सरइया रहते समय उस मार्ग की बीहड़ता को अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में मैं कस-कसकर कोसा करता था। इस संदर्भ में सरकारी विकास-कार्यों की खूब आलोचना किया करता था। बराबर यही उम्मीद जगती कि अब सड़क बन जाएगी, और बराबर वह उम्मीद किए जैसे जगती वैसे ही सो जाती। सो, अब भी मेरे उस पुराने कॉलेज-मार्ग की बीहड़ता एक चुनौती बनी हुई है।
लेकिन मेरे उस ऐतिहासिक उत्साह का संदर्भ कुछ और रहा। एक पिछड़े जनपद की क्षेत्रीय कठिनाई से नहीं, समूचे राष्ट्र के ऊपर घहराए अभूतपूर्व संकट के भीतर से होकर गुजरने के वे दिन थे। वे चंद गिन-चुने यानी कुछ थोड़े से दिन थे, परंतु सचमुच ही गजब के उत्साह भरे दिन थे। कवि रहीम ने एक दोहे में लिखा है कि वह बिपदा भी भली है जो थोड़े दिनों के लिए होती है। उसमें हित-अनहित पहचान में आ जाते हैं। अपने भारत देश के शत्रु मित्र भी पहचान में आ गए। जबरदस्त धक्का तो इस बात का लगा कि जो देश युग-युग से भारत का सांस्कृतिक मित्र था और भारत ने ‘भाई-भाई’ का नारा देकर जिससे गहरी दोस्ती जमाई थी, वही शत्रु बन गया। इस प्रकार अचानक ही जब मित्र शत्रु बन सामने आ जाता है तो हक्के-बक्के रह जाने जैसी हालत हो जाती है। यही नहीं तनकर मुकाबला करने में बहुत हड़बड़ी हो जाती है।
मुझे याद है वह हड़बड़ी और याद है उसके भीतर से उपदी विस्फोटक उत्साह की आग। अरे, वह सीमा की आग क्या साधारण थी ?
तो, मैं आपको इस देश की सीमा की आग के आगे खड़ा कर दूँ। इससे मेरी अपनी सीमा में लगी आग के उपद्रव भी घटेंगे। बहुत विचित्र है यह आग। यह वास्तव में कहीं नहीं, परंतु भीतर से मुझे बेहद आकुल कर देती है। यह बात वैसी ही हुई जैसे कहा जाता है कि यह संपूर्ण प्रपंच जो प्रत्यक्ष भासित होता है वास्तव में है नहीं, मिथ्या है, अच्छा, माना कि मिथ्या है; मगर दुःख तो देता है ! दौड़ा-दौड़ाकर थका तो देता है !
लेकिन ऐसा कैसे होगा कि मैं साहित्यकार नहीं रह जाऊँ ? इसमें कोई सर्विसवाला मामला थोड़े है कि उम्र के एक खास बिंदु पर अपने आप रिटायरमेंट आ धमके। साहित्य की सेवा में लगा व्यक्ति धरती से जुड़े आदमी की भांति कभी सेवानिवृत नहीं होता। तब ऊपर वाली आशंका क्यों उठती है ? शायद इसकी वजह यह है कि मेरा रचनाकार थकता जा रहा है। यह इसी प्रकार थकता गया और एक दिन कलम रख देनी पड़ी तो क्या जीते-जी मेरे अध्यापक की भाँति ‘भूतपूर्व’ नहीं हो जाएगा ?
नहीं, ऐसा नहीं होगा। अध्यापक की तरह साहित्यकार भूतपूर्व नहीं होता है। वह सदा सेवारत जीवंत रहता है। मैं भी जीवंत हूँ। थकावटवाली बात सच नहीं है। मैं थका कहाँ हूँ ? थका हुआ आदमी तो हारकर बैठ जाता है। मैं बैठा कहाँ हूँ ? मेरी सक्रियता बनी हुई है। हाँ, समय ने और स्थितियों ने कुछ अधिक बेरहमी से घिस दिया है। लड़ाइयाँ नए-नए मोरचों पर कुछ अधिक ही लड़नी पड़ी हैं। इनके चलते रचनाकार शायद कुछ ठंडा पड़ गया है।
यह तो फिर वह बात हुई। आखिर अंतर क्या है थकने और ठंडा पड़ने में ?
बहस बेकार है। यह मान लूँ कि कुछ थक गया हूँ और ठंडा पड़ गया हूँ तो इससे क्या हो जाता है? थका हुआ आदमी सुस्ताकर फिर अपने मार्ग पर पूर्ववत लग जाता है और ठंडा पड़ा आदमी यदि कहीं से कुछ गरमी पा जाए तो वह पुनः पनपना उठता है।
मेरा रचनाकार लगभग दो वर्ष से सुस्ता रहा है। हाँ, पिछला उपन्यास समाप्त हुए इतना समय बीत गया। अब वह नया उपन्यास शुरु करना चाहता है, कुछ गरमाहट पैदा करनेवाला उपन्यास। यद्यपि साँसों में भरी जमाने की गरमी कम नहीं है और कम नहीं है भ्रष्टाचार, हिंसा और गंदी राजनीति आदि की आँच; परंतु इस उपन्यास में मैं इसे पृष्भूमि नहीं बनाना चाहता। मुझे छूते ही लगता है, मेरा लेखक और ठंडा हो जाएगा। नहीं, फिलहाल मैं ठंडा नहीं होना चाहता हूँ। मेरे उत्साहवर्धन के लिए सावन अच्छे वक्त पर आ गया है।
उम्मीद तो सावन से बहुत थी—आकर वह मन को हरा कर देगा। लेकिन कहाँ हो रहा है मन हरा ? उसकी बंजरता बढ़ती ही जा रही है। बाहर की पड़ती फुहार मन को छू भी नहीं पाती। यदि कहीं से छूती भी है तो गजब हो जाता है। उसका वह रूप ही बदल जाता है। वह दुर्दिन की प्रलयकारी मूसलाधार वर्षा का जल बन कल्पना में उभरती है और मन अकुल हो जाता है। पिछले सप्ताह गाँव गया था तो देखा था कि उत्तरवाले घर की बँडेरी ध्वस्त हो गई है। खपरैलें जहाँ-तहाँ उघड़ गई हैं। तेज पानी लगातार पड़ा तो बैठ जाएगा। फिर तो आज नए सिरे से ऐसे घर को उठाना कितना कठिन है ?
अब मिट्टी का घर यानी कच्चा घर बनाना हिम्मत का काम हो गया है। उसके कारीगर खोजने पर जल्दी मिलते नहीं। वह प्रणाली ही उठती जा रही है। फिर कच्चे और पक्के घर बनाने में खर्च बराबर पड़ रहा है। व्यय में भले कोई अंतर नहीं रह गया, मगर चीज में बहुत अंतर आ गया है। कहां मिट्टी और कहाँ ईंट? कहाँ कच्चा और कहाँ पक्का ?
बन जाने दो तुम तभी विक्रम, कच्चे की जगह पक्का मकान। गिर जाने दो उस जीर्ण-जर्जर-घरौंदे जैसे घर को !
अभिलाषा भीतर कम थोड़े ही है, लेकिन गाँठ के पैसे ? खाली हाथ लड़ाई चले कैसे ?
लड़ने के लिए हरदम तैयार रहना पड़ता है। पैसा एक लड़ाई है। गाँव एक लड़ाई है। उसकी याद और भी भारी लड़ाई है। यह शहर एक लड़ाई है। यहाँ जीना एक लड़ाई है। जिन्दगी को जीते हुए साहित्य लिखना तो सबसे विकट लड़ाई है। वह एक बड़ी और दूर तक चलने वाली लड़ाई है। इसके इर्द-गिर्द अनगिनत छोटे-मोटे मोरचे हैं जिन पर रोज-रोज जूझना है।
ऐसी स्थिति में कहाँ से मिले उत्साह की ऊष्मा ? नहीं, ठंडा पड़ा जाना मेरी नियति नहीं है। मैं अपनी ऊष्मा की वापसी के लिए भीतर नए उपन्यास को पका रहा हूँ ! नहीं, यह पक चुका है। मैं इसके सामने बैठा हूँ, लेकिन हाथ लगाते डर लग रहा है। बहुत तेज आँच है इसमें। कहाँ से इसे उठाऊँ ? कैसे खोलूँ ? डर लगता है। मगर नहीं, यह तो लड़ाई है और इसीलिए मुझे उत्साह नामक स्थायी भाव की तलाश है।
इधर वर्तमान जीवन है, अपना पूरा परिवेश है कि जिसमें बस इसी वस्तु का घोर अभाव हो गया है। इतना उत्साहहीन समय तो कभी सिर से गुजरा नहीं। क्या हो गया युग को जमाने को ? कैसे लकवा मार गया ? विक्रम, कुछ गंभीरता के साथ सोच।
मैं अपने जीवन के सबसे उत्साह भरे उन ऐतिहासिक दिनों को याद कर रहा हूँ जब मैं अपने गाँव से छः सात किलोमीटर दूर, सरसइया इंटर कॉलेज में प्राध्यापक था। शहर के डिग्री कॉलेज में तो बहुत बाद में अर्थात् 1965 में गया। इसके पूर्व जिस दुनिया में था उसमें खेतों के बीच से होती ऊबड़-खाबड़ पगडंडियाँ थीं, जिनसे साइकिल द्वारा रोज आना-जाना था। बरसात –बाढ़ के दिनों में साइकिल तो क्या पैदल के लिए भी मार्ग बहुत बीहड़ हो जाता था। यहाँ ‘था’ लिखने का अर्थ यह नहीं है कि अब उस रास्ते पर पक्की सड़क पट गई है। उस रास्ते की बीहड़ता आज भी ज्यों-कि-त्यों बरकरार है, और अब ऐसा लगा है कि जैसे अनंतकाल तक वह मेरे लेखक को मुँह बिराती रहेगी। सचमुच, सरइया रहते समय उस मार्ग की बीहड़ता को अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में मैं कस-कसकर कोसा करता था। इस संदर्भ में सरकारी विकास-कार्यों की खूब आलोचना किया करता था। बराबर यही उम्मीद जगती कि अब सड़क बन जाएगी, और बराबर वह उम्मीद किए जैसे जगती वैसे ही सो जाती। सो, अब भी मेरे उस पुराने कॉलेज-मार्ग की बीहड़ता एक चुनौती बनी हुई है।
लेकिन मेरे उस ऐतिहासिक उत्साह का संदर्भ कुछ और रहा। एक पिछड़े जनपद की क्षेत्रीय कठिनाई से नहीं, समूचे राष्ट्र के ऊपर घहराए अभूतपूर्व संकट के भीतर से होकर गुजरने के वे दिन थे। वे चंद गिन-चुने यानी कुछ थोड़े से दिन थे, परंतु सचमुच ही गजब के उत्साह भरे दिन थे। कवि रहीम ने एक दोहे में लिखा है कि वह बिपदा भी भली है जो थोड़े दिनों के लिए होती है। उसमें हित-अनहित पहचान में आ जाते हैं। अपने भारत देश के शत्रु मित्र भी पहचान में आ गए। जबरदस्त धक्का तो इस बात का लगा कि जो देश युग-युग से भारत का सांस्कृतिक मित्र था और भारत ने ‘भाई-भाई’ का नारा देकर जिससे गहरी दोस्ती जमाई थी, वही शत्रु बन गया। इस प्रकार अचानक ही जब मित्र शत्रु बन सामने आ जाता है तो हक्के-बक्के रह जाने जैसी हालत हो जाती है। यही नहीं तनकर मुकाबला करने में बहुत हड़बड़ी हो जाती है।
मुझे याद है वह हड़बड़ी और याद है उसके भीतर से उपदी विस्फोटक उत्साह की आग। अरे, वह सीमा की आग क्या साधारण थी ?
तो, मैं आपको इस देश की सीमा की आग के आगे खड़ा कर दूँ। इससे मेरी अपनी सीमा में लगी आग के उपद्रव भी घटेंगे। बहुत विचित्र है यह आग। यह वास्तव में कहीं नहीं, परंतु भीतर से मुझे बेहद आकुल कर देती है। यह बात वैसी ही हुई जैसे कहा जाता है कि यह संपूर्ण प्रपंच जो प्रत्यक्ष भासित होता है वास्तव में है नहीं, मिथ्या है, अच्छा, माना कि मिथ्या है; मगर दुःख तो देता है ! दौड़ा-दौड़ाकर थका तो देता है !
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