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उपन्यास >> एक नदी दो पाट

एक नदी दो पाट

गुलशन नंदा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :320
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 16264
आईएसबीएन :0

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एक नदी दो पाट


लम्बा शरीर, मस्त चाल, मौन मूर्ति...यह वही लड़की थी जिसे कामिनी के स्थान पर दिखाकर उसे छल लिया गया था। वह कौन है? आखिर उसने इतना बड़ा धोखा क्यों किया? उसके मस्तिष्क में ऐसे ही प्रश्नों का ताँता बँध गया। वह लड़की दुल्हिन के कमरे में जाकर ओझल हो चुकी थी; परन्तु उसकी छवि विनोद की दृष्टि के सामने अभी तक ज्यों-की-त्यों थी। वह उससे प्रश्न रने के लिए व्याकुल था; परन्तु दुल्हिन के कमरे में जाने का उसे साहस न होता था।

कुछ समय पश्चात् कामिनी की सब सखियाँ वापस लौट गईं। उसने बिना विनोद के मायके जाने से इन्कार कर दिया। विनोद को उसके इस हठ पर आश्चर्य भी हुआ और क्रोध भी आया; किन्तु वह चुप रहा। वह उसकी बातों से कुछ सम्बन्ध नहीं रखना चाहता था।

जाने वाली लड़कियों को वह ध्यानपूर्वक देखता रहा। उनमें वह लड़की न थी जिसकी उसे प्रतीक्षा थी। न जाने ऊपर कमरे में बैठी वह क्या कर रही थी! आखिर आहट हुई और विनोद चौंककर कामिनी के कमरे की ओर देखने लगा। पर्दा उठा और सहमी हुई धीरे-धीरे पाँव रखती वह लड़की सीढ़ियाँ उतरने लगी। विनोद सोफे की आड़ में छिपकर उसे देखने लगा।

बिल्कुल वही, वैसी ही लज्जा और संकोच; परन्तु अब उसके मुख पर स्पष्ट उदासी और घबराहट झलक रही थी-वह घबराहट जो किसी को प्रथम बार चोरी करते हुए पकड़े जाने पर पाई जाए।

उस समय कमरे में और कोई न था। कामिनी की सब सखियाँ जा चुकी थीं। वह अकेली चोरों की भाँति दबे-पाँव बाहर निकल जाना चाहती थी। कामिनी ऊपर वाले कमरे में बन्द थी और नीचे आने का साहस न कर सकती थी।

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