जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
अतः इन साहसी युवकों को यह निश्चय करने में देर न लगी कि 1881 के आरम्भ से एक ही साथ दो पत्रिकाएं-'मराठा' अंग्रेजी में और 'केसरी' मराठी में-निकाली जाएं। इस प्रकार जो द्विभाषी पत्र निकाले जाते थे, उनका रिवाज इस निर्णय सै टूट गया। 'मराठा' पढ़े-लिखे प्रबुद्ध लोगों को ध्यान में रखकर निकाला जाता था और 'केसरी' को आम जनता का सुखपत्र बनाने का उद्देश्य था। 'केसरी' के प्रारम्भिक परिचय में कहा गया था-''हम सभी विषयों पर निष्पक्ष भाव से सत्य को दृष्टि में रखते हुए विचार करने को कृत-संकल्प हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आजकल ब्रिटिश सरकार के अधीन चापलूसी करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, जो सभी ईमानदार लोंग स्वीकार करेंगे, जनहित की दृष्टि से सर्वथा अवांछनीय और घातक है। अत: इस पत्र का नाम जो 'केसरी' है, उसी के अनुरूप इसमें लेखादि प्रकाशित किए जाएंगे।''
यद्यपि इस पत्र का नाम 'केसरी' तिलक-द्वारा ही सुझाया गया था, जिससे 'केसरी' और तिलक मराठी भाषा में एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं, फिर भी आगरकर ने ही इस पत्र को और तिलक ने 'मराठा' को संभाला था। उन दिनों पत्रिकाओं में सम्पादक का नाम देना आवश्यक न था, अतः इन दोनों पत्रिकाओं के लिए सामान्यतया इसके संचालक और 1885 में डेक्कन एजुकेशनल सोसायटी के गठित होने के बाद अपनी निजी हैसियत से इसके सदस्य संयुक्त रूप से जिम्मेदार थे। 'केसरी' के संचालन में तिलक का अधिक हाथ न था। वह इससे केवल कानून और धर्म-जैसे विषयों पर लेखन-कार्य को लेकर ही सम्बन्धित थे।
'न्यू इंग्लिश स्कूल' की तरह, ये दोनों पत्रिकाएं भी निकलते ही-निकलते सफल सिद्ध हुईं और 'केसरी' दो वर्षों के अन्दर-ही-अन्दर भारतीय भाषा का सर्वाधिक परिचारित-पठित पत्र बन गया और 'मराठा' पश्चिमी भारत के शिक्षित जनमत के मुखपत्र के रूप में ज्ञात-ख्यात हुआ। इन दोनों पत्रिकाओं की शैली बड़ी तीखी और प्रभावपूर्ण थी तथा हर सार्वजनिक प्रश्न पर इन दोनों का विचार चक्की में पिसे आटे के समान अर्थात्, उनके मन-मस्तिष्क का निचोड़ हुआ करता था। प्रोफेसर पी० एम० लिमये के शब्दों में : ''ये दोनों किसी भी जमी-जमाई बुराई या अन्याय पर चोट करने को सदा तैयार रहते थे, चाहे उनकी नींवें कितनी भी गहरी क्यों न होती थीं? यह आगरकर और तिलक के लिए प्रथम अग्नि-परीक्षा की घड़ी थी, फिर भी अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए इन युवकों ने सतर्कता की अपेक्षा उत्साह से अधिक काम लिया और इसी कारण उन्हें बड़े-बड़े कष्ट भी झेलने पड़े।''
महाराष्ट्र का जनमत उस समय कोल्हापुर के नाबालिग महाराज की दुर्वस्था से आन्दोलित था। कहा जाता है कि महाराज को गोद लेनेवाली माता उन्हें विक्षिप्त घोषित कर राजगद्दी से वंचित करने का षड्यन्त्र रच रही थीं और इसमें कोल्हापुर के दीवान एम व्ही० बर्वे ने रानी की तथा महाराज के अंग्रेज अभिभावकों की काफी सहायता की थी। इस तथाकथित षड्यन्त्र का भंडाफोड़ करने के लिए सम्पादकीय अग्रलेख लिखने के अलावा, 'केसरी' और 'मराठा' दोनों ने ऐसे पत्र भी प्रकाशित किए, जो लगता था, बर्वे-द्वारा ही लिखे गए हों और इन पत्रों से बर्वे झूठे षड्यन्त्र में फंस गए। 'ध्यानप्रकाश'-जैसी अन्य पत्रिकाओं ने भी इन पत्रों को छापा और प्रभावशाली व्यक्तियों ने इस काण्ड का खुलेआम मंचों पर खड़े होकर पर्दाफाश किया।
किन्तु, नैतिकता की दृष्टि से उचित होने पर भी, कानून की नजरों में इन पत्रों का कोई महत्व न था। बर्वे ने इन कई पत्र-पत्रिकाओं और व्यक्तियों पर मानहानि का मुकदमा चलाया और वे पत्र जाली घोषित कर दिए गए। कुछ लोग तो क्षमा-याचना कर मुक्त हो गए, किन्तु आगरकर और तिलक को 17 जुलाई, 1882 को चार मास का कारावास-दण्ड मिला। 'सरकारी मेहमानरवाने' से इन साहसी युवा सम्पादकों का सर्वप्रथम परिचय हुआ, जहां तिलक को तो इसके बाद कई बार आकर लम्बे अरसे तक सरकारी मेहमान बनना पड़ा। 24 पौंड वजन घट गया, किन्तु एक असहाय महाराज के लिए, जिनकी मृत्यु बाद में चलकर संदिग्ध परिस्थितियों में हो गई, उन्होंने जिस उत्साह और निःस्वार्थ भाव से आन्दोलन चलाया था, उसमें वह पर्याप्त लोकप्रिय हो गए। रिहा होने पर तिलक और आगरकर के स्वागतार्थ सैकड़ों व्यक्ति जेल के दरवाजे पर जमा हो गए थे। आगरकर ने जेल में, जो कोई आश्रम या पर्ण-कुटीर तो न था, किन्तु उसके पहले तैयार किए गए कार्यक्रम के अनुसार इन नवयुवकों के स्वदेश-सेवा-सम्बन्धी संकल्प को और भी सुदृढ़ कर दिया, बीते जीवन का बड़ा सजीव वर्णन प्रस्तुत किया है।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट