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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

इन लेखों में मात्र उसी वक्तव्य को विस्तृत रूप से पेश किया गया था, जिसे तिलक और 24 अन्य राष्ट्रवादियों (नेशनलिस्टों) ने बंगाल की हिंसात्मक घटनाओं के बाद 22 मई को जारी किया था-''हमारा दृढ़ विश्वास है कि सरकार ने जानबूझकर जनमत की जो लगातार अवहेलना की है और अपनी दमन नीति जारी रखी है, उन्हीं के कारण ये खेदजनक वारदातें हुई हैं, न कि, जैसा कि कुछ हलकों में बताया गया है, किन्हीं भाषणों या लेखों के कारण। वर्तमान अव्यवस्था को दूर करने का सही उपाय जोर-जबरदस्ती और दमन का तरीका नहीं, जो अन्ततः निष्फल सिद्ध होगा, बल्कि सहानुभूति और बुद्धिमत्तापूर्वक जनता की न्यायोचित मांगों के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाकर उसका कष्ट-निवारण करना ही है।''

किन्तु अंग्रेज शासकों में सहानुभूति और बुद्धिमानी का पूरा अभाव था। वे तो उलटे गरम दलवालों और खासकर उनके नेता तिलक को जो सारे भारतीय आन्दोलनों का उन दिनों केन्द्र-बिन्दु बने हुए थे, सबक सिखाने पर तुले हुए थे। गुप्त सरकारी कागजात और भारत-मंत्री लॉर्ड मॉर्ले तथा वाइसराय लॉर्ड मिण्टो के बीच और लार्ड मिण्टो तथा बम्बई के गवर्नर लॉर्ड सिडेनहेम के बीच हुए पत्रव्यवहारों से, जो अब प्रकाश में आ गए हैं, कोई सन्देह नहीं रह जाता कि उस समय अधिकारी वर्ग तिलक के प्रति कितना द्वेष-भाव रखता था। सिडेनहेम द्वारा मार्ले को लिखे गए एक पत्र का यह अंश पठनीय है-

''तिलक केवल एक ऐसे पत्रकार ही नहीं हैं, जो असम्भव कल्पनाओं में बहकर अनुचित और कठोर बातें लिखते हैं। वह भारत में अंग्रेजी सरकार के अस्तित्व को मिटाने के सारे षड्यन्त्रों के प्रधान कर्त्ताधर्ता हैं और उन्होंने सरकार की सारी कमजोरियों का सूक्ष्माति-सूक्ष्म अध्ययन किया है। उनके गणपति और शिवाजी पर्वों, पैसा-कोष और राष्ट्रीय विद्यालयों का एक ही ध्येय है-अंगरेजों को भारत से निकाल बाहर करना। यदि उन्हें अपनी योजना को पूरा करने का समय मिला होता, तो सम्भव है कि वह देशभर में आम हड़ताल कराने में भी सफल हो जाते, जो हिंसक दल द्वारा प्रवर्त्तित एक रूसी तरीका है। इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं कि उनका बंगाल के तथाकथित अराजकतावादियों के षड्यन्त्रों में कितना बड़ा हाथ था, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि उनके कुछ नेताओं से उनका निकट का सम्बन्ध था।''

तिलक के विरुद्ध चले मुकदमे का असली कारण यही था। अदालत के सामने उन्हें जो घसीटा गया, इसके भी कारण थे। उनका अपराध यह नहीं था कि वह 'केसरी' में क्या लिखते हैं, बल्कि उनका अपराध तो यह था कि वह इस राजनैतिक विचार के थे कि अंगरेज भारत से निकाल बाहर किए जाएं। अतः उनका अपराध भारतीय दण्ड संहिता में नहीं, बल्कि उनकी खौलती हुई देशभक्ति में था। इसीलिए सरकार उन्हें किसी भी तरीके से अपने रास्ते से हटाने को कटिबद्ध थी। जैसाकि 'मान्चेस्टर गार्जियन' ने लिखा-''उनको अपने कामों के लिए सामूहिक रूप से दण्ड मिला है। इसका अर्थ है कि उनमें जनता की भावनाओं को प्रोत्साहित कर उसे ऊंचे स्तर पर लाने की शक्ति है और वह ऐसा करते भी हैं। देश की जनता उनके विचारो से सहमत भी है।''

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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