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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

गांधी जी गोखले को अपना राजनैतिक गुरु मानते थे, लेकिन उनका यह सम्बन्ध विशुद्ध रूप से 'उनका निजी मामला' था। इसका गांधी जी के राजनैतिक विकास पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, हालांकि ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर भारत की स्थिति के बारे में उस समय उनके विचार गोखले के विचारों से मेल खाते थे। परिणाम-स्वरूप जून, 1915 में ब्रिटेन के सम्राट के जन्मदिन पर सम्मानित व्यक्तियों की सूची में उनका भी नाम शामिल था, जब ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा के लिए उन्हें 'कैसरे हिन्द' पदक मिला था। वह अपने गुरु के प्रति सच्चे तथा ईमानदार रहे और तिलक के प्रति आदर-भाव से परिपूर्ण होने के बावजूद, वह उनकी ओर नहीं झुके। इसीलिए 1921 में उन्होंने इस आरोप का, कि हालांकि वह अपने को गोखले का शिष्य बताते हैं, फिर भी उन्होंने एक ऐसे कार्य का बीड़ा उठाया है, जो तिलक को सबसे अधिक प्रिय है, खण्डन किया और कहा कि ''मैं तिलक का अनुयायी होने का दावा नहीं कर सकता। पूरी विनम्रता से मेरा यह दावा है कि मैं उनके उत्तम शिष्यों की भांति ही उनके सन्देश को ईमानदारीपूर्वक देश के कोने-कोने में पहुंचाता हूं, लेकिन मैं यह भी जानता हूं कि मेरा तरीका तिलक का तरीका नहीं है।''

गांधी जी के इस कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कुछेक राजनैतिक टिप्पणीकारों का जो यह कहना है कि उनके सर पर तिलक का, न कि गोखले का सेहरा बंधा था, वह एक कपोल कल्पना मात्र है। तिलक या गांधी-किसी के भी सर पर किसी का सेहरा नही बंधा था। नेपोलियन की तरह, जिसने अपनी तलवार के बल पर राजमुकुट प्राप्त किया था, उन दोनों ने भी राष्ट्रीय नेतृत्व अपने प्रयास और प्रतिभा से ही प्राप्त किया था। अतः गांधी जी और तिलक की राजनीतियों में साम्य और समन्वय दिखाने की कोशिश करना निरी बौद्धिक अटकलबाजी होगी, क्योंकि दोनों ने अपने अलग-अलग मार्गों का अनुसरण किया था।

जहां गोखले और तिलक का जीवन लगभग तीस वर्षों तक एक-दूसरे के समानान्तर चला था, वहां तिलक और गांधी जी केवल साढ़े पांच वर्ष तक ही साथ-साथ काम करते रहे और इस अवधि में भी तेरह मास तक तिलक चिरौल केस के सिलसिले में देश से बाहर इंग्लैड में रहे। और इन साढ़े चार वर्षों में भी वे दोनों केवल लखनऊ (1916), कलकत्ता (1917) और अमृतसर (1919) के कांग्रेस अधिवेशनों में तथा कुछ अन्य सभा-मंचों पर ही एक दूसरे से मिले थे। दिल्ली कांग्रेस अधिवेशन (1918) में दोनों ही उपस्थित नहीं हो सके थे। लखनऊ कांग्रेस में तिलक का बोलबाला था और उन्होंने विषय समिति में गांधी जी को स्थान दिलाने के लिए कायदे के खिलाफ प्रयास किया। कलकत्ता और इसके बाद अमृतसर अधिवेशन में भी जनता की निगाहें तिलक पर ही लगी रहीं और उनकी ही तूती बोलती रही, लेकिन अमृतसर अधिवेशन में ''महात्मा गांधी की जय'' के नारों से गगन-मण्डल गूंज उठा।

अतः भारत के राजनीतिक मंच पर गांधीजी का पदार्पण कांग्रेस संगठन के माध्यम से नहीं हुआ। इसका श्रेय तो सत्याग्रह जैसे उनके नए अस्त्र को ही प्राप्त है, जिसका सफल प्रयोग उन्होंने विरामगाम, चम्पारन, खेड़ा और अहमदाबाद में किया और विजय प्राप्त की। रौलट ऐक्ट के विरोध में हड़ताल करने के उनके आह्वान का जनता ने जो स्वागत किया, उसी के परिणामस्वरूप उन्हें राष्ट्रीय नेतृत्व प्राप्त हुआ। वह एक मसीहा थे, जो सत्य, प्रेम, अहिंसा स्वैच्छिक कष्ट सहन और आत्मबल की विचित्र-विचित्र बातें करते थे; वाइसराय को एक बराबर के आदमी की तरह पत्र लिखते थे; लोगों को दुर्व्यव्यहार के लिए डांटते-फटकारते थे; अपनी ''भारी से भारी भूलों'' को कबूल कर लेते थे और इस सबके बाद भी उनका प्रभाव अच्छा पड़ता था। इसके पूर्व भारत की राजनीति में ऐसी बातें देखने-सुनने को नहीं मिली थीं। ब्रिटिश सरकार के साथ अपना प्रथम अहिंसात्मक संघर्ष करते हुए भी वह उसके भर्ती सार्जेन्ट का काम कर रहे थे। मई, 1918 में दिल्ली युद्ध सम्मेलन के बाद, जिसमें तिलक को नहीं बुलाया गया था, उन्होंने वाइसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड को एक पत्र में लिखा कि ''यदि मैं अपने देशवासियों को पीछे हटाने पर मजबूर कर सकता, तो मैं उनसे युद्ध के दौरान कांग्रेस के तमाम प्रस्तावों को वापस करवाता और उन्हें 'होम रूल' या 'उत्तरदायी शासन' की मांग धीमी आवाज में भी नहीं करने देता। इस संकटपूर्ण घड़ी में मैं भारत के शारीरिक दृष्टि से समर्थ समस्त पुत्रों को ब्रिटिश साम्राज्य पर कुरबान कर देता। मैं यह सब इसलिए लिख रहा हूं कि मुझे अंग्रेज राष्ट्र से प्रेम है और मैं प्रत्येक भारतीय में अंग्रेजों के प्रति वफादारी की भावना पैदा करना चाहता हूं।''

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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