कहानी संग्रह >> मामला आगे बढ़ेगा अभी मामला आगे बढ़ेगा अभीचित्रा मुदगल
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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानी संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
चित्रा मुद्गल की कहानियाँ एक बार फिर कहानी में भरे-पूरे परिवार को
केन्द्र में रखकर चलने पर जोर देकर चलती दिखाई देती है। पिछले दिनों छद्म
क्रान्तिकारिता और राजनीतिक बड़बोलेपन के तहत जो कहानियाँ हिन्दी में लिखी
गई उनका एक दुःखद परिणाम यह सामने आया कि कहानी के परिवार की सत्ता गायब
होने लगी। माँ-बाप भाई-बहन जैसे पारिवारिक रिस्तों और पात्रों को कहानी से
कमोबेश निष्कासित मान लिया गया है; क्योंकि समझा गया है कि इन रिश्तों के
बाबत लिखना आसन्न क्रांति में बाधक हो सकता है। चित्रा मुद्गल के
मध्यवर्गीय परिवार के बाहर जाकर भी कहानियाँ लिखी अवश्य हैं, खासतौर से
‘लाक्षाग्रह’ में संकलित ‘मामला आगे बढ़ेगा अभी’
और ‘त्रिशुक’ जैसी कहानियाँ जिनमें झोपड़पट्टी से आए
किशोरों की मानसिकता, द्वन्द्वों और बदलते तेवरों को पर्याप्त
आश्वसकारी ढंग से चित्रित किया है; लेकिन चित्रा मुद्गल की कहानियों का
वास्तविक और क्रेंद्रीय सरोकार निश्चित नहीं है।
मुद्गल की कहानियाँ कामकाजी नौकरीपेशा महिलाओं के साथ अपनी गृहस्थी में रसी-पगी महिलाओं के परिवेशगत तनावों को बहुत बारीकी और संवेदनाशीलता के साथ चित्रित करती हैं। अपनी इन कहानियों में जो पद्धति वह अपनाती हैं वह पात्रों और प्रसंगों को विचारों में रेड्यूस कर देनेवाली पद्धति से भिन्न परिवेश के सारे जरूरी ब्योरों और प्रसंगों को रचना की गझिन बुनावट में उतार देनेवाली पद्धति है। यही कारण है कि ये कहानियाँ अपने मांसल अस्तित्व का एक ऐसा वृत्त हमारे चारों ओर बनाये रखती हैं जिसका आवेग और ताप हमें हर समय पकड़ के अंदर और छूता हुआ-सा महसूस होता है।.....
मुद्गल की कहानियाँ कामकाजी नौकरीपेशा महिलाओं के साथ अपनी गृहस्थी में रसी-पगी महिलाओं के परिवेशगत तनावों को बहुत बारीकी और संवेदनाशीलता के साथ चित्रित करती हैं। अपनी इन कहानियों में जो पद्धति वह अपनाती हैं वह पात्रों और प्रसंगों को विचारों में रेड्यूस कर देनेवाली पद्धति से भिन्न परिवेश के सारे जरूरी ब्योरों और प्रसंगों को रचना की गझिन बुनावट में उतार देनेवाली पद्धति है। यही कारण है कि ये कहानियाँ अपने मांसल अस्तित्व का एक ऐसा वृत्त हमारे चारों ओर बनाये रखती हैं जिसका आवेग और ताप हमें हर समय पकड़ के अंदर और छूता हुआ-सा महसूस होता है।.....
मधुरेश
‘समाकालीन भारतीय साहित्य
(अक्टूबर’ 84)
‘समाकालीन भारतीय साहित्य
(अक्टूबर’ 84)
समर्पण
‘‘मैं
नागों की भीड़ में
यज्ञ के सारे मंत्र भूल गया हूँ
तिल-भर जगह नहीं
जहाँ मैं
अपना हवनकुंड स्थापित कर लूँ।
नागों की भीड़ में
यज्ञ के सारे मंत्र भूल गया हूँ
तिल-भर जगह नहीं
जहाँ मैं
अपना हवनकुंड स्थापित कर लूँ।
अवध की इन पंक्तियों के नाम
अपनी बात ...
सच कहूँ तो आपसे संवाद का साहस नहीं जुटा पा रही। अपनी पिछली कहानियों के
संसार में दुबारा लौटते हुए (‘लाक्षागृह’
‘अपनी
वापसी’ में संग्रहित) स्वयं के अथक परिश्रम होने की दावेदारी
अचानक
भसकती हुई अनुभव हो रही है। जिस भी कहानी को पढ़ने के लिए उठाया, उसके
पात्रों से हुई मुठभेड़ ने मन-मस्तिष्क में अकस्मात ऐसे
दबाव
निर्मित कर दिए कि संपूर्ण चेतना ही नहीं, संवेदना भी छपटाकर उनके
पुनर्लेखन के लिए बाध्य करने लगी। बड़ी सघनता से अनुभव किया कि ऊपर
कद-काठी के लिए जितनी गहरी नींव के खनन की आवश्यकता थी, परिश्रम
के
बावजूद कहीं कोई कमी छूट गई। हमारे बैसरवाड़ा (उन्नाव) में एक कहावत
प्रचलित है।- ‘ठियाँ-ठियाँ मंजर, हियाँ, हुँआँ बंजर’।
गाँव की
चुप्पे-चप्पे धरती के अपने तेवर हैं। इस टोले से उस टोले तक विस्तार पाती
भूमि में कहीं साठ हाथ गहरे खोदने पर पानी का स्त्रोत मिल जाता है तो कहीं
सत्तर हाथ खोदने की मजबूरी आ खड़ी होती है। दस हाथ का अंतर कम नहीं होता !
रचना भूमि की यह प्रकृति है और स्त्रोत तक पहुँचने का साधन भी। लेकिन पुनर्लेखन की असाध्य बाध्यता को बड़ी कठिनाई से साधा। कि अपने समय की खाद-पानी पा जो जितना सिंचा, पनपा, उस सत्य को अब ज्यों-का-त्यों रहना ही उचित। फिर भी कुछ बलों को सहलाया अवश्य जो मेरे माथे पर आधासीसी से टीसने लगे थे....
‘वर्तमान साहित्य’ के ‘महाकथा विशेषांक’ में अश्कजी ने ‘मामला आगे बढ़ेगा अभी कहानी का सही शीर्षक सिर्फ एक हो सकता है ‘मोट्या और उसकी मम्मी’ कहानी पढ़कर मैंने उनके प्रस्ताव पर खूब मनन किया। किंतु सुझाव कुछ जमा नहीं। अवस्था से लड़ने को तत्पर किशोर मोट्या की लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई। खत्म होगी भी नहीं, क्योंकि वह एक ही रूप में नहीं छला जा रहा। दैहिक मानसिक भूख नब्ज उनके हाथों में है। और क्या दे, दिखा उसे बहलाया, फुसलाया, इस्तेमाल किया जा सकता है।
....आज प्रवहमान मैं जितनी दूर निकल आई, हूँ, अपने सुधी पाठकों से सिर्फ इतना ही कहना चाहती हूँ, अपनी बैसवाड़ी कहावत में-‘देवी चढ़ी कुचैया, कूकुर खाँय-बिल्लैया‘.....
रचना भूमि की यह प्रकृति है और स्त्रोत तक पहुँचने का साधन भी। लेकिन पुनर्लेखन की असाध्य बाध्यता को बड़ी कठिनाई से साधा। कि अपने समय की खाद-पानी पा जो जितना सिंचा, पनपा, उस सत्य को अब ज्यों-का-त्यों रहना ही उचित। फिर भी कुछ बलों को सहलाया अवश्य जो मेरे माथे पर आधासीसी से टीसने लगे थे....
‘वर्तमान साहित्य’ के ‘महाकथा विशेषांक’ में अश्कजी ने ‘मामला आगे बढ़ेगा अभी कहानी का सही शीर्षक सिर्फ एक हो सकता है ‘मोट्या और उसकी मम्मी’ कहानी पढ़कर मैंने उनके प्रस्ताव पर खूब मनन किया। किंतु सुझाव कुछ जमा नहीं। अवस्था से लड़ने को तत्पर किशोर मोट्या की लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई। खत्म होगी भी नहीं, क्योंकि वह एक ही रूप में नहीं छला जा रहा। दैहिक मानसिक भूख नब्ज उनके हाथों में है। और क्या दे, दिखा उसे बहलाया, फुसलाया, इस्तेमाल किया जा सकता है।
....आज प्रवहमान मैं जितनी दूर निकल आई, हूँ, अपने सुधी पाठकों से सिर्फ इतना ही कहना चाहती हूँ, अपनी बैसवाड़ी कहावत में-‘देवी चढ़ी कुचैया, कूकुर खाँय-बिल्लैया‘.....
-चित्रा मुदगल
मामला आगे बढ़ेगा अभी
गेट से लगी गुमटी के भीतर जंग खाई कुरसी से डंडा टिकाए, खाकी वरदी मीठी
ऊँघ-ऊँघ रहे चौकीदार तावड़े को गाली-गलौज भरे शोर ने सहसा हड़बड़ा दिया।
कानों पर विश्वास करने के लिए उसने अपने ऊँघते शरीर को सप्रयास समेटा फिर
न खुलने के लिए जिद्दिया रही पलकों को टपकाया और शोर को समझने की कोशिश
की। वास्तव में शोर हो रहा है, कोई सपना नहीं देखा उसने। ऊँघ अभी उसकी
रानों और जूतों में कैद पंजों में दुबकी हुई उसकी अलसाई देह से मुक्त होने
को राजी नहीं थी।
शोर कुछ और स्पष्ट हुआ। गालियों के कुछ कतरे हवा का रुख गुमटी की ओर होने के साथ ही इधर-उछल आए....साथ ताल देती-सी तीखी ‘ताड़’........ताड़ किसी पतरे को पीटने जैसा स्वर .....
दिमाग सन्न-से चौंका,। पतरे पर हो रही चोट ने एक पल को संभ्रम पैदा किया खालिस ईंट-गारे की इमारतों के बीच पतरा आया कहाँ से ? कुरसी पीछे खींचकर वह फुरती से खड़ा हो गया। स्वतः से बुदबुदाया ‘कहीं से पन आया हो ! जो हो रहा पक्का.... अपनाच कॉलोनी में.....बाप रे..... !’ उसने भुजाएँ मरोड़कर सुस्ती की आखिरी किस्त झटकी और गुमटी से बाहर निकल आया। सहसा खयाल आया कि वक्त पता कर ले। बाई कलाई पर बँधी धुँधले डायलवाली घड़ी उसने गौर से देखी। ड़ेढ़ बजने को था। इतनी रात गए यह शोर....?
ठमककर उसने शोर की दिशा में टोह ली। शोर उसे तीन नंबरवाली इमारत के बेसमेंट से आता हुआ महशूस हुआ। गेट से तीन नंबरवाली इमारत का फालसा बामुश्किल तीन-चार मिनट पैदल का होगा। वह हुड़ककर सरपट भागा। नीचे वाले घरों में शोर पहुँच चुका था। कुछ फ्लैटों में जगमग हो चुकी थी। कई सोई बालकनियों की रोशनियाँ उसके दौड़ते—दौड़ते जग उठीं। कुछ प्रश्न अकुलाकर उसकी ओर कूदे।
‘‘गुरखाऽऽ क्या हुआ ?
कौन गाली बक रहा ?
कोई क्या तोड़ता ? हम सोने को नई सकता ?......’’
उसने रुककर किसी को कोई जवाब नहीं दिया। पर जोर जैसे ही वह तीसरे नंबरवाली इमारत के बेसमेंट में दाखिल हुआ, सामने का दृश्य देख उसकी आँखें फट गईं। सामने मोट्या के हाथ में एक लम्बी लपलपाती सरिया थी। उसी सरिए से वह सक्सेना साहब की झक्क सफेद ‘टोएटा’ पर निर्ममता से प्रहार किए जा रहा था। साथ जुगलबंदी करती भद्दी, अश्लील गालियों की बौछार।
पहले से ही सहमें-से-खड़े चार-पाँच लोगों की उपस्थिति से लापरवाह मोट्या की नजर जैसे ही उस पर प़ड़ी, उसने पलटकर सरिया उसकी ओर तान ली ‘‘आगे नहीं बढ़ना होऽऽ नई तो खोपड़ी तुकड़े-तुकड़े करके छोडूँगा,...... बोत अच्छा घर में नौकरी लगाया....अबी, जाके वो बड़ा आदमी को बोल !...बोल उसको अबी निच्चू उतर के आने कू ! कुतरे का औलाद नई मैं गर मादर को खल्लास नई किया....धक्का देके निकाला न मेरे कू दरवाजे से ? काय कू ? पूरा पगार माँगा न इसी वास्ते ? काट, बोलना अबी अच्छा तरीके से खड़ा काट....देखता मैं....बरोबर देखता.....भोत धाँधल सेन किया.....अब्बी सिद्घा होएगा वो सेठिया.....’’
मोट्या कुछ डग पीछे हटकर फिरती-सा घुमा और अपनी पूरी ताकत निचोड़ सरिया की ‘विंडस्रक्रीन’ दे मारी।
‘छन्नाक् !’ का शोर उठा। करचें बिखरीं नहीं मसहली की शक्ल में टँगी रह गईं। गाड़ियों के सहारे टिके हुए लोग मोट्या का यह विध्वंसक रूप देख भयभीत हो उन्हीं गाड़ियों की आड़ में दुबक गए। वह अपनी जगह पर से बिना हरकत किए चीखा, ‘‘मोटाया.... !’’ उसके दाँत तनाव से भिंच गए। भिंचे दाँतों के सुराखों से गुजरती सिसियाती आवाज में उसने मोटाया को चेतावनी दी, ‘‘फेंक दे सरिया.... बेअकल....मैं बोलता फेंक दे नई तो सक्सेना सा’ब तेरी बोटी-बोटी अपने जाड़िया कुत्तों को खिला देगा....’’।
‘‘चुप्प बे चम्मच ! मोट्या ने होठों पर बजबजा आए थूक को ‘पिच’ से बगलवाली फिएट पर थूका, गरदन को झटका देकर आँखों तक छितरा आई लटों को पीछे फेंकने की कोशिश की, ‘‘धौस नहीं खाने का मैं......बोत चमकाया इस साली की बाड़ी को अब्बी देख हाल ! अक्खा कालोनी उठ गया, वो सोता क्या उप्पर ? नईऽऽ सोता नई, डर के ऊप्परच बेइठा आने तो दे निच्चू...खोपड़ी नई तोड़ा उसका तोऽऽऽऽ वो जाड़िया मेमना’ ब पन आएगी, मैं उसको भी नहीं सोड़ेगा..,.नई सोड़ेगा.... सा’ब के सामने कइसी भीगी बिल्ली सरखी बइठी होती ? बोलने की नई सकती ? ताप (बुखार) में होता मैं ?’’
मोट्या गाड़ी का पोर-पोर पीटे डाल रहा था। जैसे ही वह उसे धर दबोचने के लिए पैंतरा बदलता, पता चलता नहीं कैसे उसको आभास हो जाता और वह पलटकर उसके सामने सरिया तान लेता। निरुपाय वह सिर से लेकर पाँव तक सिवा काँपने के कुछ नहीं कर पा रहा था।
कितने नौकर काम करते हैं इस सोसाइटी में। रोज निकाले जाते, रोज रखे जाते। अकसर यहाँ काम करनेवाले लोगों से ही नए नौकर ढूंढकर ला देने के लिए कहा जाता। उससे भी कहा गया। न जाने कितनी बाइयों और छोकरों को उसने किसी-न-किसी के घर काम पर रखवाया। ऐसा दुःसाहसी विद्रोही स्वरूप कभी किसी का नहीं देखा। ज्यादतियों का रोना कभी रोते, मगर मुँह पर उँगली दिए एक सीढ़ी छोड़ दूसरी पकड़ लेते। समझते, जल में रहकर मगरमच्छ से वैर संभव नहीं। प्रेत-पिशाच लग गया इस हरामखोर को या मगज फिर गया ? सा’ब लोगों का गुस्सा नहीं पता अभी इसको। गाड़ी की दुर्दशा देखकर सक्सेना सा’ब पागल या साँड हो उठेगा..... नक्कीच।
वह मोट्या की दुर्दशा की कल्पना कर सूखे पत्ते-सा काँप उठा। कैसे रोके नादान को ? हाथ धरने दे तब न।
....मोट्या के बूढ़े नाना का मिचमिची आँखोंवाला झुर्रियों पटा तांबई करुण चेहरा तावड़े की आँखों के सामने कौंध गया.......
पेरी क्रॉस रोड फुटपाथ पर खिले गुलमोहर के छाँवदार पेड़ के नीचे एक जर्जर छतरी को भारी पत्थर के सहारे अटकाए, टाट के मटमैले टुकड़ों पर चमड़े की कतरनों का ढेर पसारे, जंग लगे डिब्बे में कील-कांटे सरियाए, बूढ़ा मोची वह चप्पल का अँगूठा बीच रास्ते में उखड़ गया और मोची की तलाश में इधर-उधर भटकती उसकी नजर अचानक मोट्या के नाना पर पड़ी। पाँव घिसटता सड़क पार कर उसी के पास चप्पल बनाने पहुंच गया। बूँढे ने ही पूछा, ‘‘सिलाई मारूँ कि किल्ला ठोकूँ ?’’
‘‘सिलाई मारना।’’ उसने मजबूती के खयाल से उसे हिदायत दी। बूढ़े ने डोरा खेजते हुए पूछा, ‘‘आप सा,ब मिलिट्री में काम करते है ?’’
‘‘वाचमैन हूँ।’’ उसने गर्व से अपनी खादी वरदी को आत्ममुग्ध नजर से छुआ और बगैर बूढे की जिज्ञासा किए अपने बारे में उसे बताने को उत्सुक हो आया कि वह पचीस-पचीस माले की गगनचुंबी कॉलोनी में वाचमैन है। खूब मोटे सेठों की रिहायश है। शत्रुघ्न सिन्हा और मौसमी च़टर्जी भी वहीं रहती है। मौसमी मेरे भौत मान देती। उसके घर को मैंने काम को रखा। तावड़े की ऊँची पहुँच सुनकर बूढ़े ने उसकी बातों से प्रभावित हुआ। इसका अंदाजा तावड़े को इस बात से हुआ कि बूढ़े ने अगूँठे की मजबूत सिलाई के उपरांत चप्पल की अन्य तनियों को पूरी ताकत से खींच-खींचकर उनकी मजबूत परखी और बगैर उसकी इजाजत लिए तनियों पर भी एकाध टाँके लका दिये जो अपेक्षाकृत कमजोर लगीं और किसी भी समय धोखा दे सकती थीं।
‘‘कितना कमा लेते दिन भर में ?’’ उसने अँगूठा गँठवाया है, पैसे भी वह अँगूठे के दे देगा। सोचते हुए परोक्ष में उसने स्वर में सामार्थ्य भर सहानुभूति उड़ेलकर बूढे से पूछा।
‘‘ कमाई किदर सा,ब ?’’ हताश स्वर में अपनी मिचमिच आँखें उसकी ओर कष्ट से उठाकर बूढे ने प्रतिप्रश्न किया, ‘‘बोत मुश्किल से दोन-ढाई रुपया किल्ला-काँटा का
शोर कुछ और स्पष्ट हुआ। गालियों के कुछ कतरे हवा का रुख गुमटी की ओर होने के साथ ही इधर-उछल आए....साथ ताल देती-सी तीखी ‘ताड़’........ताड़ किसी पतरे को पीटने जैसा स्वर .....
दिमाग सन्न-से चौंका,। पतरे पर हो रही चोट ने एक पल को संभ्रम पैदा किया खालिस ईंट-गारे की इमारतों के बीच पतरा आया कहाँ से ? कुरसी पीछे खींचकर वह फुरती से खड़ा हो गया। स्वतः से बुदबुदाया ‘कहीं से पन आया हो ! जो हो रहा पक्का.... अपनाच कॉलोनी में.....बाप रे..... !’ उसने भुजाएँ मरोड़कर सुस्ती की आखिरी किस्त झटकी और गुमटी से बाहर निकल आया। सहसा खयाल आया कि वक्त पता कर ले। बाई कलाई पर बँधी धुँधले डायलवाली घड़ी उसने गौर से देखी। ड़ेढ़ बजने को था। इतनी रात गए यह शोर....?
ठमककर उसने शोर की दिशा में टोह ली। शोर उसे तीन नंबरवाली इमारत के बेसमेंट से आता हुआ महशूस हुआ। गेट से तीन नंबरवाली इमारत का फालसा बामुश्किल तीन-चार मिनट पैदल का होगा। वह हुड़ककर सरपट भागा। नीचे वाले घरों में शोर पहुँच चुका था। कुछ फ्लैटों में जगमग हो चुकी थी। कई सोई बालकनियों की रोशनियाँ उसके दौड़ते—दौड़ते जग उठीं। कुछ प्रश्न अकुलाकर उसकी ओर कूदे।
‘‘गुरखाऽऽ क्या हुआ ?
कौन गाली बक रहा ?
कोई क्या तोड़ता ? हम सोने को नई सकता ?......’’
उसने रुककर किसी को कोई जवाब नहीं दिया। पर जोर जैसे ही वह तीसरे नंबरवाली इमारत के बेसमेंट में दाखिल हुआ, सामने का दृश्य देख उसकी आँखें फट गईं। सामने मोट्या के हाथ में एक लम्बी लपलपाती सरिया थी। उसी सरिए से वह सक्सेना साहब की झक्क सफेद ‘टोएटा’ पर निर्ममता से प्रहार किए जा रहा था। साथ जुगलबंदी करती भद्दी, अश्लील गालियों की बौछार।
पहले से ही सहमें-से-खड़े चार-पाँच लोगों की उपस्थिति से लापरवाह मोट्या की नजर जैसे ही उस पर प़ड़ी, उसने पलटकर सरिया उसकी ओर तान ली ‘‘आगे नहीं बढ़ना होऽऽ नई तो खोपड़ी तुकड़े-तुकड़े करके छोडूँगा,...... बोत अच्छा घर में नौकरी लगाया....अबी, जाके वो बड़ा आदमी को बोल !...बोल उसको अबी निच्चू उतर के आने कू ! कुतरे का औलाद नई मैं गर मादर को खल्लास नई किया....धक्का देके निकाला न मेरे कू दरवाजे से ? काय कू ? पूरा पगार माँगा न इसी वास्ते ? काट, बोलना अबी अच्छा तरीके से खड़ा काट....देखता मैं....बरोबर देखता.....भोत धाँधल सेन किया.....अब्बी सिद्घा होएगा वो सेठिया.....’’
मोट्या कुछ डग पीछे हटकर फिरती-सा घुमा और अपनी पूरी ताकत निचोड़ सरिया की ‘विंडस्रक्रीन’ दे मारी।
‘छन्नाक् !’ का शोर उठा। करचें बिखरीं नहीं मसहली की शक्ल में टँगी रह गईं। गाड़ियों के सहारे टिके हुए लोग मोट्या का यह विध्वंसक रूप देख भयभीत हो उन्हीं गाड़ियों की आड़ में दुबक गए। वह अपनी जगह पर से बिना हरकत किए चीखा, ‘‘मोटाया.... !’’ उसके दाँत तनाव से भिंच गए। भिंचे दाँतों के सुराखों से गुजरती सिसियाती आवाज में उसने मोटाया को चेतावनी दी, ‘‘फेंक दे सरिया.... बेअकल....मैं बोलता फेंक दे नई तो सक्सेना सा’ब तेरी बोटी-बोटी अपने जाड़िया कुत्तों को खिला देगा....’’।
‘‘चुप्प बे चम्मच ! मोट्या ने होठों पर बजबजा आए थूक को ‘पिच’ से बगलवाली फिएट पर थूका, गरदन को झटका देकर आँखों तक छितरा आई लटों को पीछे फेंकने की कोशिश की, ‘‘धौस नहीं खाने का मैं......बोत चमकाया इस साली की बाड़ी को अब्बी देख हाल ! अक्खा कालोनी उठ गया, वो सोता क्या उप्पर ? नईऽऽ सोता नई, डर के ऊप्परच बेइठा आने तो दे निच्चू...खोपड़ी नई तोड़ा उसका तोऽऽऽऽ वो जाड़िया मेमना’ ब पन आएगी, मैं उसको भी नहीं सोड़ेगा..,.नई सोड़ेगा.... सा’ब के सामने कइसी भीगी बिल्ली सरखी बइठी होती ? बोलने की नई सकती ? ताप (बुखार) में होता मैं ?’’
मोट्या गाड़ी का पोर-पोर पीटे डाल रहा था। जैसे ही वह उसे धर दबोचने के लिए पैंतरा बदलता, पता चलता नहीं कैसे उसको आभास हो जाता और वह पलटकर उसके सामने सरिया तान लेता। निरुपाय वह सिर से लेकर पाँव तक सिवा काँपने के कुछ नहीं कर पा रहा था।
कितने नौकर काम करते हैं इस सोसाइटी में। रोज निकाले जाते, रोज रखे जाते। अकसर यहाँ काम करनेवाले लोगों से ही नए नौकर ढूंढकर ला देने के लिए कहा जाता। उससे भी कहा गया। न जाने कितनी बाइयों और छोकरों को उसने किसी-न-किसी के घर काम पर रखवाया। ऐसा दुःसाहसी विद्रोही स्वरूप कभी किसी का नहीं देखा। ज्यादतियों का रोना कभी रोते, मगर मुँह पर उँगली दिए एक सीढ़ी छोड़ दूसरी पकड़ लेते। समझते, जल में रहकर मगरमच्छ से वैर संभव नहीं। प्रेत-पिशाच लग गया इस हरामखोर को या मगज फिर गया ? सा’ब लोगों का गुस्सा नहीं पता अभी इसको। गाड़ी की दुर्दशा देखकर सक्सेना सा’ब पागल या साँड हो उठेगा..... नक्कीच।
वह मोट्या की दुर्दशा की कल्पना कर सूखे पत्ते-सा काँप उठा। कैसे रोके नादान को ? हाथ धरने दे तब न।
....मोट्या के बूढ़े नाना का मिचमिची आँखोंवाला झुर्रियों पटा तांबई करुण चेहरा तावड़े की आँखों के सामने कौंध गया.......
पेरी क्रॉस रोड फुटपाथ पर खिले गुलमोहर के छाँवदार पेड़ के नीचे एक जर्जर छतरी को भारी पत्थर के सहारे अटकाए, टाट के मटमैले टुकड़ों पर चमड़े की कतरनों का ढेर पसारे, जंग लगे डिब्बे में कील-कांटे सरियाए, बूढ़ा मोची वह चप्पल का अँगूठा बीच रास्ते में उखड़ गया और मोची की तलाश में इधर-उधर भटकती उसकी नजर अचानक मोट्या के नाना पर पड़ी। पाँव घिसटता सड़क पार कर उसी के पास चप्पल बनाने पहुंच गया। बूँढे ने ही पूछा, ‘‘सिलाई मारूँ कि किल्ला ठोकूँ ?’’
‘‘सिलाई मारना।’’ उसने मजबूती के खयाल से उसे हिदायत दी। बूढ़े ने डोरा खेजते हुए पूछा, ‘‘आप सा,ब मिलिट्री में काम करते है ?’’
‘‘वाचमैन हूँ।’’ उसने गर्व से अपनी खादी वरदी को आत्ममुग्ध नजर से छुआ और बगैर बूढे की जिज्ञासा किए अपने बारे में उसे बताने को उत्सुक हो आया कि वह पचीस-पचीस माले की गगनचुंबी कॉलोनी में वाचमैन है। खूब मोटे सेठों की रिहायश है। शत्रुघ्न सिन्हा और मौसमी च़टर्जी भी वहीं रहती है। मौसमी मेरे भौत मान देती। उसके घर को मैंने काम को रखा। तावड़े की ऊँची पहुँच सुनकर बूढ़े ने उसकी बातों से प्रभावित हुआ। इसका अंदाजा तावड़े को इस बात से हुआ कि बूढ़े ने अगूँठे की मजबूत सिलाई के उपरांत चप्पल की अन्य तनियों को पूरी ताकत से खींच-खींचकर उनकी मजबूत परखी और बगैर उसकी इजाजत लिए तनियों पर भी एकाध टाँके लका दिये जो अपेक्षाकृत कमजोर लगीं और किसी भी समय धोखा दे सकती थीं।
‘‘कितना कमा लेते दिन भर में ?’’ उसने अँगूठा गँठवाया है, पैसे भी वह अँगूठे के दे देगा। सोचते हुए परोक्ष में उसने स्वर में सामार्थ्य भर सहानुभूति उड़ेलकर बूढे से पूछा।
‘‘ कमाई किदर सा,ब ?’’ हताश स्वर में अपनी मिचमिच आँखें उसकी ओर कष्ट से उठाकर बूढे ने प्रतिप्रश्न किया, ‘‘बोत मुश्किल से दोन-ढाई रुपया किल्ला-काँटा का
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