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रस्सी

शिवशंकर पिळ्ळ

सुधांशु चतुर्वेदी

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :1043
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16360
आईएसबीएन :8172013353

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प्रस्तुत कृति रस्सी (कयर) में तकषी शिवशंकर पिळळ ने केरल के विगत डेढ़ सौ वर्षों के जीवन का ऋण किया है और एक सामंती समाज के उदय और उत्कर्ष से लेकर आज तक़ के संघर्ष को प्रस्तुत किया है। समाज के विभिन्‍न स्तरों पर यह एक विविध स्वर वाली महान्‌ कृति है जिसमें यथार्थवाद, फंतासी, दंतकथा और आख्यान घुल-मिलकर एक अपूर्व पच्चीकारी निर्मित करते हैं और इसे केरल की एक श्रेष्ठ कथाकृति बना देते हैं। इसमें तिरूवितांकूर के एक विशिष्ट प्रदेश के संदर्भ में आरंभ से लेकर आज तक के भूमि-सुधार नियम लागू होने तक जीवन की समस्त प्रक्रिया और परिणति देखी जा सकती है। तकषी मानव-जीवन की अपने गहरी समझ तथा दुर्लभ मनोवैज्ञानिक अर्न्त॑दृष्टि के माध्यम से पात्रों की मनोदशाओं और व्यवहार प्रतिमानों का चित्रण करते हैं।

इस शताब्दी के चौथे दशक में केरल में प्रतिभाशाली लेखक़ों का एक समूह उस समय के भावात्मक लेखन के विरुद्ध संघर्ष कर रहा था और साहित्य में सामाजिक यथार्थवाद के एक नये युग में जाने के लिए प्रयत्नशील था। उनकी अपनी पृष्ठभूमि थी--बेहद्‌ खूबसूरत लेकिन निचली सतहवाले तथा जलमग्न गाँव और किसान के बेटे। देहात, जिसमें खेतिहर मज़दूर एवं सामाजिक रूप से पिछड़े और उत्पीड़ित ‘पुलय’ और ‘परय’ तो थे ही, प्रकृति तथा वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध उनका अविरत संघर्ष भी था। इस पृष्ठभूमि ने उन्हें नयी दृष्टि दी। तोट्टियडे मकन और राण्डिटइङषी (दो सेर धान) नामक दो उपन्यास प्रकाशित हुए जिनके द्वारा मलयाळम में सामाजिक यथार्थवादी उपन्यास लेखक अपने उत्कर्ष पर पहुँच गया।

तकषी के लेखन के बारे में वी.कें. मेनन का विचार है - तकषी एक बहुसर्जक रचनाकार है। निबंधों और यात्रा-वृत्तांत के अलावा उनके पैंतीस उपन्यास और लगभग पाँच सौ कहानियाँ प्रकाशित हैं। जीवन के अस्सी वर्ष पार करने के बावजूद वे अपने को निरंतर परिवर्तित और विकसित करने के आग्रही रहे हैं। यह विकास उनकी रचनात्मकता की ही नहीं, उनकी सर्जना की भी कसौटी है। इसकी कोई सीमा नहीं है और कोई भी इस धारदार क़लम से यह अपेक्षा कर सकता है जो इतनी धाराप्रवाह, इतनी बेचैन और इतनी विदग्ध है।

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