आचार्य श्रीराम शर्मा >> उत्तिष्ठत जाग्रत उत्तिष्ठत जाग्रतश्रीराम शर्मा आचार्य
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मनुष्य अनन्त-अद्भुत विभूतियों का स्वामी है। इसके बावजूद उसके जीवन में पतन-पराभव-दुर्गति का प्रभाव क्यों दिखाई देता है?
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आत्मोन्नति के मार्ग में आयु को कम या ज्यादा होना बाधक नहीं है। आवश्यकता केवल अपने संस्कारों के जागरण की होती है।
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मनुष्य साधनों का दास नहीं है। वह साधन स्वयं बनाता है। धन स्वतः पैदा नहीं होता,किया जाता है। इसलिए निर्धनता पर आँसू बहाना अकर्मण्यता है।
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मनुष्य के व्यक्तित्व का सच्चा परिष्कार तो कठिनाइयों में ही होता है।
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एक इच्छा, एक निष्ठा और शक्तियों की एकता मनुष्य को उसके अभीष्ट लक्ष्य तकअवश्य पहुँचा देती है। इसमें किसी प्रकार के संदेह की गुंजाइश नहीं।
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जो सच्चे प्रेम का अमृत पाकर संतुष्ट हो जाता है, उसे संसार के मिथ्या भोगोंकी कामना भी नहीं रहती। जो लोग वासना से प्रेरित आकर्षण को प्रेम कहते हैं, वे प्रेम का वास्तवकि अर्थ ही नहीं समझते।
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इस संसार में आये दिन लोग जन्म लेते हैं और सैकड़ों की तादाद में रोज मरतेरहते हैं, किन्तु जिन्होंने अपने सिद्धान्तों पर दृढ़तापूर्वक विश्वास किया, जो अपनी आस्थाओं के प्रति सदैव ईमानदार बने रहे, जिन्होंने प्रेमकिया और जीवन की आखिरी साँस तक अपने व्रत का निर्वाह किया, उनके हाड़-मांस का तन भले ही नष्ट हो गया हो, पर उनका यशः शरीर युगयुगान्तरों तक लोगों कोप्रेरणा व प्रकाश देता रहता है।
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केवल संकल्प करते रहने वाला निरुद्यमी व्यक्ति उस आलसी व्यक्ति की तरह कहाजाएगा, जो अपने पास गिरे हुए आम को उठाकर मुँह में भी रखने की कोशिश नहीं करता और इच्छा मात्र से आम का स्वाद ले लेने की आकांक्षा करता है।
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लापरवाही और गैर ज़िम्मेदारी ऐसे नैतिक अपराध हैं, जिसको दण्डमनुष्य को निरन्तरसामने आते रहने वाले घाटे के रूप में, अप्रतिष्ठा के रूप में देखना पड़ता है।
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अधिक अच्छी स्थिति प्राप्त करने के लिए शान्त चित्त और योजनाबद्ध रीति से आगे बढ़ना और बात है। और आकाश-पाताल जैसे मनोरथ खड़े करके उनके लिए साधन न जुटा पाने के कारण प्रस्तुत असफलता पर खीजते रहना अलग बात है।
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