आचार्य श्रीराम शर्मा >> उत्तिष्ठत जाग्रत उत्तिष्ठत जाग्रतश्रीराम शर्मा आचार्य
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मनुष्य अनन्त-अद्भुत विभूतियों का स्वामी है। इसके बावजूद उसके जीवन में पतन-पराभव-दुर्गति का प्रभाव क्यों दिखाई देता है?
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जो काम खुद को करना है, उसे स्वयं ही पूरा करें। अपना काम दूसरों पर छोड़नाभी एक तरह से दूसरे दिन काम टालने के समान ही है। ऐसे व्यक्ति के सामने से अवसर भी निकल जाता है और उसका काम भी पूरा नहीं होता।
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शिष्टाचार व्यवहार की वह रीति-नीति है, जिसमें व्यक्ति और समाज की आंतरिक सभ्यता और संस्कृति के दर्शन होते हैं।
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सफलता के सूत्र-
१- जीवन में एक लक्ष्य, एक ध्येय और एक कार्यक्रम का चुनाव करना।
२- अपनी संपूर्ण शक्ति, क्षमता को अपने लक्ष्य की पूर्ति में लगाना।
३- अपनी इच्छा और पसंद के स्वभाव को व्यापक बनाना।
४- खतरों से खेलने का स्वभाव सँजोना।
५- खिलाड़ी की भावना रखना।
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इस दुनिया में हर वस्तु कीमत देकर प्राप्त की जाती है। यही यहाँ का नियम है।सफलताएँ भी उत्कृष्ट मनोभूमि और आत्मबल के मूल्य पर खरीदी जाती हैं। यदि ये साधन पास में न हों, तो फिर बड़ी बड़ी आशाएँ और आकांक्षा करना निरर्थकहै।
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श्रद्धा वस्तुत: एक सामाजिक भावना है। वह एक ऐसी आनंदपूर्ण कृतज्ञता है, जो एकप्रतिनिधि के रूप में समाज के सम्मुख हम प्रकट करते हैं। लेने-देने की कोई बात श्रद्धा में नहीं होती। वह तो एक सामाजिक उत्तरदायित्व है। जनसामान्यका धर्म है। कोई भी व्यक्ति श्रद्धा का पात्र हो सकता है, यदि वह सामाजिक जीवन के लिए उपयोगी होता है।
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प्रेम के लिए अपने आपका उत्सर्ग करने वाला जीवन ही वास्तव में जीवन कहलाने काअधिकारी है। जीवन में सभी कुछ बदलता रहता है। अवस्था, विचार, परिस्थितियाँ, मनुष्यों का विश्वास, यहाँ तक कि यह देह भी बदलती है। इसपरिवर्तन प्रधान संसार में यदि अजर-अमर रहता है, तो वह है प्रेम।
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