जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
अध्याय 17 ब्रिटेन यात्रा
सर वैलेन्टाइन चिरोल के विरुद्ध चलाए गए मानहानि के मुकदमे से तिलक को अपने जीवन के आखिरी दिनों में उसी तरह से परेशान होना पड़ा, जिस तरह कि अपनी युवावस्था में ताई महाराज के मुकदमे से उन्हें सन्ताप पहुंचा था। मानहानि का यह मुकदमा 1910 में प्रकाशित 'इंडियन अनरेस्ट' नामक चिरोल की पुस्तक के आधार पर दायर किया गया था। वास्तव में चिरोल ने 'टाइम्स' के विशेष संवाददाता की हैसियत से अपनी भारत यात्रा के दौरान जो झूठी और मनगढ़न्त खबरें अपने अखबार को प्रकाशनार्थ भेजी थीं, उन्हीं समाचारों के बिस्तारस्वरूप यह पुस्तक प्रकाशित हुई थी, जिसकी ओर माण्डले से लौटने पर तिलक का ध्यान आकर्षित किया गया और उन्होंने रिहा होने के बाद अपने प्रथम सार्वजनिक भाषण में इसका जिक्र भी किया।
चिरोल जैसे अनेक विदेशी पत्रकार भारत में पहले भी आ चुके थे, जिन्होंने कुछ लाभ के लिए नेताओं के चरित्र पर आघात किए थे। इसलिए चिरोल-काण्ड भारतीयों की निगाह में कोई नई चीज न थी। ब्रिटिश सरकार ऐसे पत्रकारों का हार्दिक स्वागत और हर प्रकार से उनकी सहायता किया करती थी। लेकिन चिरोल की भारत यात्रा का उद्देश्य ही यह सिद्ध करना था कि ''भारत को स्वशासन का अधिकार देना असम्भव है,'' इसलिए लगता है कि उस पर अन्य बिदेशी संवाददाताओं की अपेक्षा सरकार अधिक कृपालु थी। इस साम्राज्यवादी उद्देश्य की पूर्ति के लिए चिरोल ने भारतीय नेताओं और विशेषतः तिलक के चरित्र को कलंकित करने की कोशिश की और तिलक को "भारतीय अशांति का जनक'' बताया।
तभी से इस विशेषण को तिलक की सबसे उचित स्तुति माना जाता है। वर्तमान पीढ़ी के लोगों को आश्चर्य हो सकता है कि तिलक ने चिरोल के दोषारोपणों को इतनी गम्भीरता से क्यों लिया और अपने जीवन की संध्या में वह ब्रिटिश न्यायालय से न्याय की फरियाद करने क्यों गए? क्योंकि जब सरकार स्वयं प्रतिवादी चिरोल के पक्ष में खड़ी थी, तो उससे न्याय की आशा कैसे की जा सकती थी? ऐसी ही स्थिति कई वर्ष बाद चल कर एक बार और पैदा हुई, जब कैथेरीन मेयो की पुस्तक, 'मदर इंडिया' प्रकाशित हुई, जिसमें नीचतापूर्ण व्यक्तिगत आक्षेप किए गए थे। मगर गांधी ने इस पुस्तक को ''एक पनाले के इंस्पेक्टर की रिपोर्ट'' कहकर टाल दिया था।
लगता है, तिलक को केवल अपने चरित्र को ही नहीं, बल्कि समग्र भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम को भी निर्दोष सिद्ध करने की उत्कट इच्छा थी। फिर उनको चिरोल की इस व्याख्या पर विशेष रूप से आपत्ति थी कि उनके लेखों और भाषणों के कारण ही राजनैतिक हत्याओं को बढ़ावा मिला है। चिरोल ने किसी न किसी रूप में न केवल पूना में 1897 में हुई रैण्ड और आयर्स्ट की हत्या के लिए ही, बल्कि 1910 में, जब वह माण्डले में कैद थे, नासिक में हुई जैक्सन की हत्या के लिए भी उन्हें जिम्मेदार ठहराया था। इतना ही नहीं, उसने तिलक द्वारा स्थापित व्यायाम समाजों को भी 'स्वराज की तिजोरियां भरनेवाले डाकुओं का गिरोह' बताया और कहा कि उनका गोरक्षा कार्य सीधे मुसलमानों पर की गई चोट है।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट