जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
श्री तिलक को एक आदर्श विद्यार्थी नहीं कहा जा सकता था। वह स्कूल की बंधी-बंधाई अध्ययन-प्रणाली को न मानकर, अपनी रुचि के अनुसार ही विषयों को चुनकर, उनका अध्ययन करते थे। वास्तव में कॉलेज-जीवन का प्रथम वर्ष तो उन्होंने स्वास्थ्य-वर्धन में लगा दिया और इसी कारण वह वार्षिक परीक्षा में असफल भी रहे। किन्तु इसी एक साल में उनके स्वास्थ्य में असाधारण परिवर्तन हो गया और वह काफी हट्टे-कट्टे, रोबीले युवक के रूप में कॉलेज में दाखिल हुए। सभी जिन्दादिल नवयुवकों की तरह वह भी बहुत नटखट थे और अपने दोस्तों के किए गए उनके हंसी-मजाक के बहुत-से किस्से हैं। यहीं पर उनमें विवाद और तार्किक चातुर्य के प्रति रुचि उत्पन्न हुई और उनके बहस करने के ढंग को देखकर उनके मित्र उन्हें 'श्री मुंहफट' (मिस्टर ब्लंट) के नाम से पुकारने लगे। किन्तु इसी गुण से बाद के जीवन में उन्हें बहुत सफलता प्राप्त हुई। उन सुखी-निश्चिन्त दिनों में भी इन नवयुवकों को देश की गुलामी और आर्थिक दुर्दशा पीड़ित करती रहती थी। उन समकालीन अभिलेख से पता चलता है कि तिलक ने अपने मित्रों से कहा था कि आप लोग अतीत कालीन सन् 1632 और भावी 193० वर्ष पर दृष्टिपात करें। तिलक और श्री आगरकर ने कई रातें इसी तर्क और विचार-विमर्श में व्यतीत कर दी थीं कि वे स्नातक होने के बाद क्या करेगे और इन्हीं तर्कों तथा विचार-विमर्शों में दोनों की जीवनधारा निर्धारित हुई थी।
तिलक ने बी. ए. 1877 में पास किया। इसमें उन्हें गणित में प्रथम श्रेणी के नम्बर प्राप्त हुए थे। दो वर्ष बाद वह कानून के भी स्नातक हो गए। किन्तु एम० ए० की परीक्षा में वह दो बार प्रयत्न करने पर भी उत्तीर्ण न हो सके। कॉलेज छोड़ने के पूर्व ही, उन्होंने अपने भावी जीवन का रुख निर्धारित कर लिया था :
''सन् 1879 के जुलाई-अगस्त में जब मैं डेक्कन कॉलेज में एल-एल बी० की परीक्षा की तैयारी कर रहा था, तब आगरकर और मैंने मिशनरी स्कूलों के ढांचे पर प्राइवेट स्कूल खोलने के महत्व और उसकी व्यवहार्यता पर पहले-पहल विचार-विमर्श किया था। इस विषय पर हम लोगों में कोई मतभेद न था कि शिक्षा के क्षेत्र में कुछ देशवासियों का प्रयत्न आवश्यक है, लेकिन प्रश्न यह था कि इस प्रयत्न को सफल कैसे बनाया जाए। हम लोगों की परिस्थिति के लोगों के हाथ में आत्म-बलिदान ही एकमात्र उपाय था। कई दिनों के विचार-विमर्श के बाद हम लोगों ने निश्चय किया कि यदि हम इस कार्य को पूरी दृढ़ता और सर्वस्य बलिदान के साथ करें, तो इसकी सफलता कोई असम्भव बात नहीं।''
1879 के दिनों में प्रथम श्रेणी के साथ उपाधिप्राप्त किसी युवक द्वारा सार्वजनिक सेवा के निमित्त आत्म-त्याग करने का प्रण किया जाना एक आश्चर्यजनक घटना ही था, क्योंकि तब निश्चय ही बहुत-से बड़े-बूढ़ों ने तिलक के इस निर्णय को भारी भूल मानकर उन्हें मना ही किया होगा और अच्छी-खासी आयवाली नौकरियों को पाने में एक क्षण के लिए भी न चुकनेवाले तथा स्नातक बन चुके उनके सहपाठियों तक को भी उनके ऐसे अव्यावहारिक दृष्टिकोण के लिए उन पर दया ही आई होगी। उस जमाने के हर पढ़े-लिखे युवक के जीवन का मूल लक्ष्य सरकारी नौकरी ही होती थी और श्री महादेव गोविन्द रानडे-जैसे समाज-सेवा-भाव से प्रेरित व्यक्तियों ने अपने जीवन में तिलक के इस निर्णय को प्रथम नहीं, दूसरा ही स्थान दिया था। जो स्वतन्त्र रहना चाहते थे और साथ-हीं-साथ धन भी प्राप्त करना चाहते थे, उनके लिए वकालत ही एकमात्र रास्ता था। श्री फिरोजशाह मेहता और श्री विश्वनाथ मांडलिक जैसे लब्ध-प्रतिष्ठ विधिवेत्ता अठारहवीं सदी के बहुत-से युवकों के मार्ग-दर्शक थे।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट