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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

जनता के कड़ा विरोध के बावजूद यह विधेयक इस आधार पर पास कर दिया गया कि इसमें कोई नया सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं किया गया है और यह केवल पहले के उस अधिनियम के प्रभाव-क्षेत्र का विस्तार मात्र है, जिसके द्वारा 10 वर्ष से कम उम्र की कन्या के साथ सम्भोग करने की मनाही की गई थी। कुछ संस्कृत ग्रन्थों की डॉ० भांडारकर द्वारा की गई व्याख्याओं से भी सरकार को बल मिला। और महत्व की बात यह थी कि सरकार के निजी पण्डितों के विचार तिलक से मिलते थे, जिस पर तिलक ने टिप्पणी की थी-''सरकार ने अन्त में निश्चय किया कि वह मेरे विचारों के अनुसार उचित काम करने की बजाय डॉ० भांडारकर के समर्थन से अनुचित काम करे।''

इसके बाद ही अक्तूबर 1891 में, 'पंचहौंद काण्ड' हुआ, जिसमें संयोगवश सुधारकों और उनके विरोधियों, दोनों को मिशन स्कूल में चाय पीनी पड़ी। उन्हें चाय पर एक जोशी नामक व्यक्ति ने आमंत्रित किया था और उसने अगले दिन उन सभी के नाम समाचारपत्रों में छपवा दिए थे। उन दिनों किसी ईसाई के साथ किसी ब्राह्मण का जलपान करना पाप माना जाता था जिसका शमन प्रायश्चित से ही हो सकता था। फलस्वरूप रानडे और तिलक, दोनों ने परम्परानुसार प्रायश्चित किया। इस सारे काण्ड में महत्व की बात यह थी कि रानडे ने कातर भाव से प्रायश्चित किया, जब कि तिलक ने हिन्दू धर्म के सर्वोच्च अधिकारी शंकराचार्य के सम्मुख कुजात काढ़ने के लिए तुले हुए सरदार बालासाहब नाटू-जैसे कट्टर सनातनी के विरुद्ध अपने पक्ष में प्रमाणादि पेश करने के पश्चात् ही अपनी शर्तों के अनुसार प्रायश्चित किया।

तिलक ने इस घटना के विषय में लिखा था : ''समाज-सुधारक जादू की छड़ी घुमाकर ही सभी सुधार करना चाहते हैं। हमारा कहना यह है कि सुधार देश-काल की परिस्थितियों के अनुरूप ही हो सकते हैं। हम सभी के अपने परिवार हैं और हम समाज के साथ ही रहना चाहते हैं। इस दशा में वैयक्तिक भावनाओं और समाजेच्छा के बीच सामंजस्य होना ही चाहिए। इसी सामंजस्य और समझौते पर आधारित सुधार स्थायी और टिकाऊ होंगे। जो लोग चाहते हैं कि केवल अपनी इच्छाओं के अनुसार ही जीवन बिताएं, उन्हें किसी एकान्त द्वीप में रह कर ही ऐसा करना चाहिए। अन्य जो लोग समाज में रहना चाहते हैं, उन्हें अपनी इच्छाओं और सामाजिक परिपाटी के बीच समझौता करना होगा।''

पंडिता रमाबाई ने सुधारकों और रूढ़िवादियों के बीच एक और विवाद उत्पन्न कर दिया। एक धर्मपरायण परिवार में जन्म लेने और वेद-पुराण का गम्भीर अध्ययन करने के, जो उस ससय किसी भी महिला के लिए एक अभूतपूर्व उपलब्धि थी, बावजूद इस विलक्षण महिला ने ईसाई धर्म को अपनाया था। पूना में एक कन्या पाठशाला के रूप में शारदा-सदन के संचालन में उन पर सन्देह किया जाता था कि वह कन्याओं को ईसाई बनाने का प्रयत्न करती थीं। भांडारकर, रानडे और तेलंग जैसे व्यक्ति शारदा-सदन की सलाहकार-समिति के सदस्य थे और उसके साथ तिलक की भी सहानुभूति थी। किन्तु शीघ्र ही तिलक को पंडिता रमाबाई के विषय में शंकाएं होने लगीं। उनका भंडाभोड़ करने के लिए तिलक ने 'केसरी' में लिखा : ''ईसाई महिलाएं, चाहे वे कितनी भी विदूषी क्यों न हों, नारी शिक्षा की आड़ में हमारे समाज में घुसपैठ करने की चेष्ठा कर रही हैं। अतः उनके समर्थक, जो चाहे कितने ही बड़े विद्वान क्यों न हों, हिन्दू धर्म और समाज के शत्रु समझे जाएंगे।"

अकाट्य प्रमाण देने पर भी इस चेतावनी के कारण तिलक को फिर से समाज-सुधारकों का कोप-भाजन बनना पड़ा और तिलक पर आरोप लगाया गया कि वह नारी-शिक्षा के विरोधी हैं। किन्तु कुछ ही दिनों बाद पण्डिता रमाबाई के धर्म-परिवर्तन के कार्यों का भण्डाफोड़ हो गया और रानडे तथा भांडारकर ने शारदा-सदन से सम्बन्ध तोड़ लिया। इससे तिलक की बातों की पुष्टि ही हुई। इसके पांच वर्ष बाद रमाबाई अपनी संस्था को केड़गांव ले गई और उसे वहां मुक्ति-सदन नाम से दृढ़-प्रतिज्ञ ईसाई-संगठन का अंग बनाया।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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