उपन्यास >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नंदा
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एक नदी दो पाट
रात बीतती गई और धीरे-धीरे उसके मित्र उसे अकेला छोड़कर चले गए। वह कमरे में पूजा के फूल की भाँति रह गया जो सबके चले जाने पर अपने देवता के चरणों में अकेला रह जाता है और पंखड़ियों को फैलाकर बलिवेदी पर स्वतन्त्रता की अन्तिम साँस लेता है।
न जाने उसका मन क्यों डर रहा था! उसने इस छोटी-सी आयु में कितनी ही नदियों, खाइयों और टेढ़े-मेढ़े मार्गों पर पुल बँधवा डाले थे; परन्तु जीवन का यह छोटा-सा पुल पार करने के लिए उसके पाँव धरती से न उठ रहे थे। उसकी दृष्टि बार-बार सामने की सीढ़ियों से होती हुई बाल्कनी के उस पर्दे को जा छूती जो मन्द पवन में लहरा रहा था। पर्दे की सरसराहट उसके कानों में संदेश दे रही थी-नई-नवेली दुल्हिन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है! पर जाने वह कौन-सा अज्ञात भय था जिसने एकाएक उसकी उत्सुकता को शिथिल कर दिया था, और वह इस छोटे-से मार्ग को पूरा करने का साहस नहीं कर पा रहा था।
आखिर उसने साहस बटोरा और सीढ़ियाँ पार करने के लिए उठ खड़ा हुआ। एक सुगन्ध-सी कमरे में बिखर गई। सामने दीवार में लगे दर्पण में उसने अपने-आपको देखा। सफेद लखनवी पाजामे और चिकन के काले कोट में उसका सुगठित शरीर कितना सुन्दर लग रहा था! आत्ममुग्ध-सा वह झूम उठा। उसे कॉलेज के साथियों की वह बात याद आ गई-'अरे भई! तुममें ऐसी कौन-सी विशेषता है कि सब लड़कियाँ तुम्हारे ही गुण गाती हैं?'
'मेरी विशेषता जानना जाहते हो तो किसी लड़की की निगाह से देखो।' उसके उत्तर पर सब हँस देते और वह मन में फूला न समाता।
आज यही बात उसे अपनी दुल्हिन के मुंह से सुननी थी। उसे याद आया, जब पहले-पहल वह उसे देखने के लिए उसके यहाँ गया, वह उसे देखते ही प्रसन्नता से ऐसे खिल उठी जैसे फूल बसंत के आगमन पर खिल उठता है। आँखों के मिलते ही लज्जा से उसके नयन झुक गए और फिर न जाने क्यों एकाएक वह गम्भीर हो गई। उसके मुख की लालिमा घबराहट के पीलेपन में परिवर्तित हो गई और माथे पर पसीने की बूँदें फूट आईं।
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