जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
अतएव यह बात आश्चर्यजनक नहीं कि अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारम्भ से ही तिलक और गोखले ने अपने को दो परस्पर विरोधी खेमों में बंटा पाया हो। जिस समय वे दोनों ऐजुकेशन सोसायटी के सदस्य थे, उसी समय उनके मतभेद खुलकर सामने आए। गोखले को 'सार्वजनिक सभा' का मंत्री बनने की अनुमति दी जाने के कारण तिलक ने सोसायटी से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद उनमें सामाजिक सुधार के प्रश्न पर मतभेद उठ खड़ा हुआ। एक तरह से गोखले का 'सार्वजनिक सभा' को (जिस पर तिलक ने कब्जा जमा लिया था) छोड़कर ('सार्वजनिक सभा' के प्रतिद्वंदी संस्था स्वरूप रानडे द्वारा स्थापित) डेक्कन सभा में शामिल होना तिलक से अन्तिम रूप से सम्बन्ध विच्छेद करने के समान था।
फिर इसके बाद से तो अपने जीवन में अन्त तक दोनों एक दूसरे के घोर विरोधी बन रहे और जैसे-जैसे तिलक की राजनीति अधिकाधिक उग्र होती गई, वैसे-वैसे गोखले अपने उदार विचारों के घेरे में बंधते चले गए। गोखले की प्रतिभा संसदीय बहस मुबाहसों के दांवपेचों में मुखरित होती थी और सुप्रीम लेजिस्लेटिव काउन्सिल (सवोंच्च विधान परिषद) में दिए गए उनके जोरदार भाषण आज भी पठनीय हैं। दूसरी ओर तिलक यह महसूस करते थे कि केवल सामूहिक कार्रवाई से ही राष्ट्र का उद्धार हो सकता है, इसलिए जनता को ''शिक्षित करो भड़काओं और संगठित करो'', यही उनका लक्ष्य था।
यह विश्वास करने के कुछ कारण मौजूद हैं कि गोखले एक प्रकार से नरम दलवालों के बीच थोड़ा गरम विचारों के थे। इसलिए अगर उन्हें अकेले छोड़ दिया गया होता, तो संभव था कि वह धीरे-धीरे उसी स्थिति में आ जाते, जो तिलक की थी। उदाहरण के लिए गोखले का लॉर्ड कर्जन को औरंगजेब कहकर उनकी आलोचना करना या बनारस कांग्रेस में दिए गए अपने अध्यक्षीय भाषण में बहिष्कार का जोरदार समर्थन करना इस बात के प्रमाण हैं। सर वैलेण्टाइन चिरोल ने गोखले की इस बात की कटु आलोचना करते हुए कहा था कि ''वह तिलक के लिए गर्व की घड़ी रही होगी, जबकि वह व्यक्ति, जिसने डेक्कन में बड़े साहस के साथ अक्सर उनके उत्तेजनात्मक तरीकों और प्रतिक्रियावादी प्रवृत्तियों का विरोध किया था, उनके हाथ में खेलने लगा और बनारस कांग्रेस में उसने जब अध्यक्ष पद से बहिष्कार का निश्चित राजनैतिक उद्देश्य से एक राजनैतिक अस्त्र के रूप में समर्थन किया।''
गोखले इस प्रकार की टीका-टिप्पणियों और इस सम्बन्ध में फिरोजशाह मेहता की प्रतिक्रियाओं से शीघ्र प्रभावित हो जाया करते थे और इस प्रकार गुमराह होकर, उन्हें अपने उदार विचारों पर वापस लौटने में अधिक समय नहीं लगता था। कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन तक स्वेदेशी और बहिष्कार के प्रति उनके विचारों में स्पष्ट परिवर्त्तन आ गया था, जिससे क्षुब्ध होकर तिलक ने 'केसरी' में लिखा :
''गोखले का कहना है कि मैं नए दल में नहीं हूं। साथ ही यह बात सभी जानते हैं कि पिछले कांग्रेस अधिवेशन में उनके दल ने स्वदेशी और बहिष्कार के प्रस्ताव को एक समझौते के रूप में बड़े अनमने ढंग से स्वीकार किया था। उनके दल का स्वाभाविक झुकाव इस ओर है कि ब्रिटिश सरकार के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाए रखा जाए और नौकरशाही से अनुनय विनय करके कुछ चीजें हासिल की जाएं। लेकिन पिछले कांग्रेस अधिवेशन के बाद वे इस नरम रुख को अख्तियार नहीं कर सकते। कांग्रेस के आदर्शों और स्वदेशी के प्रति उन्हें अपना अस्पष्ट रुख त्यागना ही होगा और कोई निश्चित रुख अक्तियार करना ही होगा। वास्तव में यह एक जटिल स्थिति है और हम लोग यह जानने को उत्सुक थे कि गोखले इससे बाहर निकलने का कमाल कैसे कर दिखाते हैं। अब उनके भाषणों को पढ़कर हमारी ये जिज्ञासाए शान्त हो गई हैं और हम पूरी तरह निराश हो चुके हैं।
''अपने दल की विचारधारा के अन्तर्विरोध के लिए गोखले को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह अन्तर्द्वन्द्व उस दल की विचारधारा में ही अन्तनिर्हित है। अतः वह जितना ही अपने पक्ष को स्पष्ट करने की कोशिश करेंगे, उतना ही अधिक वह उसकी कमजोरी के प्रति सचेत होंगे। और अगर वह इससे निकलने की कोशिश करेंगे, तो उनके कार्य नहीं तो-उनकी विचारधारा जरूर ही नए दल की विचारधारा से मेल खाने लगेगी।''
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट