उपन्यास >> गाथा तिस्ता पार की गाथा तिस्ता पार कीदेवेश राय
|
0 |
गाथा तिस्ता पार की (तिस्ता पारेर वृत्तांत) तिस्ता नदी के किनारे बसे एक गाँव में किसान विद्रोह पर आधारित एक बृहदाकार औपन्यासिक कृति है। यह कृति समकालीन बाङ्ला में लिखित भारतीय साहित्य को महत्त्वपूर्ण योगदान मानी गई है। इस उपन्यास में न कोई नायक है, न नायिका। इसमें जीवन का वह रूप प्रस्तुत है जिसे ग्रामवासी जीते हैं। इस कृति में वन्य प्रकृति, नदी, जंगल, वनांचल और हाट-बाज़ार तथा उत्सव-सभी का अंकन बड़ी सादगी से किया गया है। इसमें स्थानीय रंगों का और लोकसमृद्ध विशिष्ट रंगतों का प्रभावी प्रयोग हुआ है। अपने सूक्ष्म निरीक्षण और सामाजिक-ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के संवेदनशील बोध के लिए, जिन्हें मानव अपने लिए सर्जित करता है या जिन बंधनों में वह स्वयं बँध जाना चाहता है, उसका विशद चित्रण है।
यह उपन्यास बंगाल, बिहार, असम और बाङ्लादेश के सीमांत पर बसे लोगों की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जिजीविषा का जीवन्त दस्तावेज़ है। रिपोर्ताज़ शैली में लिखित यह बृहद् कृति ग्राम-समाज में व्यापक शोषण, उत्पीड़न तथा वन-संपदा या जंगलात पर आश्रित जन-जातियों के लगातार बेदख़ल होने की मार्मिक कथा-यात्रा है। दलीय राजनीति के हस्तक्षेप द्वारा हमारी कृषक और श्रमिक समाज-व्यवस्था कितनी विकृत और दूषित हो गई है, इसका सूक्ष्म निरीक्षण लेखक ने बहुत ही तटस्थ और निस्पृष्ठ होकर किया है। इस उपन्यास में आम लोगों की ज़िन्दगी, सुख-दुख के ताने-बाने से बुने लोकाचार के साथ-साथ अपनी पहचान बनाये रखने के लिए दलगत नारेबाज़ी, जुलूस तथा अन्य सामाजिक आयोजनों में की गई उनकी भागीदारी का भी रोचक आकलन है। प्रस्तुत उपन्यास पढ़ते हुए पाठकों को ऐसा प्रतीत होगा कि वे भी एक पात्र बनकर नाटकीय प्रसंगों में चाहे-अनचाहे सम्मिलित हो गये हैं।
|