जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
महामारी का प्रकोप बम्बई से पूना तक बिजली की गति-सा फैला। बम्बई में तो इतने व्यक्ति इसके शिकार हुए कि श्मशान घाट और कबरिस्तानों में मुर्दों की कतारें लग गईं। भय से घर छोड़कर लोग और जगह भाग खड़े हुए जिससे बीमारी और फैली। यहां तक कि कई अफसर अपने कार्य-स्थान छोड़कर भाग गए और दूसरी जगह शरण ली।
इसके बावजूद स्थिति की भयंकरता सरकार को कई महीने बाद प्रतीत हो सकी और तभी जाकर 4 फरवरी, 1897 को महामारी अधिनियम (एपिडेमिक डिजीजेज ऐक्ट) पास हुआ।
इस अधिनियम के अन्तर्गत अधिकारियों को बड़े अधिकार मिले। वे अब स्टीमरों और रेलगाड़ियों के माल और यात्रियों को रोककर उनकी जांच कर सकते थे तथा बीमारी से पीड़ित व्यक्तियों को उठाकर अस्पताल ले जा सकते थे। किसी भी घर की तलाशी ली जा सकती थी और बिना सूचना के बीमार को अलग ले जाकर रखा जा सकता था। इन दोनों कामों को अंगरेज सिपाहियों के जिम्मे सौंपा गया था जिनके व्यवहार के कारण पूना में बहुत क्षोभ उत्पन्न हुआ। प्लेग का सन्देह होने पर ही लोग एकाएक अस्पताल भेज दिए जाते थे और उनके सम्बन्धी अलग खेमों में डाल दिए जाते थे। घरों में गोरे सिपाही जूते पहने बलपूर्वक घुस जाते थे और कीटाणुओं के नाश के बहाने कपड़ों, बिस्तरों एवं कुर्सी-टेबुलों की होलिका जलाई जाती थी। ऐसा लगता था कि गोरे सिपाहियों को इन कामों में बड़ा आनन्द आता था।
आरम्भ में तिलक ने सरकार के साथ पूरा सहयोग किया। उन्होंने जनता को आश्वासन दिया कि अफसरों को कड़ी हिदायत थे ही गई है कि वे स्त्रियों को तंग न करें, पूजा आदि के स्थानों को अपवित्र न करें और जनता की धार्मिक भावनाओं को चोट न पहुंचाएं। स्वयंसेवकों को उन्होंने आदेश दिया कि वे सरकार की तलाशी पार्टियों के साथ रहें और किसी प्रकार की अशोभनीय दुर्घटना न होने दें। किन्तु प्लेग कमेटी के अध्यक्ष रैंड नामक अंग्रेज अफसर की निर्दयता और दुष्टता को देख कर तिलक का रुख यदल गया। उन्होंने कहा :
''वैज्ञानिक दृष्टि से बीमार को दूसरों से अलग करना अत्यन्त लाभदायक है। लेकिन जनता के हृदय में अस्पतालों के प्रति डर के भाव, शासकों का लोगों के प्रति दुर्व्यवहार और इसी प्रकार के अन्य कारणों से इसे कार्यान्वित करना असम्भव-सा हो गया है। जनता में अस्पतालों के विषय में ऐसी भावना फैल गई है कि वे केवल लोगों को मृत्यु के घाट उतारने के लिए ही खोले गए हैं। यह पूना और बम्बई में फैली अफवाहों से सिद्ध होता है। उस पर पुलिस के कई बेईमान अधिकारियों की कार्रवाइयों के कारण यह आतंक और बढ़ गया है।''
अस्पतालों में जनता का विश्वास जमाने के लिए तिलक ने एक गैर-सरकारी अस्पताल और एक सहायता-कोष खोला। जब आतंकवश अन्य कई प्रमुख व्यक्ति पूना छोड़कर भाग गए थे, तिलक शहर में ही रहकर जरूरतमंद लोगों की सेवा करते रहे। उन्होंने सरकार के बर्बर और अमानुषिक कार्यों की कड़ी आलोचना की और इस विपत्ति के प्रति उदासीन तथा निष्क्रिय नेताओं को भी सूब फटकारा :
''ब्रिटेन की महारानी, भारत मंत्री (सेक्रेटरी ऑफ स्टेट) और उनकी परिषद के लिए यह उचित न था जो उन्होंने भारत की जनता पर अकारण ही जुल्म ढाने का आदेश दिया और बम्बई सरकार के लिए भी यह अनुचित था जो उसने इस आदेश को अमल में लाने का भार रैंड-जैसे संदिग्ध बदमिजाज, पिनकी और अत्याचारी अफसर को सौंपा। इसके लिए सरकार के साथ-साथ बम्बई के गवर्नर पूरी तरह उत्तरदायी हैं।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट