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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

समाज-सुधार के विरोधी होने के अपने ऊपर लगाए गए तथाकथित आरोप के विषय में तिलक ने लिखा था : ''कोई भी सच्चा राष्ट्रवादी प्राचीन आधार-शिलाओं पर ही. पुनर्निर्माण करना चाहता है । वह सुधार, जो प्राचीनता के प्रति अनास्था एवं अनादर के भाव पर टिका हुआ है, टिकाऊ प्रतीत नहीं होता । इसीलिए कोई भी सुधार-कार्य चालु करने के पहले मैं किसी सुनिश्चित राष्ट्रीय हित को अक्षुण्ण रखने और समृद्ध करने की कोशिश करता हूं । आयरलैण्ड की राजनीति में भी इसी प्रकार के परिवर्तन हुए हैं ।.. हम सुधार के नाम पर अपनी संस्थाओं का अग्रेजीकरण व अराष्ट्रीयकरण करना नहीं चाहते । हमारा ध्येय अपने देश की उन्नति ही है, ताकि वह संसार के सम्य देशों की बराबरी कर सके । लेकिन जहां डा० परांजपे के दल के लोग चाहते हैं कि हम विदेशी तरीकों को अपनाउं, यहां तक कि भगवान की प्रार्थना भी हम पाश्चात्य ढंग से ही करें, हम राष्ट्रवादी चाहते हैं कि राष्ट्रीय भावनाओं की रक्षा की जाए और हमारी प्राचीन प्रथा में जो कुछ अच्छा है, उस सबको अपने राष्ट्रीय उत्थान के लिए प्रगति और 37 सुधार में बाधा डाले बगैर ही ग्रहण करें।''

तिलक के विचार अस्पृश्यता और विधवा-विवाह के विषय में भी इतने ही स्पष्ट हैं : ''जब विधवा-विवाह का आन्दोलन पूरे जोर पर था, तो मैंने ही सुधारकों को सलाह दी थी कि वे शंकराचार्य और सनातनी हिन्दू-नेताओं से किसी उचित आधार पर कोई समझौता कर लें । मेरे विचार से विधवा-विवाह पर लगाई गई रोक केवल ब्राह्मणों तथा उनका अनुगमन करने वाली कुछ अन्य जातियों तक ही सीमित है । इसलिए मैंने जो प्रस्ताव रखा था, वह यही था कि यद्यपि बाद वाले हिन्दू कानून ने विधवा-विवाह की मंबूरी नहीं दी है, फिर भी शास्त्रोनुमोदित विवाह के रूप में इसे शामिल करके तथा रूढ़िवादियों की स्वीकृति प्राप्त कर इस सामाजिक कुप्रथा का अन्त करने के लिए किसी समझौते पर पहुंचा जा सकता है ।''

इस पर भी यदि तिलक को पाखण्डी. या प्रतिक्रियावादी कहा जाए तो यह घोर अन्याय होगा । उनके जीवनकाल में चले विवादों के आवेश में आकर उन्हें गलत समझना सम्भव था, किन्तु आज उनके भाषणों और लेखादि के गहन अध्ययन के बाद इस सम्बन्ध में निष्पक्ष निर्णय किया जाना चाहिए । तिलक इस माने में रूढ़िवादी माने जा सकते हैं कि वह जनता को अपने साथ लेकर चलना चाहते थे । किन्तु यह कहना कि वह हर परिवर्तन या सुधार के विरोधी थे, अनुचित होगा । टेनिसन के 'सच्चे रूढ़िवादी' की भांति वह भी सदा पेडू की सूखी डाल को काट फेंकने को तैयार रहते थे । लेकिन वह सामाजिक सुधार को गतिशील और सामुदायिक उन्नति को सुव्यवस्थित ढंग से करने के पक्षपाती थे तथा किन्हीं परकीय संस्कारों को समाज पर जबरन थोपना नहीं चाहते थे । रानडे ने अपने राजनैतिक समय के विषय में जो कहा था, उसे हम तिलक के रूढ़िवाद पर भी लागू कर सकते हैं : ''संयम से तात्पर्य असम्भव या सुदूरस्थ आदर्शों के पीछे व्यर्थ में न दौड़कर, प्रतिदिन समझौते एवं औचित्य की भावना से परिपूर्ण  होकर अपने हाथ में आए काम को सम्पादित करते हुए, स्वतः विकास के उद्देश्य से, कदम-ब-कदम आगे बढ़ने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना है।''

जैसा कि श्री डी० एस० शर्मा ने स्पष्ट रूप से अपनी पुस्तक 'दि रिनासां आफ हिन्दुइज्म' में कहा है, ऐसी नीति राजनैतिक संघर्ष की बजाय समाज-सुधार के लिए अधिक उपयुक्त है। सुधारक को ज्ञान का प्रचार करना पड़ता है, जब कि राजनीतिज्ञ को शक्ति पैदा करनी पड़ती है। सुधारक को अनुनय-विनय का सहारा लेना पड़ता है, जब कि राजनीतिज्ञ को बलात् डराने-धमकाने का। तिलक ने समस्या को अच्छी तरह से समझा था और वह जानते थे कि उनके विरोधी भ्रमवश ही समाज-सुधार में डराने-धमकाने तथा राजनीति में अनुनय-विनय करने की कोशिश करते हैं।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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