जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
जनता की असीम श्रद्धा और प्रेमभाव के इस प्रदर्शन से तिलक भाव-विभोर हो उठे और अपने अभिनन्दन के उत्तर में कहा-
''यद्यपि आपकी ओर से यह अभिनन्दन स्वीकार करते हुए मैं संकोच का अनुभव कर रहा हूं, फिर भी औपचारिक रूप से मैं इसे स्वीकार करता हूं। किन्तु थैली से बात दूसरी हो गई है। मैं नहीं जानता कि इस थैली के रुपयों का क्या करना चाहिए। मुझे स्वयं इनकी आवश्कता नहीं और इन्हें निजी कामों में लगाना उचित भी नहीं। इस थैली को मैं केवल 'ट्रस्ट' के रूप में सार्वजनिक कार्य के लिए ही स्वीकार कर सकता हूं। हम लोगों के सम्मुख जो राष्ट्रीय कार्य पड़ा है, वह इतना महान और परमावश्यक है कि आप लोगों को मुझसे भी अधिक उत्साह और साहस के साथ एकजुट होकर, हाथ में हाथ मिलाकर काम करना होगा। यह एक ऐसा महान कार्य है, जिसे अब अधिक देर तक टाला नहीं जा सकता। हमारी मातृभूमि सबको पुकार कर कह रही है-उठो, जागो और कुछ करके दिखाओ। मैं नहीं समझता कि माता की इस पुकार को उसके पुत्र अनसुनी कर देंगे। इस महान कार्य में प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, सम्मान, अपमान या डर के लिए कोई स्थान नहीं है। मात्र भगवान ही इन प्रयत्नों में हमारा सहायक हो सकता है। अतः इस प्रयत्न का फल यदि हमें नहीं, तो हमारी सन्तानों को अवश्य प्राप्त होगा।''
जिस जिलाधीश ने नोटिस जारी की थी, वही न्यायाधीश के आसन पर भी विराजमान हो गया, जब 7 अगस्त को अदालत में इस नोटिस पर सुनवाई शुरू हुई। और जैसा कि स्वाभाविक ही था, उसने तिलक को ''अपने श्रोताओं के मन में सरकार के प्रति अश्रद्धा की भावना उत्पन्न करने'' का अपराधी करार दिया और उन्हें आदेश दिया कि वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 108 के अधीन बन्धन-पत्र (बॉण्ड) भरें और जमानतें दें। तिलक ने इस पर उच्च न्यायालय में अपील की, जिसकी सुनवाई 1 नवम्बर 1916 को न्यायाधीश बेचलर और न्यायाधीश लल्लू भाई शाह ने की। यह सुनवाई बहुत संक्षिप्त थी, किन्तु न्यायाधीशों का निर्णय न केवल व्यक्तिगत रूप से प्रतिवादी, तिलक के लिए ही, बल्कि वाक-स्वातन्त्रय और स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन के लिए भी अत्यन्त महत्वपूर्ण था। उच्च न्यायालय ने राजद्रोह की व्याख्या को, जिसके कारण 1897 में सजा पाने के बाद से तिलक शिकार हो रहे थे, अमान्य करार दिया। न्यायधीश बेचलर ने कहा कि अंग्रेजी शब्द 'डिसअफेक्शन' का जो अर्थ मेरे पूर्ववर्ती न्यायाधीशों ने लगाया है, वह 'डिस' उपसर्ग लगाकर बने सभी शब्दों के अर्थ के विरुद्ध है।
तिलक को अभियोग से मुक्त करते हुए न्यायाधीश शाह ने कहा कि ''मोटे तौर पर उनके भाषणों को पढ़ने से लगा कि उनका ध्येय केवल भारतीयों के लिए स्वशासन (होम रूल) की मांग करना, इस मांग के समर्थन के लिए जनमत तैयार करना और होम रूल लीग के सदस्य बनाना है। अपने इस ध्येय को पूरा करने के लिए तिलक ने किन्हीं अवैधानिक या गैर कानूनी तरीकों से काम लेने की वकालत नहीं की है।''
तिलक के रिहा होने से स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन को बहुत बढ़ावा मिला। लगभग इसी समय श्रीमती एनीबेसेन्ट ने भी मद्रास में एक समानान्तर होम रूल लीग की स्थापना की, जिसके कारण अगले वर्ष ही उन्हें सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा। इन दोनों संगठनों के लक्ष्य ण्क ही थे और दोनों परस्पर मिलजुलकर काम करते थे। लीग का प्रचार कार्य करने के साथ-साथ तिलक ''भारत के बेहतर प्रशासन के लिए एक विधेयक'' का प्रारूप तैयार करने के काम में व्यस्त थे।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट